नए
क्षितिज/ बालेन्दु शर्मा दाधीच
वर्ष 2005 से हिन्दी ब्लॉगिंग में अपनी सक्रियता के नाते मैंने भी अनेक अवसरों पर कहा है कि ब्लॉगिंग साहित्य की एक स्वतंत्र विधा बन सकती है। किंतु आलोक कुमार रचित पहले हिन्दी ब्लॉग
के बाद के 8 सालों में हम उसे 'विधा'
बनाने में नाकाम रहे हैं। वह अभिव्यक्ति का जरिया बनी, विचार-विमर्श का माध्यम बनी, अपनी पहचान बनाने का
मंच बनी और यहां तक कि उसने हिन्दी भाषा की तकनीकी प्रगति को भी गति दी, लेकिन साहित्यिक विधा वह नहीं बन सकी। वह बन जरूर सकती थी, यदि इसके लिए गंभीरता से प्रयास किए जाते। यदि हम अधिक से अधिक हिन्दी
साहित्यकारों को इस ओर आकर्षित कर पाते।
यदि
हम हिन्दी ब्लॉगिंग की विषयवस्तु, लेखन शैली, भाषा आदि पर संजीदगी के साथ कुछ वर्ष
कार्य करते। यह कार्य सिर्फ ब्लॉगरों के स्तर पर होने वाला नहीं था। यह हिन्दी के
साहित्यकारों, विद्वानों, भाषाशास्त्रियों
आदि की सक्रिय भागीदारी से ही हो सकता था, भले ही वह
अनौपचारिक किस्म की भागीदारी होती। किंतु हम एक विधा के रूप में उसके विकास की
अपेक्षा अन्य दिशाओं में अधिक सक्रिय रहे। हालांकि यह सब करने पर भी संभवत: प्रश्न
बने ही रहते, क्योंकि ब्लॉगिंग तो अभिव्यक्ति को बंधनों से
मुक्त करने वाला माध्यम है, वह न जाने साहित्यिक विधा जैसे
बंधन में बंधने को तैयार होती या नहीं।
ब्लॉगिंग
'विधा' बन
सकती थी, किंतु वह 'माध्यम' भर बन पाई। अपनी रचनाधर्मिता को दूसरों तक पहुंचाने का माध्यम। वैसे ही,
जैसे कोई भी अन्य माध्यम है या हो सकता है, जैसे
टेलीविजन, सिनेमा या नुक्कड़ नाटक। साहित्य से इन माध्यमों
के लिए अंगीकृत की गई रचनाओं की बात छोड़ दें तो जिन रचनाओं को खासतौर से इन
माध्यमों के लिए लिखा गया, उनमें से कितनी ऐसी हैं, जो उत्कृष्ट हिन्दी साहित्य की श्रेणी में गिनी गई हैं। उंगलियों पर गिनी
जाने लायक। साहित्यिक विधाएं ये भी नहीं हैं, क्योंकि उनके
लेखन की कोई स्पष्ट दिशा नहीं है, साहित्यिकता के मापदंडों
पर वे पिछड़ जाती हैं। एक माध्यम के रूप में हमने ब्लॉग पर वही सब कुछ डाला,
जो शायद किसी अन्य माध्यम में डालते, जैसे-
कविता, कहानी, लेख, व्यंग्य, यात्रा वृत्तांत, समीक्षा,
बाल साहित्य आदि-आदि। हमारे ब्लॉग साहित्य में भला अलग क्या है?
