School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला

Monday, December 21, 2015

क्या रिपोर्टिंग का अंत हो गया है?

मीडिया/ रवीश कुमार 
आपने न्यूज चैनलों पर रिपोर्टिंग कब देखी है? जिन चैनलों की पहचान कभी एक से एक रिपोर्टरों से होती थी, उनके रिपोर्टर कहां हैं? अब किसी खबर पर रिपोर्टर की छाप नहीं होती। रिपोर्टर का बनना एक लंबी प्रक्रिया है। कई साल में एक रिपोर्टर तैयार होता है जो आस पास की खबरों से आपको सूचित करता है। खोज कर लाईं गई खबरें गायब होती जा रही हैं। खबरों को लेकर रिपोर्टरों के बीच की प्रतिस्पर्धा समाप्त हो चुकी है। ब्रेकिंग न्यूज उसी प्रतिस्पर्धा का परिणाम था लेकिन अब सूचना की जगह बयान ब्रेकिंग न्यूज है। ट्वीट ब्रेकिंग न्यूज है। क्या एक दर्शक के नाते आप चैनलों की दुनिया से गायब होते रिपोर्टरों की कमी महसूस कर पाते हैं?
अगर रिपोर्टर नहीं हैं तो फिर आस पास की दुनिया के बारे में आपकी समझ कैसे बन रही है? या आपको समझ बनानी ही नहीं है? इससे नुकसान किसका हो रहा है? आपका या रिपोर्टर का? चैनल अब भी सर्वसुलभ जन संचार के माध्यम हैं। लेकिन इन पर क्या जन नजर आता है? क्या एक दर्शक के नाते आप देख पा रहे हैं कि आपके आसपास की दुनिया कितनी सिमट गई है? या आपको फर्क नहीं पड़ता है? खबरों को मार देने का लाभ क्या एक दर्शक को मिल रहा है? टीवी पर बहस ने खबरें लाने के कौशल को मार दिया है।
टीवी और ट्विटर में खास फर्क नहीं रहा। टीवी के स्क्रीन पर ट्विटर की फीड को लाइव कर देना चाहिए। तर्क के जवाब में तर्क हैं। फिर तर्क को लेकर समर्थन और विरोध है। फिर हर सवाल से जवाब गायब हो जाता है। तर्क और बोलने के कौशल ने रिपोर्टरों की खबरों को समाप्त कर दिया है।
जब कोई दूर दराज या अपने ही शहर के कोने कोने में नहीं जाएगा तो प्रशासन और सरकार की जवाबदेही कैसे तय होगी? क्या इन सब की मौज नहीं हो गई है? खबर आती नहीं कि बयान देकर उसे बहस में बदल दिया जा रहा है। फिर दर्शक समर्थक में तब्दील हो जाता है और पार्टी के हिसाब से बहस में शामिल हो जाता है। इस प्रक्रिया से सिस्टम की मार झेल रहे तबके में हताशा फैल रही है। सूचना देने वाला तंत्र कमजोर हो रहा है और कमजोर किया जा रहा है। सोशल मीडिया और चैनलों पर आकर फालतू सवालों से एक ऐसी वास्तविकता रची जा रही है जो वास्तविक है ही नहीं।
लोग धरने पर बैठे हैं। लाठियां खा रहे हैं। वो किससे बात करें। उनके लिए रिपोर्टर ही तो है जिसके जरिये वो सरकार और समाज से अपनी बात बताते हैं। इस कड़ी को आप खत्म कर दें और आपको फर्क ही न पड़े तो नुकसान किसका है? आपका है। आप जो दर्शक हैं। अगर आप दर्शक होने की जवाबदेही में लापरवाही बरतेंगे तो खुद को ही तो कमजोर करेंगे।
रोज रात को होने वाली बहसों पर आपने कुछ तो सोचा होगा । क्या दर्शक होने की नियति पार्टियों का समर्थक या विरोधी होना रह गया है? आप दर्शक हैं या कार्यकर्ता हैं? आप जो इन बहसों को अनंत जिज्ञासाओं से देख रहे हैं उससे हासिल क्या हो रहा है? बहसें होनी चाहिएं लेकिन क्या सार्थक बहस हो रही है? जवाब देने से पहले विरोधी की मजम्मत और सवाल पूछने से पहले पूछने वाले को विरोधी बता देना। इनसे भी लोकतंत्र समृद्ध होता ही होगा लेकिन क्या आप देख नहीं पा रहे हैं कि रोज एक मुद्दा कैसे आ जाता है? कैसे जब तक पिछले मुद्दे की जवाबदेही तय होती अगले दिन कोई और मुद्दा आ जाता है?
हम लगातार मुद्दों के पीछे भाग रहे हैं। उन मुद्दों के पीछे जिनमें आपके पार्टीकरण की संभावना ज्यादा है। इन मुद्दों को ध्यान से तो देखिये। तंत्र आसानी से रोज एक नए मुद्दे को रचता है। फेंकता है। अगले दिन का मुद्दा दर्शक को याद रहता है न एंकर को। हर दिन मुद्दे की बहस में कोई एक हारता है तो कोई एक जीतता है। इन बहसों के जाल में आपको फंसा कर आपके पीछे क्या हो रहा है? क्या आपको पता है? क्या आप जानना चाहते हैं? हर खेमे के लोग फिक्स हैं। हर बात पर अपने तर्कों के कौशल से पहले पार्टीकरण करते हैं फिर हैशटैग करते हैं और फिर ट्रेंड करने लगता है। ट्विटर और टीवी एक दूसरे के अनुपूरक हो गए हैं। इस प्रक्रिया से कमजोर तबका गायब कर दिया गया है। उसकी आवाज कुचली जा रही है। बहसों से जनमत बनाने के नाम पर जनमत की मौत हो रही है। ऐसे चैनलों की संभावना खत्म नहीं होगी। जब तक लोकतंत्र में लोगों को मुर्दा बने रहने के लिए जिंदा होने का भ्रम भाता रहेगा बहस की दुकान चलेगी। टीवी के जरिये तंत्र अपना विस्तार कर रहा है। वो आपको अपने जैसा ओर अपने लिए बना रहा है।
चैनल तो चल ही रहे हैं। चलेंगे। हम भी वही कर रहे हैं जो सब कर रहे हैं। किसी की नैतिकता किसी से महान नहीं है बल्कि मैं आप दर्शकों से प्रसन्न हूं कि आपके लिए नैतिकता का कोई मतलब नहीं है। वो एक जरूरत का हथियार है जो आप अपने विरोधी को लतियाने गरियाने के काम में लाते हैं। कुछ लोगों का देश और समाज के विमर्श पर कब्जा हो गया है। एक नया तंत्र बन गया है। इस कॉन्प्लेक्स में दर्शकों के बड़े हिस्से को शामिल कर लिया गया है । मैं इसे बदल नहीं सकता और न क्षमता है लेकिन जो हो रहा है उसे अपनी समझ सीमा के दायरे से कहने का प्रयास कर रहा हूं।
जो कमजोर हैं वो इस खतरे को कभी समझ नहीं पायेंगे। वो एयरपोर्ट या मॉल में अचानक टकरा गए एंकर को रिपोर्टर समझ कर अपना हाल बताने लगते हैं। ईमेल लेकर खुश हो जाते हैं। न्यूज चैनलों को मोटी मोटी चिट्ठियां लिख कर खुश हो लेते हैं । शायद इंतज़ार भी करते होंगे । तीन तीन घंटे बहस चलती है । आप देख रहे हैं । कभी रिपोर्टर भी ढूँढ लीजिये । कभी कोई चैनल रिपोर्टर से बनता था अब एंकर से हो गया है । एंकर सेलिब्रेटी है। एंकर राष्ट्रवादी है। सांप्रदायिक टोन में भाषण दे रहा है। उसके साथ आपकी सेल्फी है।
जमीन की खबरें गायब हैं। कहीं जयंती तो कहीं पुण्यतिथि के नाम पर खबरों की रिसायक्लिंग हो रही है। फालतू का स्मरण हो रहा है। स्मरण अब दैनिक कर्तव्य बन गया है। नेता भी ट्वीट कर स्मरण कर लेते हैं। याद किया जाना एक रोग हो गया है। सेल्फी की तरह हो गया है रोज किसी दिवंगत को राष्ट्रपुरुष बताना। ट्विटर पर रोज सुबह किसी की मूर्तियां लग जाती हैं। सब गुजरे हुए महापुरुष को याद कर महापुरुष बन रहे हैं। टीवी और ट्विटर पर पॉलिटिकल जन्मदिन की बाढ़ आ गई है। याद करना काम हो गया है। याद करना उसे नए सिरे से भुलाने का नया तरीका है।
मैंने प्राय: न्यूज चैनल देखना बंद कर दिया है। कह सकते हैं कि बहुत कम कर दिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी आस्था इस माध्यम में नहीं है या इस माध्यम की उपयोगिता कम हो गई है। अगर ये सिर्फ बहस तक सिमट कर रह जाएगा तो आप उन प्रवक्ताओं की समझ का विस्तार बनकर रह जायेंगे जो इन दिनों उसी गूगल का रिसर्च लेकर आ जाते हैं जो एंकर लेकर आता है। गूगल रिसर्च की भी मौत हो गई है। लिहाजा जवाबदेही से बचने का रास्ता आसान हो गया है।
मुझे इस बात का कोई दुख नहीं है कि रिपोर्टर समाप्त हो रहे हैं। खुशी इस बात की है कि रिपोर्टर को इस बात का दुख नहीं है। उससे भी ज्यादा खुशी इस बात की है कि आप दर्शक दुखी नहीं है। जागरूकता की वर्चुअल रियालिटी में आप रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। मौज कीजिये। बहस देखिये। कांव कांव कीजिये। झांव-झांव कीजिये। जनता का हित इसमें है कि वो अपने नेता के हित के लिए किसी से लड़ जाए। नेता का हित किसमें है? उसका हित इसी में है कि जब भी आप बहस करें सिर्फ उसके हित के लिए करें!
(साभार: रवीश कुमार के ब्लॉग 'नई सड़क' से)

Tuesday, November 17, 2015

पत्रकारिता एवं जनसंचार के छात्रों के लिए जरूरी सूचना

MJMC-IV, PGDJMC-II, PGDBJNM-II और PGDAPR-II के जो छात्र देहरादून और हल्द्वानी में अक्टूबर में संपन्न मौखिक परीक्षा नहीं दे पाए, उनसे अनुरोध है कि वे शीघ्रातिशीघ्र अधोहस्ताक्षरी से संपर्क करें, ताकि बचे हुए छात्रों की मौखिकी (रु. 500/- विलम्ब शुल्क के साथ) हल्द्वानी में एक बार फिर से करवाई जा सके. जो परीक्षार्थी इस बार भी मौखिक परीक्षा नहीं दे पायेंगे, उन्हें अगले वर्ष तक इंतज़ार करना होगा.

