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Tuesday, January 20, 2015

खबर के बदलते मानदंड

मीडिया/ आकार पटेल
भारत में मीडिया के काम करने के तौर तरीक़े, उसका रवैया और उसके सरोकार हमेशा से बहस का मुद्दा रहे हैं. कॉरपोरेट पूँजी का दखल, संपादकीय मूल्य, ख़बरों की परिभाषा, ये तीन ऐसी चीजें हैं, जिनके इर्द-गिर्द सब चलता रहता है. ख़बर किस पर लिखी जा रही है, किनके लिए लिखी जा रही है, क्यों लिखी जा रही है, ये उतने ही अहम सवाल हैं, जितना किसी ख़बर का बिकाऊ होना. प्रस्तुत है बीबीसी हिन्दी वेबसाईट के लिए वरिष्ठ पत्रकार आकार पटेल का लिखा यह विश्लेषण:  
इस हफ्ते अख़बारों में छपी दो सुर्खियों ने मुझे चौंका दिया. पहली हेडलाइन भारतीय जनता पार्टी के सांसद फ़िरोज वरुण गांधी के एक लेख का था. लेख का शीर्षक था, "एन अनसर्टेन हॉबेसियन लाइफ़." वरुण गांधी ने इस लेख में भारत में खेती-बाड़ी की स्थिति का विश्लेषण किया है और लेख का अंत इस निष्कर्ष के साथ होता है कि भारत के सीमांत किसानों की स्थिति सदियों से ख़राब बनी हुई है. और उनमें से कई एक हॉबेसियन या अविश्वास और डर के साये में गरीबी से भरी ज़िंदगी हाशिए पर जी रहे हैं. दूसरी हेडलाइन उस महिला की मौत से संबंधित थी जो 30 करोड़ की संपत्ति की मालकिन थी और उनकी मृत्यु देखभाल न होने के कारण हुई थी. बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसके लिए सरकार को फटकार लगाई थी.
कहानी कुछ ऐसी थी कि नाराज़ बॉम्बे हाईकोर्ट ने 68 साल की महिला की मृत्यु के मामले की सुनवाई करते हुए सरकार की खिंचाई की थी जिसके पास वर्सोवा के यारी रोड पर 30 करोड़ की जायदाद थी लेकिन उपेक्षा के कारण उनकी मृत्यु हो गई. वर्सोवा शहर का एक उपनगरीय इलाक़ा है जहां अधिकांश आबादी धनाढ्यों की है.
हाई कोर्ट ने कहा, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि न तो उनके परिवार वालों ने और न ही सरकार ने उनकी देखभाल की, जबकि वरिष्ठ नागरिकों की भलाई के लिए बनाया गया एक क़ानून उनके लिए मेडिकल सहायता और वृद्धाश्रमों का प्रावधान करता है." दूसरे वरिष्ठ नागरिकों को इस तरह की स्थिति का सामना न करना पड़े, इसके लिए हाई कोर्ट ने मेंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ़ पैरेंट्स एंड सीनियर सिटीज़ंस एक्ट, 2007 के प्रावधानों की समीक्षा किए जाने की भी इच्छा जताई. मृतक महिला का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील ने कहा कि वो पिछले पांच सालों से बेहद तकलीफ की स्थिति में थीं. ये हाल किसी और का नहीं होना चाहिए.  उन्होंने कहा कि नए क़ानून के तहत वरिष्ठ नागरिक को नज़रअंदाज करने वाला व्यक्ति उस बुजुर्ग की संपत्ति का अधिकारी नहीं है. हालांकि कोर्ट ने इस ओर ध्यान दिलाया कि पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट से महिला की मौत कुदरती लगती है.