उस 'अलग' का अलग से
विकास किए जाने की जरूरत थी। पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली रचना को ज्यों की त्यों
ब्लॉग पर डालकर हमने ऐसा कोई विशेष कार्य नहीं किया जिससे यह माना जाए कि ब्लॉग एक
स्वतंत्र विधा बन गया है। यह सिर्फ एक माध्यम बना, एक अलग
पाठक वर्ग तक पहुंचने का।
दूसरी
ओर रेडियो नाटक (रेडियो) और रिपोर्ताज (पत्रकारिता) आदि को देखिए जिनका विधाओं के
रूप में पर्याप्त विकास हुआ है। ब्लॉगिंग की ही तरह ये सभी पारंपरिक (पत्रिका, पुस्तक) से इतर माध्यम थे किंतु
वे साहित्य के साथ तारतम्य बनाने में सफल रहे।
सौभाग्य
से सोशियल नेटवर्किंग और माइक्रोब्लॉगिंग के दबावों के बावजूद ब्लॉगिंग को एक
साहित्यिक विधा के रूप में विकसित करने के लिए संभावना पूरी तरह खत्म नहीं हुई है।
शुरुआत आज भी की जा सकती है। इसके लिए सबसे पहली जरूरत है ब्लॉगिंग के माध्यम की
विलक्षण प्रकृति को समझने की, जो दूसरे माध्यमों से अलग है।
इंटरनेट के पाठक सामान्य साहित्यिक पाठकों से अलग हैं। उनकी पृष्ठभूमि तथा भौगोलिक
स्थित भी अलग है। साहित्य के पारंपरिक पाठक के विपरीत, वे
स्वभाव से धैर्यवान नहीं हैं। इतना ही नहीं, इंटरनेट के
माध्यम की शक्तियां भी दूसरे माध्यमों की तुलना में भिन्न एवं अधिक हैं। मिसाल के
तौर पर एक ही पृष्ठ पर विभिन्न प्रकार की विषयवस्तु को समाहित करने, एकाधिक भाषाओं का प्रयोग संभव बनाने, पाठक के साथ
सीधे संवाद करने और रचनाओं को निरंतर परिमार्जित करने की सरलता।
इंटरनेट
आधारित सामग्री के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना जरूरी है- पहली, एक बार पोस्ट करने के बाद उसे
इंटरनेट से पूरी तरह हटा पाना लगभग असंभव है, क्योंकि इस बीच
उसे किसी न किसी व्यक्ति द्वारा उसे सहेज लिए जाने, किसी
अन्य पृष्ठ पर डाल दिए जाने, आरएसएस फीड जैसे माध्यमों से
लोगों तक पहुंच जाने तथा सर्च इंजनों द्वारा कैश कर लिए जाने की संभावनाएं बहुत
अधिक हैं। नेट पर इस सामग्री की मौजूदगी लगभग स्थायी है और आने वाले अनेक वर्षों
बाद भी वह मौजूद रहेगी। लेखन के दौरान यह तथ्य ध्यान में रखा जाना जरूरी है। दूसरी
जरूरी बात जिसका ध्यान रखा जाना चाहिए, वह है एक ही सामग्री
का अनेक इंटरनेटीय ठिकानों पर, संचार के अनेक माध्यमों तक
पहुंच जाना। बेहतर है, ब्लॉग लेखन इन परिस्थितियों को ध्यान
में रखकर हो। इंटरनेट की अपनी भाषा, कलेवर, संस्कार और सरोकार हैं जिनके साथ तालमेल बिठाना भी उतना ही जरूरी है।
न
हो अवास्तविक आकलन : ब्लॉगिंग का जिक्र करते समय हम अकसर उसका घालमेल
इंटरनेट, तकनीक, हिन्दी सॉफ्टवेयरों और पोर्टलों तथा वेबसाइटों के साथ कर लेते हैं। उन
सबकी सफलता को ब्लॉगिंग की सफलता करार देते हैं जबकि ब्लॉगिंग एक स्वतंत्र तत्व
है। ये उपलब्धियां ब्लॉगिंग की वजह से नहीं हैं। उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है,
उनकी अपनी अलग विकास यात्रा है।
हाल
ही में एक पुस्तक के प्राक्कथन में पढ़ा कि लेखक ने रोमन में टाइप करते हुए हिन्दी
में लिखने की सुविधा को ब्लॉगिंग की विशेषता के रूप में गिनाया था। यह सत्य नहीं
है। ट्रांसलिटरेशन तो एक तकनीकी सुविधा है, वह ब्लॉगिंग की ताकत नहीं है। उसे आप ई-मेल से लेकर
अपने दफ्तर के दस्तावेजों तक में इस्तेमाल कर सकते हैं। उसे हिन्दी ब्लॉगिंग की
विशेषता नहीं माना जा सकता। तकनीक की दुनिया एक समानांतर दुनिया है जिसमें ऐसी
सुविधाओं का विकास एक अनंत प्रक्रिया है।
पिछले
साल हिन्दी ब्लॉग जगत की उपलब्धियों के एक लोकप्रिय आकलन पर नजर पड़ी जिसकी शुरुआत
ही 'अभिव्यक्ति-अनुभूति',
'हिन्दीनेस्ट', 'कविता कोश' आदि के जिक्र के साथ हुई थी। ये सब ब्लॉग कहां हैं? ये
तो इंटरनेट पोर्टल और साहित्यिक वेबसाइटें हैं जिनकी एक अलग श्रेणी और पहचान है।