प्रो. गोविन्द सिंह
निदेशक, पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्याशाखा
फोन: 9410964787 , E-mail: govindsingh@uou.ac.in
- See more at: http://www.uou.ac.in/announcement/2015/11/9129#sthash.r1AwTrFC.dpuf

Sunday, November 1, 2015

ब्लॉग बनाना सीखें

प्यारे साथियो,
अपने आप को व्यक्त करने का सबसे अच्छा साधन है डायरी. यदि आप नियमित रूप से डायरी लिखना शुरू कर दें तो आपकी भाषा, अभिव्यक्ति और शैली काफी सुधर सकती है.
आज के जमाने में डायरी का दूसरा रूप है- ब्लॉग. यानी कम्प्यूटर और इंटरनेट के जमाने की डायरी. आप किसी भी समस्या पर, अच्छी-बुरी बातों पर, खट्टे-मीठे अनुभवों पर इंटरनेट पर अपनी डायरी लिखिए और साथ ही अपने दोस्तों को बताइए, उनकी प्रतिक्रिया, आलोचना, प्रशंसा से अपने आप को सुधारिए.
हम आपको यहाँ यूट्यूब के एक पाठ से रू-ब-रू करवाते हैं, जिसमें सिखाया गया है कि ब्लॉग किस तरह से बनाया जाता है.


https://www.youtube.com/watch?v=cL9sYxJtM1c

Friday, October 9, 2015

पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विभाग: मौखिक परीक्षा की सूचना

पीजीडीजेएमसी, एपीआर, बीजेएनएम- द्वितीय समेस्टर और एमजेएमसी-चतुर्थ समेस्टर, के समस्त छात्रों को सूचित किया जाता है कि उनकी मौखिक परीक्षा (वाइवा) हल्द्वानी और देहरादून में निम्न कार्यक्रमानुसार होनी निश्चित हुई हैं.

सभी परीक्षार्थी अपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट/ लघु शोध प्रबंध इन तिथियों से पहले-पहल विश्वविद्यालय के परीक्षा विभाग में अवश्य जमा करवा दें. पोर्टफोलियो और अन्य प्रायोगिक कार्यों की फाइल मौखिकी के दिन परीक्षा केन्द्र पर ले आयें।
गढ़वाल अंचल के छात्रों के लिए: 20 अक्टूबर, 2015 सवेरे 11 बजे से. स्थान: यूओयू कैंपस, टी-27, अजबपुर कलां, निकट बंगाली कोठी चौक, टीएचडीसी कॉलोनी, देहरादून.
कुमाऊँ अंचल की छात्रों के लिए: 26 अक्टूबर, 2014 को सवेरे 11 बजे से. स्थान: विश्वविद्यालय मुख्यालय, तीनपानी बायपास, हल्द्वानी. 
संपर्क:
प्रो गोविन्द सिंह
निदेशक पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्याशाखा.
उत्तराखंड मुक्त विवि, हल्द्वानी
Phone: 09410964787

श्री भूपेन सिंह, सहायक प्राध्यापक, पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्याशाखा
Ph: 09456324236
श्री राजेंद्र सिंह क्वीरा, अकादमिक एसोशिएट, हल्द्वानी
PH: 09837326427           
देहरादून कैम्पस: श्री सुभाष रमोला; फ़ोन: 9410593690


Thursday, October 8, 2015

जर्नलिस्ट को एक्टिविस्ट नहीं बनना चाहिए: सिद्धार्थ वरदराजन

मीडिया/ अभिषेक मेहरोत्रा
द हिंदू के पूर्व एडिटर और हाल ही में द वायर (The Wire) नाम से डिजिटल पोर्टल लॉन्च करने वाले वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन का कहना है कि वे इस बात से सहमत नहीं है कि पत्रकारों को एक्टिविस्ट के तौर पर काम करना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक्टिविस्ट अपनी एक धारण को लेकर प्रतिबद्ध होते हैं, जबकि पत्रकार को हमेशा संतुलित रहकर रिपोर्ट फाइल करनी चाहिए। उन्होने कहा कि पत्रकार के अंदर काम के प्रति पैशन होना अत्यंत आवश्यक है।
दिल्ली के इंडियन हैबिटेट सेंटर में नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया (एनएफआई) द्वारा आयोजित चाइल्ड सर्वाइवल मीडिया अवॉर्ड्स के दौरान पत्रकारो को संबोधित करते हुए सिद्धार्थ ने कहा कि जिसे आप लोग डेवलपमेंट जर्नलिज्म कह रहे हैं, मैं उसी ही रियल जर्नलिज्म कहता हूं। उन्होंने कहा कि जिस तरह के विषय पर फेलोशिप पाने वाले पत्रकारों ने काम किया है, वे बहुत अहम है पर उनकी चर्चा न्यूजरूम में नहीं होती है। इन मुद्दों पर जो स्टोरीज लिखी गई है, वे वास्तविक तौर पर दिखाती है कि कैसे आमजन अपने जिंदगी जी रहा है।
उन्होंने कहा कि भारत में मीडिया का बहुत विशाल स्वरूप है। बड़ी संख्या में अखबार, के साथ-साथ चौबीस घंटे चलने वाले सैकड़ों चैनल्स हैं, पर इनमे से नब्बी फीसदी चैनल्स नुकसान मे ही है। जिन समूहो के बाद एंटरटेनमेंट चैनल है, वे ही रेवेन्यू बना पाते हैं। उन्होंने कहा कि अब मीडिया विज्ञापन का बिजनेस बन गई है। एक बड़े अंग्रेजी अखबार के मैनेजिंग डायरेक्टर का तो खुले तौर पर कहना है कि हम ऐडवर्टाइजिंग वर्ल्ड में काम करते हैं। सिद्धार्थ ने कहा कि आज विज्ञापनों के आधिपत्य के चलते रियल ग्राउंड रिपोर्टिंग के जरिए लिखी गई खबरों को भी सही स्पेस नहीं मिल पाता है। उन्होंने कहा कि आजकल सब कुछ इतना इकॉमिक ड्रिवन और पॉलिटिकली ड्रिवन हो गया है कि बड़े मीडिया हाउस छत्तीसगढ़ में नसबंदी के दौरान हुई महिलाओं की मौत पर खबर करने के लिए पत्रकार नहीं भेजते हैं, पर मैडिसन स्क्वायर पर पीएम की स्पीच कवर करने के लिए सभी के संवादादाता वहां मौजूद रहते हैं।
पर असली पत्रकार वही है जो इन तमाम मुश्किलों के बावजूद सही खबर प्रकाशित करने के लिए रास्त निकालता है। उन्होंने कहा कि पाक के मुकाबले भारत में अखबारों की पहुंच बहुत अधिक है, क्योंकि यहां उनकी कीमत काफी कम है।
उन्होंने कहा कि अच्छी खबर अब रुकती नहीं है। ऑनलाइन मीडिया जर्नलिज्म का एक नया रूप है, जहां अच्छी खबरें बहुत तेजी से वायरल हो जाती है। सिद्धार्थ ने कहा कि एक जर्नलिस्ट के तौर पर आप अपने संस्थान की नीति नहीं तय कर सकते हैं, पर खबर की क्वॉलिटी अच्छी करना आपके हाथ में होता है। उन्होंने कहा कि एक रिपोर्टर को कभी भी आंकड़ो से डरना नहीं चाहिए, उसे आंकड़ों की अच्छी समझ विकसित करनी चाहिए। मेरे साथ करीब 100 रिपोर्टरों ने काम किया है, पर ऐसे रिपोर्टर उंगुली पर गिन सकता हूं तो आंकड़ों की समझ रखते हैं और उसके आधार पर स्टोरी बना लेते हैं।
सिद्धार्थ बोले कि एक पत्रकार के लिए बेहद जरूरी है कि उसे स्टोरी टेलिंग की आर्ट आती हूं। अहम विषयों पर कई स्टोरीज इसलिए नहीं पढ़ी जाती है क्योंकि पत्रकार उसे बोरिंग और घिसे-पिटे तरीके से लिखते हैं। कोई भी स्टोरी तभी ज्यादा पढ़ी जाती है, जब वो क्रिएटिव तरीके से लिखी गई हो। साथ ही उन्होंने कहा कि हमेशा एक पत्रकार को याद रखना चाहिए कि वे स्टोरी किसके लिए लिख रहा है। अपने सोर्स को खुश करने के लिए स्टोरी न लिखें, हमेशा पाठक को ध्यान में रखने हुए लिखिए, तभी आप पत्रकारिता कर पाएंगे। एक पत्रकार के लिए सोर्स जरूरी होती है पर किसी एक सोर्स के दिए फैक्ट्स और फिगर्स को हमेशा क्रॉसचेक करना चाहिए ताकि आप किसी के द्वारा उसके तरीके से यूज नहीं हो सकें।
उन्होंने कहा कि हरेक पत्रकार को चाहिए कि वे किसी एक या दो क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करें। उन्होंने कहा कि पत्रकारों के लिए आरटीआई बड़ा टूल है पर पत्रकार इसका सही प्रयोग करना नहीं जानते हैं। वे इसके जरिए ऐसे सवाल पूछते हैं, जिनका जवाब अधिकारी आसानी से टाल देते हैं। (साभार)

http://www.samachar4media.com/journalists-should-not-be-activist-says-senior-journalist-siddharth-varadarajan 

Friday, August 28, 2015

कौन सही, कौन गलत, आप ही बताइए

तुलनात्मक अध्ययन/ जोसी जोसफ

इसे देखिए, पढ़िए और समझिए. देश के दो प्रतिष्ठित अखबारों निष्ठा. किसकी निष्ठा पत्रकारिता के साथ है और किसकी चमचई में घुली जा रही है, खबर की हेडिंग पढ़ के समझा जा सकता है. मैंने कल ही फेसबुक की अपनी पोस्ट में लिखा था कि अलग-अलग चम्पादक, माफ कीजिए सम्पादक अपने हिसाब से इस डाटा का इंटरप्रिटेशन करेंगे.
आज फेसबुक पर एक ही खबर के दो एंगल, बिलकुल जुदा एंगल तैरता हुआ देखा तो आपसे साझा कर रहा हूं. एक The Times of India नामक का देश का सबसे बड़ा अखबार है तो एक The Hindu नाम का प्रतिष्ठित अखबार. चूंकि टाइम्स ग्रुप में 6 साल नौकरी की है. Times Building में ही तो पता है कि वहां हेडिंग लगाने में कितनी मेहनत होती है. कितना इस पे विचारा और सोचा जाता है. नीचे से लेकर ऊपर तक के सभी पत्रकार इसमें involve होते हैं. और अंत में हेडिंग सम्पादक-मुख्य सम्पादक को भी बताई जाती है.
सो benefit of doubt के आधार पर Times of India को ये छूट नहीं दी जा सकती कि news editor या page one incharge यानी night editor टाइप की कोई चीज ने ये किया हो और ऊपर के लोगों को इसके बारे में पता ही ना हो. वो भी तब, जब अंग्रेजी वाले अखबार यानी Times of India पर विनीत जैन और समीर जैन की सीधी नजर होती है.
मैं ये नहीं कह रहा कि टाइम्स ऑफ इंडिया की हेडिंग गलत है. बस अखबार ने सरकारी डाटा का इंटरप्रिटेशन अपने हिसाब से कर दिया है. The Hindu अखबार ने उसी डाटा का इंटरप्रिटेशन अपने हिसाब से किया है लेकिन हेडिंग पढ़कर पाठकों को लगेगा कि दोनों अखबार परस्पर विरोधाभासी हैं. कोई एक अखबार गलत सूचना दे रहा है. लेकिन ऐसा है नहीं.
यही तो डाटा इंटरप्रिटेशन का कमाल है. चुनाव के वक्त ऐसे ही थोड़े सेफोलॉजिस्ट बैठकर मनमाफिक पार्टी को टीवी पर जितवा देते हैं. सब डाटा का ही तो कमाल होता है. अपने हिसाब से रिजल्ट निकाल लो.
बहरहाल. पत्रकारिता के छात्रों के लिए ये खबर और दोनों अखबारों की हेडिंग एक केस स्टडी है. और भारतीय लोकतंत्र तथा चौथे खंभे के लिए आईना. अब ये आप है कि आप इन दोनों में से कौन सा अखबार रोज पढ़ना चाहेंगे. क्योंकि -दैनिक जागरण- पढ़ने वालों को -हिन्दुस्तान- अखबार रास नहीं आएगा. मेरी खुशकिस्मती कि मैंने इन दोनों अखबारी ग्रुप में भी काम किया है. घोषित तौर पर कुछ नहीं होता, बहुत कुछ अघोषित होता है.
Josy
ने सही कथन का उद्धरण किया है
There are no facts, only interpretations!"
--Nietzsche
कुछ समझे !!! लोकतंत्र का चौथा खंभा डोल रहा है. मन डोले-तन डोले. और धन तो सबकुछ डोलावे रे. पैसा खुदा तो नहीं पर उससे कम भी नहीं. जूदेव बाबू यूं ही नहीं कहे थे ये बात.
अखबारों और टीवी चैनलों का अर्थशास्त्र समझे बिना पत्रकारिता के चौथे स्तम्भ की हकीकत कहां समझ पाएंगे आप !!! मैं ये नहीं कह रहा कि सबकुछ गंदा है, पर जो कुछ बचा है, उतना ही बचा रह जाए आगे तो ये इस लोकतंत्र के लिए शुभ होगा. जय हो !!!!
साभार: http://jansattaexpress.in/print/11989.html