हेडलाइन में जो सबसे ख़राब बात थी वो ये थी कि इससे ऐसा लगता था कि किसी समृद्ध महिला का ये अंजाम इस तरह नहीं होना चाहिए था. एक ऐसे देश में जहां गांधी का ये कहना था कि लाखों लोग गुजर-बसर के लिए रोज संघर्ष कर रहे हैं, वहां मीडिया की नज़र धनाढ्य लोगों पर ही रहती है. कुछ हद तक ये कहा जा सकता है कि सारी दुनिया में ऐसा ही ढर्रा है कि मशहूर और क़ामयाब लोगों की ज़िंदगी को मीडिया कवरेज के लिहाज से ज़्यादा तवज्जो दी जाती है.
भारत में इसे खींच कर सम्पन्न और मध्यवर्ग तक कर दिया गया है और अक्सर आबादी का एक बड़ा हिस्सा इससे बाहर हो जाता है. भारत में दुनिया भर में सबसे ज़्यादा सड़क हादसे होते हैं लेकिन इससे जुड़ी ख़बरों की हेडलाइन बनती है 'बीएमडब्ल्यू एक्सीडेंट' क्योंकि एक फ़ैशनेबल महंगी कार को ज़्यादा कवरेज के लायक माना जाता है.  इसे बहुत ख़तरनाक़ स्तर का माना जाता है क्योंकि जो हमारे अख़बारों से परिचित हैं, वे उसे सही ठहराएंगे. इसका दूसरा उदाहरण है बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के कर्मचारियों की ख़बरें. अक्सर ज़्यादातर सॉफ्टवेयर कारोबार से जुड़ी कंपनियां विज्ञापनों में ज़्यादा जगह नहीं घेरती हैं.
अगर किसी बड़ी कंपनी में एक लाख से ज़्यादा कर्मचारी हैं तो इतने बड़े संस्थान में ख़ुदकुशी, बलात्कार, हिंसा या चोरी के मामले भी उसी अनुपात में होंगे जितना सामान्य तौर पर महानगरों में होते हैं और अक्सर कंपनी के कामकाज से इन घटनाओं का कोई लेना-देना नहीं होता. लेकिन भारत में मीडिया उसकी हेडलाइन कुछ इस तरह से लगाता है, 'इंफोसिस कर्मचारी ने ख़ुदकुशी की', 'विप्रो कर्मचारी की आत्महत्या'.
मीडिया का तर्क यह हो सकता है कि नौकरी के कॉरपोरेट संस्थान का ज़िक्र ख़बर को दिलचस्प बनाता है, लेकिन अगर आप 'रिलायंस कर्मचारी की ख़ुदकुशी' की ख़बर खोजने की कोशिश करें तो आपको नाकामी ही मिलेगी. रिलायंस में भी बहुत बड़ी तादाद में लोग काम करते हैं तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि उसके कर्मचारियों के जीवन में हिंसा, बलात्कार या आत्महत्या जैसी घटनाएँ होती ही नहीं.
मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि मीडिया को ऐसी ख़बरों में रिलायंस का नाम जोड़ देना चाहिए बल्कि केवल सॉफ्टवेयर कंपनियों का नाम जोड़ना ग़लत है जब तक कि मामले का ताल्लुक कंपनी के कामकाज से न हो. दूसरे मामलों में भी इस तरह की चुनिंदा रिपोर्टिंग की समस्या देखी जाती है.
भारत में हर साल बलात्कार के लगभग 25 हज़ार मामले दर्ज होते हैं. पश्चिम के कई देशों की तुलना में ये आंकड़े कम हैं. लेकिन मीडिया इन घटनाओं की रिपोर्टिंग के वक्त उस वर्ग के पीड़ितों को अधिक तवज्जो देता है जो उसे ज़्यादा खास लगते हैं. एक टैक्सी में हुए बलात्कार की घटना की रिपोर्टिंग अनुपात से ज़्यादा हो जाती है और उसी शहर के किसी और कोने में हुए वैसे ही अपराध की ख़बर देने के तरीक़े में फर्क आ जाता है. मीडिया मध्यवर्गीय भारत की उस भावना से बाहर नहीं निकल पाता कि गरीबों की ज़िंदगी कवरेज के लिहाज से उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि उनका जीवन थॉमस हॉब्स के शब्दों में 'गंदा और पाशविक' है. (19 जनवरी, 2015 से साभार.) 

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