उन्हें ब्लॉगों में कैसे गिना जा सकता है? ब्लॉग तो वे हैं,
जो आपकी निजी वेब डायरी के रूप में दूसरों तक पहुंच रहे हैं।
हिन्दी
विकीपीडिया, वेबकास्टिंग,
विभिन्न हिन्दी पोर्टल, साहित्यिक पत्रिकाओं
के इंटरनेट संस्करण आदि भी ब्लॉग नहीं हैं। ब्लॉगिंग के आकलन के समय ध्यान रखना
चाहिए कि इंटरनेट पर मौजूद हर हिन्दी सुविधा या हिन्दीगत ठिकाना 'ब्लॉग' नहीं है। 'न्यू मीडिया'
शब्द का इस्तेमाल भी ब्लॉग के संदर्भ में धड़ल्ले से किया जा रहा
है।
'न्यू मीडिया'
सिर्फ ब्लॉग नहीं है। वह तो हर डिजिटल युक्ति में दिखने वाला हर
किस्म का कन्टेंट है। वेबसाइटें, पोर्टल, ई-कॉमर्स, ई-गवर्नेंस, सीडी,
डीवीडी, आई-पॉड पर चलने वाले गाने, यू-ट्यूब के वीडियो और यहां तक कि ई-मेल भी 'न्यू
मीडिया' के दायरे में आती हैं। ब्लॉग
तो उसका बेहद, बेहद छोटा
हिस्सा है। वैज्ञानिक तथा तकनीकी अवधारणाओं के संदर्भ में जागरूकता और बढ़ाने की
जरूरत है। जैसे अभिव्यक्ति और सामाजिकता की इस स्वत:स्फूर्त धारा को आप न तो
अनुशासित कर सकते हैं और न ही बलपूर्वक इस या उस दिशा में ले जा सकते हैं, क्योंकि यह अनौपचारिकता और आजादी ही इसकी ताकत है।
ब्लॉग
पर मौजूद खराब, कम गुणवत्ता की
सामग्री भी इस माध्यम के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि उच्च कोटि की
साहित्यिक या वैज्ञानिक सामग्री, क्योंकि यहां मुद्दा हर
व्यक्ति को एक उपकरण मुहैया कराने का है। वैसे ही जैसे मोबाइल फोन या ई-मेल है। हम
यह कहां कहते हैं कि फलां व्यक्ति मोबाइल फोन पर गालियों का प्रयोग कर रहा था,
उसे ऐसा करने से रोको नहीं तो मोबाइल तकनीक के साथ अन्याय होगा।
लेकिन हम यदा-कदा इस तरह की चिंताएं भी कर लेते हैं कि 'हिन्दी
ब्लॉगिंग में बहुत से अयोग्य व्यक्तियों का प्रवेश हो गया है। इससे बचने के लिए यह
सुनिश्चित करना होगा कि सुयोग्य लोग ही ब्लॉगिंग करें।' या
फिर 'अभिव्यक्ति की परम आजादी खतरनाक है और ब्लॉग लेखन का
नियमन होना चाहिए'। जब
विश्वव्यापी वेब का विकास करने वाले टिम बर्नर्स ली और डिफेंस एडवांस रिसर्च
प्रोजेक्ट्स एजेंसी (दारपा) ही वेब के प्रयोग को 'अनुशासित' या 'नियमित' नहीं कर पाए तो भला हम जैसे वेब के 'प्रयोक्ता' उसे कैसे काबू करेंगे? महज 8-10 साल की छोटी-सी अवधि में हिन्दी ब्लॉगिंग
ने संघर्ष, उत्कर्ष और ठहराव के तीन काल खंडों को जिया है।
तीनों
दौर के अलग-अलग इन्फ्लुएंसर, अलग-अलग चुनौतियां, अलग-अलग ज्वलंत मुद्दे, अलग-अलग किस्म की उपलब्धियां, सफलताएं और उतनी ही
अलग नाकामियां रही हैं। हम में से अधिकांश हिन्दी ब्लॉगरों के लिए यह माध्यम एक
वरदान के रूप में आया जिसने अनायास ही अभिव्यक्ति के ऐसे फ्लडगेट्स खोल दिए जिनकी
प्रतीक्षा रचनाकर्म में जरा-सी भी दिलचस्पी रखने वाले हर एक हिन्दी भाषी को थी
इसीलिए ज्यादातर ब्लॉगरों ने इस माध्यम को मुग्धता के भाव से देखा है, एक किस्म की रूमानियत, आत्मीयता और यहां तक कि
पजेसिवनेस के साथ लिया है।
जिस
माध्यम को हम देखते, पढ़ते, गुनते और जीते रहे हैं तथा जिसने हमें पहचान दिलाई है, उसके प्रति समर्पण और मोहभाव अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन यह मुग्धता और
पजेसिवनेस हमें एकांगी न बना दे, इस बात को लेकर सतर्क रहने
की जरूरत है। हिन्दी ब्लॉगिंग की वास्तविक समालोचना तभी संभव
है, जब उसे रिटोरिक से मुक्त होकर
संतुलित दृष्टिकोण के साथ देखा जाए। उस पर न सिर्फ समग्रतापूर्ण दृष्टि डाली जाए,
बल्कि अन्य भाषाओं के साथ तुलनात्मक नजरिए से भी देखा जाए।
इसे भी देखें: http://hindi-blogging-guide.blogspot.in/
साभार: http://hindi.webdunia.com/media-manthan/literature-114112800082_1.html
अभ्यास: पत्रकारिता और जनसंचार के सभी छात्रों से अनुरोध है कि वे अपना ब्लॉग बनाएं.
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