Sunday, August 2, 2015

धर्मयुग का समय : पत्रकारिता से जुड़ी यादें, कुछ कड़वी, कुछ मीठी

संस्मरण/ मनमोहन सरल 



यह महज संयोग ही था कि मैं पत्रकार बना। बचपन में चाह थी कि मैं डॉक्‍टर कहलाऊँ। यहाँ तक कि कुछ बड़ा होने पर मैंने घर के दरवाजे पर चाक से लिख भी दिया था 'डॉ. मनमोहन खन्‍ना, एम.बी.बी.एस.'। हाँ, तब मैं अपना पारिवारिक सरनेम ही इस्‍तेमाल करता था। 'सरल' उपनाम तो बहुत बाद में आया और उसकी भी एक कहानी है, जिसका जिक्र बाद में कर पाऊँगा। मेरा जन्‍म एक नौकरीपेशा परिवार में हुआ था। दादा सरकारी महकमे में ट्रेजरार थे। दादी तो जब बाबूजी नौ वर्ष के थे, उन्‍हें छोड़कर भगवान को प्‍यारी हो गई थीं। दादा के छोटे भाई घर-बार छोड़ कर गंगा किनारे 'विदुर कुटी' में रहने लगे थे, बल्कि बिजनौर की उस प्रसिद्ध 'विदुर कुटी' का पुनरुद्धार भी उनके प्रयासों से हो चुका था। चाचा लोग मस्‍तमौला थे, खासकर छोटे चाचा तो कबूतर उड़ाने और घुड़सवारी के शौकीन थे। अलबत्‍ता बाबूजी बहुत मेहनती थे और अपने छोटे भाइयों को सँभालने में भी लगे रहते थे। पर किसी का दूर-दूर तक पत्रकारिता अथवा साहित्‍य से कोई रिश्ता न था।
मेरा जन्‍म नजीबाबाद में हुआ था, किंतु बचपन बिजनौर वाले घर में ही बीता था। बाबूजी महकमा बंदोबस्त में थे सो उनका ट्रांस्‍फर होता रहता था। उनके तबादले पर हम लोग बरेली चले गए, फिर आजमगढ। कई साल माँ ही हमें घर पर पढाती रहीं और इस बीच मैंने उनसे खूब सारी कहानियाँ सुनीं - धार्मिक भी, पौराणिक भी और तिलिस्‍मी भी। माँ की हस्‍तलिपि बहुत खूबसूरत थी - मोती जैसे अक्षर। मुझे याद है लकड़ी की तख्‍ती को खूब घोट कर चमकाना और उस पर खड़िया से सरकंडे की कलम से लिखना और सलेट पर गिनती और पहाड़े सीखना। जब मुझे खूब पढ़ना आ गया तो 'चंद्रकांता संतति' वगैरह सब पढ़ डालीं। और भी बहुत कुछ पढ़ा, जिसका ब्‍योरा अब याद नहीं।
स्‍कूल सीधे चौथी कक्षा में गया। स्‍कूल घर से काफी दूर था। पैदल जाता था - उम्र रही होगी कोई 6 साल। रास्‍ते में कचहरी पडती थी। उसके बाहर अक्‍सर लाशें पड़ी मिलती थीं, जो गाँव वालों की होती थीं, जिन्‍हें किसी-न-किसी आपसी झगड़े या विवाद में दूसरे पक्ष के लोगों ने मार दिया होता था। वे शायद तस्‍दीक या प्रमाण के लिए लाई जाती होंगी, यह मुझे पता न था। उन्‍हें देखकर मन में बहुत से सवाल उठते थे कि कोई किसी दूसरे को जान से मार क्‍यों देता है और कैसे मार देता है। क्‍या आदमी का जीवन इतना क्षणभंगुर होता है? और भी बहुत कुछ मन में आता था पर मेरा बाल मन इन सवालों के जवाब तलाशने के न तो योग्‍य था और न मैंने उन्‍हें जानने की कोशिश की। पर वह सब देख कर अक्‍सर बेहद दुखी मन और भारी कदमों से स्‍कूल जा पाता था।
एक दिन सकूल में छुट्टी घोषित हो गई। पता चला कि किसी बहुत बड़े कवि-चित्रकार की मृत्‍यु हो गई है, जिन्हें देश में सबसे पहला नोबेल पुरस्‍कार मिला था। अगले दिन जब टीचर ने उनके बारे में बताया तो पता चला कि वे कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर थे और यह भी कि नोबेल पुरस्‍कार क्‍या होता है।
इसके बाद पता चला कि दूसरा विश्‍व युद्ध शुरू हो गया है। क्‍यों होते हैं युद्ध और इनसे क्‍या हासिल होता है? कौन लड़ता है और उन्‍हें क्‍या मिलता है - ऐसे कितने ही सवाल उठे पर उनका समाधान सोचना किसे आता था? फिर एक दिन बाबूजी हड़बड़ाए हुए आए और कहा हम सब बिजनौर जाएँगे। जापानी फौज बर्मा तक आ पहुँची है और कभी भी कलकत्‍ता पर बम गिरा सकती है। कलकत्‍ता से आजमगढ़ दूर ही कितना है? यों भी यहाँ ब्‍लैक आउट तो होने ही लगा था और साइरन बजते ही हमें सकूल से कई बार भगा दिया गया था।
हम सब फिर से बिजनौर आ गए। कुछ दिन बाद स्‍कूल में बड़ा उत्‍सव हुआ। तमाम शहर में खूब मिठाइयाँ बाँटी गईं। सई साँझ से आसमान आतिशबाजियों से भर गया। हम बच्‍चों के तो पौ बारह हो गए। तालियाँ बजा-बजा कर तमाशा देखा। बाद में पता लगा कि विश्‍व युद्ध में इंग्‍लैंड-अमेरिका जीत गए हैं और यह सारा आयोजन जीत का जश्‍न मनाने का है।
याद तो अपने देश की आजादी मिलने वाले दिन की रौनक की भी थी। तमाम दिन 16 अगस्‍त को हम दोस्‍त शहर घूम घूम कर जायजा लेते रहे थे। जश्‍न का वह आलम नहीं दिखा, जो विश्‍वयुद्ध की समाप्ति पर बिजनौर ने पाया था। सबब शायद यह रहा होगा कि वह खर्च अँग्रेज बहादुर के खजाने से हुआ होगा। पर यहाँ भी पूरे मेरठ में बंदनवार लगे थे और तिरंगे झंडे और झंडियाँ लगी थीं। तब उम्र थी 13 साल से भी कम। तब तक मेरी राजनीतिक समझ विकसित न हो पाई थी, इसलिए कारण की समीक्षा तो नहीं कर पाता था, किंतु इतना जरूर समझा था कि जनता में खुशी और गम का मिला-जुला भाव था। स्‍वतंत्र होने के साथ-साथ देश तीन हिस्‍सों में तकसीम जो हो गया था। इसका मलाल कम न था।
हाई स्कूल साढ़े 13 साल की उम्र में ही पास कर लिया था और कॉलेज जाना शुरू हो चुका था। तब हम शाहपीर वाले घर में आ गए थे। कॉलेज पहुँच कर तुकबंदी वाली कविताओं ने रोमानी गीतों का रूप ले लिया था। हालाँकि किसी वास्‍तविक या काल्‍पनिक प्रेमिका का दूर-दूर तक पता न था। मुझे हमेशा लगता है कि ज्‍यादातर प्रेम-विषयक कविताएँ किसी अनजानी और अनुपस्थिति प्रेमिका को लक्ष्‍य करके ही लिखी जाती रही हैं।
गद्य और कहानियाँ लिखने का आरंभ भी महज एक इत्तिहाफ ही था। उस दिन मन कुछ अनमना था। बैठक में एक कलैंडर टँगा था, जिस पर कश्‍मीर का दृश्‍य था। उसे देख कर फिल्‍म 'बरसात' याद आने लगी और उससे प्रेरित होकर एक कहानी लिख मारी। अचरज यह भी हुआ कि वह छप भी गई - शायद 'मस्‍ताना जोगी' या 'प्रसाद' में। फिर और भी लिखीं और विषय ढूँढ़कर लेख भी लिखे। इस तरह लिखने का सिलसिला शुरू हो गया और लिखे हुए के छपने का भी।
छोटे भाई को ढोर डॉक्‍टर बनने के लिए मथुरा भेज दिया गया। मेरा नंबर नहीं आया। यों भी बाबूजी की आर्थिक स्थिति पहले जैसी नहीं रही थी और उनका स्‍थानांतरण सहारनपुर कर दिया गया था। दो जगहों पर रहने से खर्च भी बढ़ गया था। मैंने नौकरी करने की पेशकश शुरू कर दी। पर यह आसान न था। डिफेंस एकाउंट के दफ्तर में लोअर डिवीजन क्‍लर्क की नियुक्ति मिली पर पोस्टिंग नैनी में की गई। जाने का सवाल ही नहीं उठता था। बहुत हाथ पैर मारे। दो बार मिलिट्री बोर्ड के इंटरव्‍यू दिए। लिखित और इंटेलिजेंस टेस्‍ट में अच्‍छा स्‍थान पाया, किंतु इंटरव्‍यू में नहीं चुना गया। ऐसा हर बार ही होता रहा... चाहे यूपीएससी वाली जगह हो, जबलपुर की ऑडिनेंस फैक्‍टरी में नियुक्ति हो, रेलवे का या विकास अधिकारी की। कानपुर के एचबीटीआई में आगे पढ़ने के लिए प्रवेश चाहा पर वहाँ भी निराशा ही हाथ लगी।
इस बीच मेरठ की साहित्यिक संस्‍था 'प्रगतिशील साहित्‍यकार परिषद्' से संपर्क हो गया हो तो लिखना तेज हो गया। आखिर प्रति सप्‍ताह कुछ नया सुनाना जो पड़ता था। परिषद से जुड़ने से वरिष्‍ठ कवि रघुवीर शरण मित्र, ऐतिहासिक कथाकार आनंदप्रकाश जैन, कहानीकार लाडलीमोहन, गीतकार भारतभूषण, इतिहासकार अरुण जैसे उन दिनों के मेरठवासी साहित्‍यकारों से संपर्क स्‍थापित हो गया।
बाबूजी ने जब मेरा यह रुझान देखा तो उन्‍होंने हिंदी में एमए करने को कहा। साथ ही शाम को एलएलबी कक्षाओं में भी प्रवेश ले लिया। उसी साल एक वर्ष के लिए प्रसिद्ध गीतकार गोपालदास नीरज कॉलेज में लेक्‍चर बन कर आए। उनसे अच्‍छी आत्‍मीयता हो गई, जिसने मेरे गीतकार को उचित दिशा दी। उनमें से कई गीत 'अजंता' और 'विशाल भारत' में पहले पृष्‍ठ पर छपे। 'विशालभारत' में तो उनकी व्‍याख्‍या भी दी जाती थी।
रोमानी कविताओं ने मुझे कक्षा में खासा लोकप्रिय बना दिया। अक्‍सर क्‍लास में कतिवा-पाठ होता और खूब गा-गा कर गीत सुना कर वाहवाही लूटता। कॉलेज मैग्‍जीन के हिंदी भाग का संपादन भी सौंप दिया गया मुझे।
अब उपनाम की बात। मेरे पारिवारिक परिचय के दायरे में एक लड़की थी, जो उम्र में मुझसे बड़ी थी। दरअसल, सरला मेरे एक सहपाठी की बुआ थी। उसकी एक बड़ी बहन भी थी, सरोज। मेरे मन में उनके प्रति ठीक वैसा ही भाव था, जैसा मेरे सहपाठी के मन में रहा होगा। सरला बहुत खूबसूरत थी। उसे घर में सब प्‍यार से सरल पुकारते थे। मेरठ में होली के बाद एक मेला लगता है - 'नौचंदी'। एक शाम दोनों परविार उसमें घूम रहे थे। सरला भी थी। कुछ शरारती दोस्‍तों ने उसे मेरे साथ देख लिया। बस, अगले दिन उसका नाम मेरे साथ जोड़ दिया गया, जबकि मेरा रिश्‍ता एक परिचित मित्र का ही था। लेकिन अंतर्मन में कुछ ऐसा जरूर रहा होगा कि उपनाम के रूप में वह नाम मेरे साथ जुड़ गया।
जब एमए हो चुका तो नौकरी की तलाश फिर से तेज हो गई। पता नहीं, कहाँ-कहाँ एप्‍लाई किया पर एक इंटरव्‍यू के लिए बुलावा आया - बागपत के एक दूर दराज कस्‍बे से। गया, इंटरव्‍यू जैसा तो कुछ न हुआ। बस, कहा गया कि नियुक्ति 160 रु पर होगी पर मिलेंगे सौ रुपये और रसीद देनी होगी 160 की। मेरा मन इसे मानने को तैयार न था। यों भी जगह बहुत उजाड़-सी थी। सो वापस लौट आया और भविष्‍य का इंतजार करने लगा। तभी गाजियाबाद से एक कॉल आई। गया पर जब पहुँचा तब तक नियुक्ति हो चुकी थी। निराश लौट ही रहा था कि मन में आया कि प्रिंसपल पास में ही तो रहते हैं। उनसे मिलने की कोशिश की जाए। झिझकते-झिझकते दरवाजे की घंटी दबा दी। श्री बी एस माथुर सौहार्द से मिले। तब तक छपी अपनी सब पुस्‍तकें ले गया था। वे सब उनकी मेज पर सजा दीं। वे प्रभावित लग रहे थे। कहा कि मैं अपना पता आदि छोड़ जाऊँ, जगह हुई तो बुला लेंगे। मैं इस तरह से उत्तर सुनने का आदी हो चुका था, इसलिए बहुत आशान्वित न था। पर अगले सप्‍ताह ही अचरज जैसे मेरा इंतजार कर रहा था। महानंद मिशन कॉलेज दिल्‍ली के छात्रों से चलता था। जिनको दिल्‍ली में प्रवेश नहीं मिलता था, वे वहाँ आते थे। संख्‍या बढ़ जाने पर एक और सेक्‍शन खोलना पड़ा था, इसलिए जगह हो गई थी।
एक-दो साल सब ठीक चला। इस बीच अगले सत्र में से.रा. यात्री भी आ गए। तब वे प्रसिद्ध कथाकार नहीं हुए थे, बल्कि प्रेमगीत लिखा करते थे। मेरे एक सीनियर थे आनंदप्रकाश कौशिक। हम तीनों ने दयानंद नगर में एक फ्लैट किराए पर ले लिया और हम सब एक साथ रहने लगे।
लगता है कि इत्तिफाक फिर से मेरा इंतजार कर रहा था। एक दिन पीरियड खाली था। स्‍टॉफरूम में 'हिंदुस्‍तान टाइम्‍स' देख रहा था कि मेरी नजर दो पंक्तियों के एक विज्ञापन पर पड़ी। लिखा था - 'बंबई से निकलने वाले एक हिंदी साप्‍ताहिक के लिए योग्‍य सहायक संपादक की आवश्‍यकता है।' एप्‍लाई करने के लिए केवल बाक्‍स नंबर दिया गया था। तभी यात्री ने स्‍टॉफरूम में प्रवेश किया। उन्‍हें मैंने वह छोटा-सा विज्ञापन दिखाया तो वे बोले कि एप्‍लाई करने में क्‍या हर्ज है और मैंने अगले दिन प्रार्थनापत्र भेज दिया।
शायद, आठ-दस दिन में बुलावा आ गया। इंटरव्‍यू के लिए बुलाया गया था। पत्‍नी ने कहा कि चले जाओ, इस बहाने बंबई (तब वह मुंबई नहीं हुआ था) भी देख लोगे। धर्मवीर भारती से मेरा कोई परिचय न था। खतोकिताबत तक नहीं रही थी।
इंटरव्‍यू के समय ही पहली बार मिला था। 'ज्ञानोदय' आदि में उनको पढ़ता जरूर रहा था। कुछ किताबें भी पढ़ चुका था। सच तो यह था कि तब तक मैंने अखबार का कोई दफ्तर तक न देखा था। हाँ, एक बार 'नवभारत टाइम्‍स' के प्रधान संपादक अक्षयकुमार जैन से मिलने जरूर गया था। मैंने बताया कि मेरा बचपन नजीबाबाद से शुरू हुआ था। बाबूजी साहू परिवार को बचपन से जानते थे। बताया तो यह गया था कि शांतिप्रसाद जी और श्रेयांस जी उनके साथ ही खेले थे। जब मेरी ओर से सब तरफ निराशा ही दिख रही थी, बाबूजी ने शांतिप्रसाद जी को मेरे लिए पत्र लिखा, जिसका उत्तर भी तुंरत आ गया। साहूजी ने अक्षय जी से जाकर मिलने को कहा था और यह भी कि उन्‍होंने अक्षय जी को भी लिख दिया है। इस तरह पहली बार किसी अखबार के दफ्तर जाना हुआ और वह भी मात्र अक्षय जी के चैंबर में ही। अक्षय जी अपनी स्‍नॉबरी के लिए जाने जाते थे। उन्‍होंने वही-सा जवाब दे दिया कि अभी तो कोई जगह नहीं है, अपना पता छोड़ जाइए। जब अवसर होगा, बुला लेंगे।
वह दिसंबर की कोई तारीख थी, भारती जी से उनके केबिन में मिलना हुआ। मेज पर अपनी सभी प्रकाशित पुस्‍तकें रख दीं, जिन पर उन्‍होंने नजर तक न डाली। मुझे उपसंपादक की जगह तजबीज की तो मैंने कहा कि मैंने तो सहायक संपादक के पद के लिए आवेदन किया है, जिसके जवाब में भारती जी बोले कि वे उस पद के लिए तो रघुवीर सहाय अथवा सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना को लाने की सोच रहे है, फिलहाल तुम यह स्‍वीकार कर लो। फिर बात वेतन को लेकर उठी। पाँच इन्‍क्रीमेंट ऑफर किए गए, फिर भी वे मेरी अपेक्षा के अनुरूप न थे। इंटरव्‍यू बोर्ड के समक्ष भी यही बात दोहरा दी गई।
अपनी पुत्री और नाती के साथ भारती जी 
वे सब फॉर्मेलिटीज पहले ही निबटा लेना चाहते थे। सो मेडिकल जाँच भी करा ली गई और नियुक्ति-पत्र के साथ एक दस्‍तावेज और बनाया गया कि मैं फलाँ तारीख को अवश्‍य ज्‍वाइन कर लूँ। उस तरह के अनुबंध की क्‍या अहमियत हो सकती थी, यह मैं आज भी नहीं समझ पाया। मतलब यह कि भारती जी चाहते थे कि मैं नियुक्ति स्‍वीकार कर लूँ।
बहरहाल, थोड़ा-बहुत घूमघाम कर मैं लौट आया। संपादकीय विभाग कैसा होता है, मैंने झाँक कर भी नहीं देखा।
गाजियाबाद पहुँच कर साथियों से सलाह ली गई। पत्‍नी अध्‍यापन कर रही थीं, किंतु वे आसन्‍नप्रसवा थीं और प्रसव के लिए मायके इलाहाबाद जाना चाहती थीं। बंबई की समस्‍याओं को देखते वेतन मुझे कम लग रहा था। माँ-बाबूजी तो बिल्‍कुल तैयार न थे। उनके अनुसार इतनी दूर जाना, खासकर, बंबई जाना जान-बूझकर समस्‍याओं के समुद्र में कूदना था। पत्‍नी का तर्क था कि नौकरी तो उन्‍हें छोड़नी पड़ेगी और कम-से कम चार-पाँच महीने इलाहाबाद ही रहना पड़ेगा। मैं इस बीच बंबई में रहने का कामचलाऊ इंतजाम कर सकता हूँ।
इन सब बातों और घटनाओं के विवरण जान कर क्‍या किसी को गुमान भी होता है कि इनका मेरे पत्रकार बनने की संभावना से कोई रिश्‍ता है, नहीं ना? लेकिन नियति के आगे किसी चली है? कहते हैं न, 'होइए वही जो राम रचि राखा'। पर अब मैं सोचता हूँ कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप में इन सब ने एक पूर्वपीठिका तो जरूर बनाई है, जो मेरे पत्रकार जीवन पर कहीं-न-कहीं प्रभाव डालती अवश्‍य रही है।
अंततः जनवरी की 14 तारीख को मैंने 'धर्मयुग' के संपादकीय विभाग में प्रवेश लिया। पहली बार देखा कि सब सहयोगी कैसे काम करते हैं। सहायक संपादक कोई था नहीं, वरिष्‍ठतम मुख्‍य उपसंपादक थे हरिमोहन शर्मा। उनके बाद थे आनंदप्रकाश सिंह जो हमेशा जैसे उलझन में रहते थे। संपत ठाकुर गंभीर लगे और पन्‍नालाल व्‍यास निरंतर व्‍यस्‍त दिखाई दिए या शायद, वे व्‍यस्‍त दिखने का अभिनय करते थे। प्रसिद्ध उपन्‍यासकार उदयशंकर के सुपुत्र प्रमोद शंकर ने तो मेरे साथ ही ज्‍वाइन किया था।
आरंभ में जो पृष्‍ठ मुझे सौंपे गए, वे मेरी रुचि के ही थे। बस, साप्‍ताहिक भविष्‍य के अनुवाद को छोड़ कर। वह कोई विेदेशी महिला भेजती थी, अँग्रेजी में। यद्यपि किसी अखबार की डेस्‍क पर काम करने का यह पहला अवसर था, मुझे कोई दिक्‍कत नहीं हुई। सब समझने में थोड़ा समय जरूर लगा।
शायद, दूसरा या तीसरा ही दिन रहा होगा वह कि दोपहर बाद मेरी मेज के सामने एक सज्‍जन आ कर बैठ गए, कत्‍थई रंग का मामूली सा सूट पहने थे और गले में नायलोन की टाई लटक रही थी। उनके हाथ में एक सफेद रंग का पाउच था, जिसे उन्‍होंने मेरी मेज पर रख दिया था। उस पर 'हिंदी ग्रंथ रत्‍नाकर' छपा हुआ था। अपना हाथ बढ़ा कर हाथ मिलाने का आह्वान करते हुए बोले, 'आप मनमोहन सरन हैं न? मैं हूँ कन्‍हैयालाल नंदन। बंबई में आपका स्‍वागत करता हूँ। एक कॉलेज में पढ़ाता हूँ और यह त्रैमासिक पत्रिका भी निकालता हूँ।' और उन्‍होंने अपने पाउच से निकालकर एक पत्रिका सामने रख दी।
उनके और उनकी पत्रिका 'आधार' के बारे में मैंने पहले सुना न था, फिर भी जैसे तपाक से वे मिले थे, उससे मुझे अच्‍छा लगा। हाँ, रामावतार चेतन को जरूर जानता था, जो उनके साले थे। शुरू में मैं चैंबूर में रहता था, जहाँ की व्‍यवस्‍था 'पराग' के संपादक मेरे मेरठ के परिचित आनंदप्रकाश जैन ने कर दी थी, इसलिए चेतन ली के घर भी जा चुका था।
नंदन जी से यह मुलाकात किस तरह मित्रता में बदल गई, यह शायद वक्‍त का तकाजा रहा होगा। खुद ही उनकी अपनी पैरवी करने का कमाल ही था कि उन्‍हें भारती जी को झुकाने में ज्‍यादा वक्‍त नहीं लगा। यों भी भारती जी की रघुवीर सहाय या सर्वेश्‍वर दयाल को धर्मयुग में लाने की मुहिम नाकाम हो गई। सर्वेश्‍वर तो इंटरव्‍यू देने तक न आए। रघुवीर सहाय आए तो जरूर पर उन्‍होंने मुंबई में रहने से इनकार कर दिया। नंदन जी ने अपने रसूक से पुष्‍पा (शर्मा) को स्‍कूल में नौकरी दिलवा दी, जिसके कारण उनका भारती जी के साथ मुंबई में रह सकना संभव हो गया।
इस प्रकार अंततः श्री कन्‍हैयालाल नंदन धर्मयुग के सहायक संपादक बन गए। इसके बाद बड़ी तेजी उनमें स्‍पष्‍टतः परिवर्तन सामने आया। उनका ट्रेडमार्क कत्‍थई सूट चरित्र अभिनेता हंगल का तराशा हुआ सलेटी सूट में बदला, एक कमरे का चाल जैसी खोली यशवंत नगर के रो हाउस में बदली, हिंदी ग्रंथ रत्‍नाकर वाला पाउच पोर्टफोलियो बैग में बदला, आदि, आदि। लेकिन इस सब में एक साल के करीब लगा।
इस बीच मैं नंदन जी के मश्विरे से गोरेगाँव में ही रहने लगा। पहले डबल इंक्रीमेंट दिए गए। फिर मुझे मुख्‍य उपसंपादक भी बना दिया गया। मुझसे जो वरिष्‍ठ थे उनका ट्रांस्‍फर कर दिया गया। आनंदप्रकाश सिंह 'सारिका' में और जो मुख्‍य उपसंपादक थे हरिमोहन शर्मा, उन्‍हें नवभारत टाइम्‍स में। इन्‍हीं दिनों 'सरिका' के संपादक रतनलाल जोशी छोड़कर चले गए और आनंदप्रकाश जैन ने 'पराग' के साथ 'सारिका' का संपादन आरंभ कर दिया। उन्‍होंने मुझे भी 'सारिका' में लेने की पेशकश की, जिसे मैंने विनम्रता से अस्‍वीकार कर दिया। कारण स्‍पष्‍ट था।
अब मुझ पर उत्तरदायित्‍व बढ़ गए। विभागीय कामों के अलावा प्रोडक्‍शन की जिम्‍मेदारी भी आ गई, यानी तमाम साथियों के पृष्‍ठों को चेक करना, उनकी बेहतरी के लिए सुझाव देना। अंकों की प्‍लानिंग में भारती जी की सहायता करना और विशेषांकों की तैयारी में हाथ बँटाना। बाद में जब नंदन जी आ गए, तो यह सब उनके ऊपर आ गया, किंतु प्रोडक्‍शन की जिम्‍मेदारी मुझ पर ही रही। पर हाँ, उन्‍हीं दिनों धर्मयुग ने 'कथा दशक' आरंभ किया। उसकी योजना स्‍वयं भारती जी ने बनाई थी, किंतु यह उनकी सदाशयता ही थी कि उस श्रृंखला का पूरा क्रेडिट उन्‍होंने मुझे दिया। यों कहानीकारों की सूची बनाने में सुझाव देना और उनसे कहानी तथा वक्‍तव्‍य समय से मँगाने को जिम्‍मेदारी सौंप दी गई थी।
'कथा दशक' के तुरंत बाद सत्तर के दशक के बाद उभरे महत्‍वपूर्ण युवा कथाकारों की एक नई श्रृंखला आरंभ होती थी, जिसका पूरा दायित्‍व मुझे दिया गया। इस श्रृंखला में सबसे पहला नाम था ज्ञानरंजन का उनके बाद इस क्रम में कौन थे, अब मुझे याद नहीं हैं किंतु संजीव, शैवाल, अखिलेश जैसे नाम अब भी याद हैं।
नंदन जी के विभाग में आ जाने के बाद सब काम ठीक-ठाक चलने लगा। गोरेगाँव से हम दोनों साथ ही निकलते थे और अगर नंदन जी को कहीं अन्‍यत्र जाना न होता तो लौटते भी साथ ही थे। जब वे धर्मयुग में नहीं आए थे, अँग्रेजी में आए लेखों का अनुवाद उनसे कराया जाता था। मैं लाकर शाम को देता था और वे अगले दिन ही अनुवाद करके पहुँचा दिया करते थे। तब उनके कारण मेरे कई निजी काम भी आसानी से हो जाया करते थे। नया होने के कारण मुझे छुट्टी नहीं मिल सकती थी और तब तक मेरी पत्‍नी इलाहाबाद में ही थी। जब वे आ गईं तब दोनों परिवारों का बड़ा आत्‍मीय रिश्‍ता बन गया था। तब तक नंदन जी अपने पुराने घर में ही रहते थे, जो मेरे घर से थोड़ा दूर था। फिर भी शाम को या छुट्टी के दिन हम मिल लिया करते थे।
भारती जी ने जैसे बंबई के कास्‍मोपोलिटकल स्‍वरूप को पहचान लिया था उन्‍होंने हिंदी लेखकों के अलावा दूसरी भाषाओं के लेखकों से संपर्क स्‍थापित करने आरंभ कर दिए थे। प्रति दूसरे शनिवार को हम 'महानगर में लेखन की समस्‍याएँ' विषय देकर गोष्ठियाँ आयोजित करते थे। इनमें हिंदी के अतिरिक्‍त अन्‍य भाषाओं के लेखक कवि विशेष कर बुलाए जाते थे। इन्‍हीं आयोजनों के कारण राजेंद्रसिंह बेदी, कृश्‍नचंदर, गुलाबदास ब्रोकर, सरदार जाफरी, ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास, पं. नरेंद्र शर्मा, इस्‍मत चुगताई, सलमा सद्दीकी, शांताराम, गंगाधर गाडगिल, नामदेव ढसाल, जैसे अनेक प्रख्‍यात हिंदीतर लेखकों से परिचय हो सका था। सिंधी तथा कुछ दक्षिण के लेखकों को भी जानने का मौका मिला। शनिवार की गोष्ठियों के अलावा भूलाभाई देसाई ऑडीटोरियम में एक पूरे दिन का सेमिनार भी आयोजित किया गया था, जिसकी पूरी रूपरेखा में मैंने सहयोग दिया था और उस सेमिनार का संचालन भी किया था। संचालन का मेरे लिए यह पहला अवसर था। मैं कुछ झिझक रहा था किंतु भारती जी ने कहा कि नहीं, यह तुम्‍हें ही करना होगा।
तब तक शायद नंदन जी की नियुक्ति नहीं हुई थी, या वे किसी वजह से उपलब्‍ध नहीं थे। यह पहला अवसर नहीं था, नंदन जी कई महत्‍वपूर्ण अवसरों पर मौजूद नहीं रहे थे। ऐसा ही एक अवसर था जब प्रख्‍यात कवि रामधारीसिंह दिनकर का निधन हुआ। अंक लगभग तैयार था। भारती जी मॉरीशस गए हुए थे और नंदन जी छुट्टी पर थे। मैंने हरिवंशराय बच्‍चन से उनका साक्षात्‍कार लेने के लिए फोन किया, जिसके उत्तर में उन्‍होंने कहा कि मैं दिनकर जी पर बहुत सहानुभूतिपूर्ण नहीं बोल पाऊँगा। मुझे उनसे हमेशा कई शिकायतें रही हैं। मैं इंटरव्‍यू में अगर उन सब का भी उल्‍लेख करूँ तो क्‍या आप छापना चाहेंगे। बच्‍चन जी जैसे वरिष्‍ठ साहित्‍यकार से मुझे यह आशा न थी। यह तो मुझे मालूम था कि दिनकर जी से उनके रिश्‍ते अच्‍छे नहीं रहे हैं किंतु यह उन शिकायतों को रेखांकित करने का समय न था। फिर पद्मा सचदेव से लिखवाया गया। नरेंद्र शर्मा का साक्षात्‍कार करा लिया तथा अन्‍य सामग्री तुरंत ही दिल्‍ली से मँगवा ली थी।
अज्ञेय जी के निधन के समय भी भारती जी विदेश में थे किंतु नंदन जी तब विभाग में थे। पर अज्ञेय जी पर पूरा अंक निकालने के स्‍थान पर मात्र सूचना दे दी गई। बाद में जब भारती जी लौटे तो वे बहुत नाराज हुए और दुखी भी हुए। बाद में अवसर ढूँढ़ कर एक समूचा अंक अज्ञेय जी को स‍मर्पित किया गया।
सबसे कठिन समय तब था, जब भारती जी बांग्‍लादेश के युद्धक्षेत्र में गए थे। वे मोर्चे पर अटक गए थे। उस समय भी नंदन जी शायद बीमारी के अवकाश पर थे। हमें उस कठिन समय में तीन अंक निकालने पड़े थे। गणेश मंत्री और हरिवंश के सहयोग से वे अंक निकाले और ऐसी सामग्री दी कि उसकी चर्चा होती रही। धर्मयुग का मुकाबला हमेशा अँग्रेजी के इलेस्ट्रेट वीकली से होता था, जिसके संपादक उन दिनों खुशवंत सिंह थे। हमारे उन तीनों अंकों को मैनेजमेंट ने वीकली से बेहतर माना था। बल्कि मैंने भारती जी की डाक में जनरल मैनेजर का वह पत्र भी पढ़ा था, जिसमें उन्‍होंने मेरी तारीफ की थी। पर पता नहीं क्‍यों भारती जी ने वह मुझे नहीं दिखाया। भले ही मेरे इस कार्य की प्रशंसा वाला वह नोट छिपा लिया हो, प्रकट में उन्‍होंने स्‍वयं उन तीनों अंकों की प्रशंसा की।
धर्मयुग ने मुझे कई दुर्लभ मौके भी दिए, जो अविस्‍मरणीय रहेंगे। पूर्व और पश्चिम यूरोप की यात्राएँ, जिनमें दो बार लंदन और पेरिस जाना भी शामिल रहा। सोवियत रूस और अमेरिका के आमंत्रण, जो आम तौर पर कम ही दिए जाते हैं। बल्कि जो रूस हो आता है, उसे अमेरिकन वीसा विरल ही मिलता है। स्‍केंडिवियन देशों की यात्राएँ और नीदरलैंड तथा जर्मनी जाने के अवसर भी मिले। भारत में भी कई महत्‍वपूर्ण एसाइंमेंट के सिलसिले में कई जगहों पर भेजा गया, जिनके अनुभव आज भी स्‍मृति में स्‍थायी हैं।
मुझे यह तो पता नहीं कि वे कौन से कारण थे कि नंदन जी की तरफ से भारती जी का मोहभंग हो गया था, किंतु अवश्‍य यह उनकी कार्यप्रणाली या क्षमता के कारण रहा होगा। इसका सबसे बड़ा स्‍वरूप तब सामने आया, जब नंदन जी ने टाइम्‍स के सेक्रेटरी प्‍यारेलाल शाह से मिल कर भारती जी के विरोध में हस्‍ताक्षर अभियान चलाया। वह दिन बहुत सरगर्मी का था। भारती जी अपने केबिन में बैठे चुरुट-पर-चुरुट पी रहे थे। मैं उनके सामने कुछ देर बैठा रहा था। विभाग में एक उपसंपादक थे स्‍नेह कुमार चौधरी, उन्‍होंने हस्‍ताक्षर करने से साफ इनकार कर दिया। यहाँ तक कि जब कैंटीन के हॉल में शाह साहब ने सबको इकट्टा करके भारती जी पर दोषारोपण की झड़ी लगा दी, तब चौधरी ने साहस दिखा कर उनका विरोध भी किया। भारती जी सब सुनते रहे, पर उत्तर में कुछ बोले नहीं।
इलाहाबाद से आए तो जरूर थे भारती जी किंतु उनका मन वहीं रहता था। निराला जी के निधन पर वे तुरंत गए थे। अपने पूर्व गुरुओं या इलाहाबाद के साथियों के बंबई आगमन पर गो‍ष्ठियाँ और पार्टियाँ की जाती थीं। डॉ. धीरेंद्र वर्मा हों या रामकुमार वर्मा हों, उनका भरपूर स्‍वागत किया जाता था। बाद में यह परिपाटी, न जाने क्‍यों, समाप्‍त हो गई। माखनलाल चतुर्वेदी के प्रति भी भारती जी की अगाध श्रद्धा था। कई बार उनसे मिलने खंडवा भी गए थे।
जब बच्‍चों का कालम मुझे दिया गया था (यह एकदम शुरू की बात है) तब उसका स्‍वरूप मैंने अपनी तरह बनाने की कोशिश की थी। 'सरल भैया की चिट्ठी' भी प्रति सप्‍ताह लिखता था। बाद में एक और कालम शुरू किया था 'आओ बच्‍चो, तुम्‍हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्‍तान की' जिसमें प्राय पूरे पृष्‍ठ का एक रंगीन चित्र दिया जाता था और उसके साथ उस स्‍थान का विवरण देता हुआ छोटा-सा लेख होता था। यह बच्‍चों में बहुत लोकप्रिय हुआ था।
इसी तर्ज पर 'चित्र वीथी' शुरू हुई थी। इसकी योजना 1968 में बनी थी। सोचा यह गया था कि पूरे पृष्‍ठ को समकालीन चित्रकला को समर्पित किया जाय। चित्रकार की कलाकृति का रंगीन चित्र और साथ ही उसका चित्र दिया जाए और संक्षेप में उसका, उसकी कला और उसके भारतीय समकालीन कला में योगदान पर लिखा जाय। आरंभ हुआ 3 नवंबर 1968 के अंक से और सबसे पहले चित्रकार थे मकबूल फिदा हुसेन। प्रति सप्‍ताह एक प्रतिष्ठित चित्रकार को प्रस्‍तुत किया जाने लगा। यह कालम शायद तीन वर्ष तक चला। वरिष्‍ठ चित्रकार ही नहीं, बाद में नए प्रतिभावान चित्रकारों को भी इस क्रम में शामिल किया गया। अगर मैं कहूँ कि 'चित्र वीथी' ने ही मुझे कला समीक्षक बना दिया, तो यह अनुचित न होगा। बाद में धर्मयुग में जितना भी कला-विषयक लेखन होता, वह मुझे ही सौंपा जाता। बाद में सहयोगी समाचार पत्र 'नवभारत टाइम्‍स' के लिए भी प्रति सप्‍ताह कला समीक्षा लिखने का भार मुझे दिया गया और जब तक सुरेंद्रप्रताप सिंह का 'रविवार' छपता रहा, उसके लिए भी कला और रंगमंच के आयोजनों पर 'रंगमोहन' नाम से लिखता रहा। कभी-कभी दूसरे सहयोगियों की गलतियों पर परदा डालने की जरूरत पड़ती थी। छोटी-मोटी ऐसी घटनाएँ तो कई आ पड़ीं किंतु एक का उल्‍लेख किया जा सकता है, जो नए पोप के अभिषेक से जुड़ी है और इसमें साथी उदयन शर्मा से भयंकर भूल हुई थी। मामला मुख्‍य शीर्षक का था। वह उस अंक की कवर स्‍टोरी थी और लेख के प्रथम पृष्‍ठ के तीन रंगों के सिलेंडर बन चुके थे। जब हम काले रंग वाले फार्म को देखने गए, जिसमें आलेख का टेक्‍स्‍ट होता था, तो पाया कि मुख्‍य शीर्षक गलत है, जो एकदम उल्‍टा अर्थ देता है। उदयन परेशान और मैं चिंतित कि यह किस तरह सुधारा जाय। आखिर प्रिटिंग सुप्रिंटेंडेंट के पास गया और उसे गलती की भयंकरता को समझाया। वह स्‍वयं ईसाई था। उसने मदद का भरोसा दिलाया। पर तीन रंगों के नए सिलेंडर तो बिना मैनेजमेंट की अनुमति के बनाए नहीं जा सकते थे। उसने रास्‍ता निकाला कि उन तीनों सिलेंडरों में से शीर्षक घिस कर हटा दिया जाए और नया शीर्षक तुरंत कंपोज कराकर सिर्फ काले रंग में दे दिया जाय। और कोई रास्‍ता न था। चारों सिलेंडर नए बनाने के लिए तो बात ऊपर तक जाती। आखिर यह प्रस्‍ताव मानने के अलावा कोई चारा न था। तुरंत नया शीर्षक तैयार किया गया और उदयन शर्मा की भूल का परिष्‍कार हो गया, जिसका भारती जी तक को पता न लगा।
इससे भी बड़ी घटना एक और हुई। स्‍टाकहोम से सतीकुमार योरोपनामा भेजा करते थे। उस किस्‍त में एक विवरण था, जिसमें कहा गया था कि इन दिनों यूरोप में आस्‍थावान संकट में हैं। साथ में एक छोटा-सा रेखाचित्र था, जिसमें ईश्‍वर पर शैतान को हावी होते दिखाया गया था। चित्र का चुनाव स्‍वयं भारती जी ने किया था। व्‍यवस्‍था यह थी कि मैं मशीन से छपने वाली प्रथम कापी चेक किया करता था। रात के नौ बजे उस बार कापी पास करनी थी, जो मैं कर चुका था और घर जाने ही वाला था कि नाडिग आ गए। वह उन दिनों तक्‍नीशियन थे, जर्मन थे। सुरूर में आए थे। अंक की प्रति पृष्‍ठ-दर-पृष्‍ठ देखी। फोरमैन को रंगीन पृष्‍ठ से संबंधित कुछ सुधार की हिदायत दी और अंक पलटने लगे। उस रेखांकन पर आ कर मजाक में जो बोले वह तो लिखा नहीं जा सकता, किंतु उसका मतलब यही था कि चित्र में जो दिखाया गया है, वह आपत्तिजनक है। मशीन धड़ाधड़ छापे जा रही थी और तब तक कई हजार प्रतियाँ छप चुकी थीं। नाडिग ने उसी मजाकिया ढंग से भारती जी को घर पर फोन किया। वे तुरंत आए और तस्‍वीर को ध्‍यान से देखा। नाडिग की बात समझते देर न लगी। मशीन तुरंत रुकवा दी गई और नाडिग ने सिलेंडर को इस तरह घिसवाया कि रेखांकन का सिर्फ एक भाग दिखाई दे। आगे छपने वाली प्रतियों के लिए तो व्‍यवस्‍था हो गई, पर जो 11 हजार प्रतियाँ छप चुकी हैं, उनका क्‍या किया जाय? यह विकट समस्‍या थी। उन्‍हें नष्‍ट तो किया नहीं जा सकता था। आखिर हल यह निकाला गया कि उस चित्र पर हाथ से काला रंग पोता जाय। पूरी रात मैं यह काम करता रहा। नंदन जी को भी बुला लिया गया और हमने सुबह तक एक-एक प्रति पर उस छपी हुई तस्‍वीर पर काला रंग पोता।
इस तरह की घटनाओं दुर्घटनाओं की फेहरिस्‍त तो बहुत लंबी है और भी कई यादें तो हैं, उनकी विशाल भीड़ में से कुछ प्रसंग निकाल पाना बड़ा दुष्‍कर कार्य है। बच्‍चन जी के शब्‍द उधार लें तो 'क्‍या भूलूँ, क्‍या याद करूँ' वाली स्थिति है। सब स्‍मृतियाँ मीठी ही नहीं हैं, कड़वे और दुखी होने के क्षण भी बहुत बार आए हैं। ऐसे में यह विचार भी आया कि पत्रकारिता में कहाँ फँस गया। कॉलेज की नौकरी बड़े आराम की थी। पर साथ ही यह भी सोचा कि तब वहाँ किसी किस्‍म की चुनौती कहाँ थी? बिना चुनौतियों से जूझते जिंदगी का मजा ही क्‍या है? (हिंदी समय से साभार)
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=5567&pageno=1

Friday, July 24, 2015

विकास पत्रकारिता को अपनी जगह खुद बनानी होगी

विकास पत्रकारिता/ अन्‍नू आनन्‍द

कोई भी रिपोर्ट/स्‍टोरी बेहतर और प्रभावी कैसे हो सकती है? अच्‍छी और प्रभावी स्‍टोरी की परिभाषा क्‍या है? समाचार कक्षों में बेहतर स्‍टोरी कौन सी होती है? अजीब बात यह है कि न्‍यूज रूम में इन मुददों पर कभी बहस नहीं होती? लेकिन फिर भी 'रूचिकर और असरदार यानी प्रभावी' स्‍टोरी की मांग बनी रहती है। किसी भी रिपोर्ट को लक्षित श्रोताओं, दर्शकों या पाठकों तक पहुंचाने के लिए जरूरी है कि रिपोर्ट में तथ्‍यों के साथ उसकी प्रस्‍तुति भी इस प्रकार से हो कि वह मुददे की गंभीरता को समझा जा सके और लोगों का ध्‍यान आकर्षित करने का अर्थ यह नही कि मुददे की संवेदनशीलता से समझौता किया जाए।
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आज के मीडिया परिदृश्‍य में जब प्रिंट, इलै‍क्‍ट्रानिक या वेब और डिजिटल मीडिया में प्रतिस्‍पर्धा अपने चरम पर है। हर स्‍टोरी/रिपोर्ट में प्रकाशित प्रसारित या अपलोड होने की होड रहती है, ऐसी स्थिति में किसी भी रिपोर्टर के लिए पत्रकारिता के मूल्‍यों का पालन करते हुए अपनी रिपोर्ट को रूचिकर बनाना एक चुनौती बन जाती है। खासकर उन संवाददाताओं के लिए जो सामाजिक या विकास जैसे मुददों पर लिखते हों। क्‍योंकि इन विषयों पर कोई भी रिपोर्ट या स्‍टोरी तभी स्‍वीकृत मानी जाती है जब संबंधित संपादक या ब्‍यूरो चीफ तथ्‍यों से सहमत होने के साथ उसके प्रस्‍तुतीकरण से भी प्रभावित हो।
अक्‍सर माना जाता है कि सामाजिक या विकास के मुददों जैसे स्‍वास्‍थ्‍य, गरीबी, बेरोजगारी या मानव अधिकार पर लिखी गई रिपोर्ताज आंकडों, शुष्‍क तथ्‍यों या फिर पृष्‍ठभूमि के ब्‍यौरे में ही उलझ कर रह जाती है और वह पाठकों या दर्शकों को अधिक समय तक बांधे नहीं रख पाती। इसी क्रम में बाल अधिकार या महिला अधिकार के मुददे भी केवल किसी बढ़ी दर्घटना या त्रासदी के समय ही मीडिया में अपनी जगह बना पाते हैं।
बाल लिंग अनुपात या लड़की को गर्भ में ही खत्‍म करने संबंधित रिपोर्ट, विश्‍लेषण या विस्‍तृत फीचर भी सामान्‍य समय में समाचार कक्ष की पसंद नही बन पाते क्‍योंकि उस के लिए जनगणनाओं के आंकडों की समझ बनाना फिर उसे सरल ढंग से विश्‍लेषित करना और उसके साथ उसे रूचिकर बनाना किसी भी रिपोर्टर के लिए आसान नहीं होता।
कोई भी रिपोर्ट/स्‍टोरी बेहतर और प्रभावी कैसे हो सकती है? अच्‍छी और प्रभावी स्‍टोरी की परिभाषा क्‍या है? समाचार कक्षों में बेहतर स्‍टोरी कौन सी होती है? अजीब बात यह है कि न्‍यूज रूम में इन मुददों पर कभी बहस नहीं होती? लेकिन फिर भी 'रूचिकर और असरदार यानी प्रभावी' स्‍टोरी की मांग बनी रहती है। किसी भी रिपोर्ट को लक्षित श्रोताओं, दर्शकों या पाठकों तक पहुंचाने के लिए जरूरी है कि रिपोर्ट में तथ्‍यों के साथ उसकी प्रस्‍तुति भी इस प्रकार से हो कि वह मुददे की गंभीरता को समझा जा सके और लोगों का ध्‍यान आकर्षित करने का अर्थ यह नही कि मुददे की संवेदनशीलता से समझौता किया जाए।
समाचारपत्र में छपने वाली रिपोर्ट के लिए जरूरी है कि उसकी शुरूआत इस प्रकार से हो कि औसत व्‍यस्‍त पाठक विषय की अहमियत को समझे और एक पैरा पढ़ने के बाद पूरी स्‍टोरी पढ़ने के लिए मजबूर हो जाए। याद रहे कि सामाजिक रूप से मुददा या उसके बारे में दी गई जानकारी कितनी भी महत्‍वपूर्ण क्‍यों न हो लेकिन अगर उसकी शुरूआत यानी इंट्रो/लीड (पहला पैरा) की प्रस्‍तुतीकरण ही बेहतर नहीं तो संपादक के लिए वह 'बेहतर' स्‍टोरी नहीं है।
कुल मिलाकर यह निष्‍कर्ष निकलता है कि स्‍टोरी की इंट्रो/लीड यानी शुरूआत आकर्षक, रूचिकर और सूचनाप्रद होना जरूरी है। इंट्रों कैसे आकर्षक हो सकती है इस पर चर्चा से पहले यह चर्चा करना अधिक जरूरी है कि बालिकाओं की कम होती संख्‍या जैसे गंभीर, संवेदनशील मुददे पर रिपोर्ट किस रूप में अधिक प्रभावी और रूचिकर बन सकती है। (इंट्रो की तकनीक के लिए देखें बॉक्‍स)
किसी भी विषय पर रिपोर्ट लिखने के कई तरीके हैं लेकिन सामाजिक विषयों जैसे लडकियों की घटती संख्‍या पर जानकारी प्रदान करने के साथ लोगों को समस्‍या के प्रति जागरूक बनाने और तथ्‍यों की विस्‍तृत जानकारी देने के उददेश्‍यों को पूरा करने के लिए रिपोर्ट को लेखन की मुख्‍यता निम्‍न शैलियों से लिखना अधिक प्रभावी माना जाता है ।
1. समाचार फीचर (न्‍यूज फीचर) 2. फीचर 3. विचारात्‍मक आलेख
समाचार फीचर
महिला या बाल अधिकार जैसे मुददों पर संक्षेप में लिखना हो तो समाचार की बजाय समाचार फीचर शैली में लिखना अधिक प्रभावकारी माना जाता है। समाचार फीचर, फीचर से अलग होता है। इसमें समाचार के सभी तत्‍व विद्यमान रहते हैं यानी पारंपरिक समाचार स्‍टोरी या रिपोर्ट का ही ढांचा रहता है लेकिन शैली भिन्‍न होती है। पहले लीड/इंट्रो, फिर 'बॉडी' यानी दूसरा संक्षिप्‍त विवरण। अंत में अगर जरूरी लगे तो निचोड। लेकिन न्‍यूज फीचर में कहानी कार यानी कहानी सुनाने वाली शैली पर अधिक जोर दिया जाता है ताकि पढने या सुनने वाले की उसमें रूचि बने। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि तथ्‍यों को गढा जाए। किसी भी समाचार की तरह समाचार की विशेषताएं जैसे सामयिक, नजदीकी, आकार, महत्‍ता और प्रभाव जैसे बुनियादी समाचार के सिद्धांत बने रहने चाहिए। जैसे कि रिपोर्ट सामयिक है या नहीं। उसका 'आकार' यानी कितने बडे समुदाय से जुडी खबर है । लेकिन इस की इंट्रो/लीड आकर्षक, जुडाव पैदा करने वाली और गैर पारंपरिक होनी चाहिए। समाचार फीचर किसी भी अखबार में किसी भी पेज की एंकर स्‍टोरी हो सकती है। इसमें समाचार के सभी तत्‍वों के इस्‍तेमाल के साथ फीचर की शैली का इस्‍तेमाल किया जाता है। समाचार के महत्‍वपूर्ण माने जाने वाले पांच डब्‍ल्‍यूएच यानी हिंदी के छह 'क' का भी समावेश रहता है। लेकिन इसमें जरूरी नहीं कि सामान्‍य समाचार की तरह पहले पैरा में ही सभी 'क' यानी क्‍या, कब, कौन, कहां और क्‍यों का जवाब हो। समाचार फीचर में सभी 'क' का जवाब पहले पैरा में हो यह जरूरी नहीं। इसमें केवल कौन या क्‍या का जवाब हो सकता है। लेकिन यह सभी प्रश्‍न धीरे-धीरे खुलते हैं। समाचार फीचर को रूचिकर बनाने के लिए इंट्रो/लीड चित्रांकन शैली में भी हो सकता है। जब पाठक इंट्रो पढते हुए ऐसा महसूस करता है कि द़श्‍य उसकी आखों के समक्ष गुजर रहा है और उसकी आगे पढने की उत्‍सुकता बनी रहती है। इंट्रो के बाद दूसरे पैरा में आप धीरे-धीरे सभी तथ्‍यों के समाचार तत्‍वों का उत्‍तर देते रहते हैं।
समाचार (न्‍यूज फीचर) अक्‍सर संक्षेप में लिखा जाता है। यह 400 से 600 शब्‍दों तक हो समता है। लडकियों का घटता अनुपात या बच्‍चों के मुददों पर न्‍यूज फीचर लिखना उपयुक्‍त हो सकता है। लेकिन न्‍यूज फीचर नयेपन की मांग करता है। इसलिए लिंग चयन जैसे मुददे पर कुछ नई घटना जैसे जनगणना में लिंग अनुपात का खुलासा, लिंग जांच करने वाले क्‍लीनिकों को सील करने की घटना, सुप्रीम कोर्ट के आदेश, कानून में संशोधन इत्‍यादि। ये सभी समाचार होते हुए भी फीचर की शैली में लिखे जाने पर अधिक प्रभावी साबित हो सकते हैं। इसमें विभिन्‍न विशेषज्ञों की राय या उनके कथन को शामिल करने से समस्‍या से संबंधित विभिन्‍न विचारों का प्रस्‍तुतीकरण हो सकता है। 
फीचर
सामाजिक मुददों पर विस्‍तृत रिपोर्ट लिखने के लिए फीचर शैली सबसे महत्‍वपूर्ण और प्रभावी हथियार है। कोई भी फीचर केवल समाचार नहीं बताता, समाचार के सभी मुख्‍य तत्‍वों सहित फीचर का मुख्‍य उददेश्‍य लोगों को रूचिप्रद जानकारी देना उन्‍हें समस्‍या/घटना के साथ जुडाव का अ‍हसास दिलाना, जागरूक बनाना या उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर के रूप में किसी उबाऊ माने जाने वाले विषय को भी दिलचस्‍प बनाने की स्‍वतंत्रता रहती है। सफल कहानियां इस शैली में लिखे जाने पर अधिक प्रभावी साबित होती है। अधिकतर फीचर लोगों की समस्‍याओं, सफलताओं, विफलताओं या अभियान और प्रयासों का ब्‍यौरा देते हैं। इसलिए लोग फीचर शैली में लिखे लेख से अधिक जुडाव महसूस करते हैं।
रिपोर्टर को इस में विभिन्‍न तकनीकों के इस्‍तेमाल से इसे दिलचस्‍प बनाने की छूट रहती है लेकिन समाचार मूल्‍य जैसे सत्‍यता, निष्‍पक्षता और विश्‍वसनीयता जैसे मूल्‍यों का पालन करना भी जरूरी होता है।
लड़कियों उनके गर्भ या पैदा होन पर मारने की प्रवृत्ति के खिलाफ बदलाव लाने के प्रयास, विभिन्‍न क्षेत्रों में लड़कियों के खिलाफ भेदभाव की परम्‍पराओं से संबंधित विस्‍तृत फीचर और खोजपरक फीचर के रूप में क्‍लीनिकों में लिंग जांच की प्रवृत्ति के खुलासे हमेशा बेहतर स्‍टोरी साबित हुए हैं, इसलिए इन मुददों पर लिखने के लिए फीचर की शैली को समझना जरूरी है।
फीचर लेखन में ध्‍यान रखने योग्‍य बातें:
·         पहले मुददे को चुनो/उससे संबंधित सभी तथ्‍य/जानकारियां, आंकड़ें, बातचीत, केस स्‍टडी या संबंधित घटना या क्षेत्र का दौरा करने के बाद आकर्षक लीड/इंट्रो बनाओ। फीचर लेखन में कोई केस स्‍टडी, दृश्‍य या उदाहरण इंट्रो या लीड के रूप में अच्‍छी शुरूआत हो सकते हैं। उदाहरण के लिए राजस्‍थान में लड़की की पैदायश पर शोक मनाने और लड़के के जन्‍म पर थाली बजाकर स्‍वागत करने जैसी परंपराओं पर फीचर की शुरूआत दृश्‍य के वर्णन से अधिक पठनीय बन सकती है। इसी प्रकार लड़कियों के पक्ष में माहौल बनाने के प्रयासों पर फीचर की शुरूआत केस स्‍टडी से करने से लेख की सत्‍यता उभर कर आएगी।
·         अच्‍छी लीड/इंट्रो के बाद दूसरे-तीसरे पैरे में उत्‍सुकता कायम रखते हुए तथ्‍यों को खोलो। फीचर में रूचि और उत्‍सुकता को बनाए रखने के लिए उसे पिरामिड स्‍टाइल में लिखना यानी पहले थोड़ी जानकारी फिर धीरे-धीरे छह 'क' के जवाब देते हुए बाकी ब्‍यौरा देने से रिपोर्ट पाठक को बांधने में सहायक साबित होती है। बीच-बीच में तथ्‍यों से संबंधित विभिन्‍न लोगों के कथनों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इस से फीचर संतुलित करने में मदद मिलती है।
·         फीचर लेखन में एक सूत्र पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। मुददे से जुड़े विभिन्‍न व्‍यक्तियों के हवाले से जानकारी और सूचनाएं मिलनी चाहिए।
·         फीचर सफलता की कहानी का हो या विफलता यानी आलोचनात्‍मक। सजावटी भाषा या कलिष्‍ठ भाषा का इस्‍तेमाल न करें। अक्‍सर देखने में आता है कि फीचर में दृश्‍य और व्‍यक्तित्‍व के बखान में अधिक विशेषणों का सहारा लिया जाता है। विशेषणों और सजावटी शब्‍दों का इस्‍तेमाल भ्रामक हो सकता है। याद रहे पाठक/श्रोता केवल सीधी और सरल भाषा ही समझ पाता है।
·         फीचर में चित्रों, ग्राफिक्‍स और आंकडों का इस्‍तेमाल अधिक हो सकता है। इस प्रकार के चित्र का इस्‍तेमाल करें जो फीचर के निचोड़ को प्रदर्शित करे।
·         फीचर में ग्राफ, चार्ट और आंकडों का इस्‍तेमाल भी होता है। लेकिन इस प्रकार के चार्ट या तालिकाएं दें जिसे सरल और स्‍पष्‍ट रूप से समझा जा सके।
·         लोगो की भावनाओं के प्रति संवदेनशील रहे। उनकी अभिव्‍यक्ति में भाषा का खास ध्‍यान रखें।
·         लिखने के बाद स्‍वयं पाठक बनकर अपने लेख को पढ़ना और देखना कि क्‍या मैं इसी प्रकार की रिपोर्ट पढ़ना चाहता हँ, फीचर में सुधार की संभावना बढाता है। क्‍या यह अपेक्षा के अनुरूप रूचिकर और महत्‍वपूर्ण है क्‍या इसे जगह मिल सकती है? याद रहे पाठक लेख को भी देखना और महसूस करना चाहता है न कि महज थोपा जाना यानी जुड़ाव की कड़ी होनी चाहिए।
·         अब एक बार के लिए पाठक/उपभोक्‍ता से वास्‍तुकार बने और लेख के ढांचे की जांच करें। क्‍या उनमें सभी पहलू या कोण शामिल हैं। क्‍या कोई बिंदु छूटा तो नहीं या किन्‍हीं बिंदुओं का दोहराव या किन्‍ही पर अधिक फोकस तो नहीं किया गया। आपकी रिपोर्ट की लीड या इंट्रो पूरे फीचर की महत्‍ता के अनुरूप है? क्‍या लीड फीचर के बाकी विवरण से मेल खाती है? पहले पैरे में प्राथमिक फिर द्वितीय सूचनाओं और उसके बाद पृष्‍ठभूमि और फिर अतिरिक्‍त विवरण के साथ क्‍या फीचर संतुलित है।
·         क्‍या आंकड़ें या ग्राफिक्‍स ब्‍यौरे का समर्थन कर रहे हैं। एक बार वास्‍तुकार के रूप में रिपोर्ट का विश्‍लेषण हो जाए तो फिर मेकेनिक की भूमिका शुरू होती है जो अनावश्‍यक विवरण को निकालने का काम करती है।

अनावश्‍यक और कम महत्‍व की जानकारी को निकाल दें। अपने लिखे को संपादित करने यानी कांटने-छांटने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। समूचे सुधार के बाद फीचर रिपोर्ट फाइल करें।
फीचर कई प्रकार के हो सकते हैं व्‍यक्तित्‍व (प्रोफाइल) मानव रूचिकर, खोजपरक, शोधपरक (इन डेप्‍थ) और पृष्‍ठभूमि आधारित (बैक ग्राउंडर)
विचारात्‍मक आलेख

इस प्रकार का आलेख किसी एक विषय पर विस्‍तृत बहस को आमंत्रण देता है। किसी विशेष मुददों या विषयों पर लिखने वाले पत्रकारों के अलावा स्‍वतंत्र पत्रकार, विषय संबंधित विशेषज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता अनुनय और विस्‍तृत विश्‍लेषण के साथ अपने विचार रख सकते हैं। इनमें मुददे से जुडे विभिन्‍न सर्वे, आंकड़ें, कानून, जनहित याचिका या फिर दिशा निर्देशों के आधार पर अपने विचारों के विश्‍लेषण का प्रस्‍तुतीकरण किया जाता है। 'क्‍यों कम हो रही हैं लड़कियों, 'कानून में अमलीकरण में खामियां', 'जनगणना में कम हुआ लड़कियों का अनुपात' जैसे विस्‍तृत लेख बाल लिंग अनुपात के मुददे के विभिन्‍न पहलुओं पर जानकारी देते हैं। ध्‍यान रहें केवल शुष्‍क सूचनांए, आंकड़ें, नीतियों, लक्ष्‍यों या बजट ही इसकी वस्‍तु सामग्री नहीं होनी चाहिए। उसमें तथ्‍य और नई जानकारियां तथा सूचनांए होना भी अनिवार्य है।

सरल भाषा और छोटे वाक्‍यों के इस्‍तेमाल से कठिन विचार को भी लोगों तक पहुंचाया जा सकता है। लेखन में बस बात का ध्‍यान रखना जरूरी है कि कहीं प्रशासनिक या पुलिस अधिकारियों, वकीलों की शब्‍दावली तो आपकी रिपोर्ट का हिस्‍सा तो नहीं बन रही। ऐसे सभी शब्‍दों के अर्थों को सरल शब्‍दों में लिखना अधिक पठनीय होता है। छोटे वाक्‍य और ऐसे शब्‍द जिसका आम ज्ञान हो।

आकर्षक इंट्रो या लीड

इंट्रो इस प्रकार की होनी चाहिए जो पाठकों/श्रोताओं/दर्शकों को रिपोर्ट पढ़ने के लिए मजबूर कर सके। यह कई बार गंभीर तथ्‍यों के साथ आरम्‍भ हो सकती है। किसी घटना के दृश्‍य का विवरण पाठक को रोमांचित कर सकता है। सामाजिक और गंभीर मसलों पर उत्‍तेजित प्रश्‍नों से शुरूआत भी प्रभावी लीड मानी जाती है। इसके अलावा जिज्ञासा और कुतूहल पैदा करने वाले कथन भी पाठक को बाधने का काम करते हैं। ऐसी लीड के बाद के पैरा में संवाददाता विश्‍लेषण, टिप्‍पणी और अन्‍य विवरण के माध्‍यम से लेख का बहाव बनाए रखता है।

किसी प्रभावी या पी‍डित व्‍यक्ति की केस स्‍टडी या उसके ब्‍यौरे के संवेदनशील प्रसतुति भी विश्‍वसनीय लीड मानी जाती है। यह देखने सुनाने वाले के साथ जुड़ाव पैदा करती है।
इलैक्‍ट्रानिक मीडिया के साथ स्‍पर्धा में आज कल आखों देखा हाल की शैली में लिखी गई लीड भी लोकप्रिय है। लेकिन आकर्षक बनाने की उत्‍सुकता में अतिरेकता और झूठ का सहारा लेना उचित नहीं।

अन्‍नू आनंद विकास और सामाजिक मुददों के पत्रकार हैं। उनहोने प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया बेंगलूर से कैरियर की शुरूआत की । विभिन्‍न समाचारपत्रों में अलग-अलग पदों पर काम करने के बाद एक दशक त‍क प्रेस इंस्‍टीटयूट ऑफ इंडिया से विकास के मुददों पर प्रकाशित पत्र 'ग्रासरूट' और मीडिया मुददों की पत्रिका 'विदुर' में बतौर संपादक। मौजूदा में पत्रकारिता प्रशिक्षण और मीडिया सलाहकार के साथ लेखन कार्य किया।