School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला

Friday, October 14, 2016

अमर उजाला के कंसल्टिंग एडिटर यशंवत व्यास से खास बातचीत

अभिषेक मेहरोत्रा
संपादकीय प्रभारी, समाचार4मीडिया डॉट कॉम ।।
हिंदी पत्रकारिता की दुनिया का मशहूर अखबार ‘अमर उजाला’ ने पिछले पखवाड़े में अपने प्रारूप यानी लेआउट में एक बड़ा परिवर्तन किया है। नए प्रारूप को लेकर पाठकों में अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं हैं। अखबार को नया स्वरूप देने का श्रेय जाता है संस्थान के सलाहकार संपादक यशवंत व्यास को
समाचार4मीडिया से बात करते हुए यशवंत व्यास कहते हैं कि अखबार कंटेंट और लेआउट के तालमेल का ऐसा स्वरूप होता है जो पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। जिस तरह हम बॉडी, मांइड, सोल(Body, Mind. Soul) के तारतम्य बात करते हैं उसी तरह अखबार के लिए कंटेंट, लेआउट और फॉन्ट का तालमेल जरूरी होता है। वे कहते हैं कि लेआउट को सिर्फ अखबार की सौंदर्यता से नहीं जोड़ना चाहिए। अखबार का लेआउट इस तरह का होना चाहिए कि वो पाठक की प्यास को पूरा कर सके।
यशवंत कहते हैं कि अपने शुरुआती करियर के जमानें से ही वह कंटेंट के साथ-साथ लेआउट और डिजाइनिंग को भी बारिकी से समझते रहे हैं। वे कहते हैं कि अखबार के लेआउट में बदलाव का मतलब ये नहीं होता है कि फलां लेआउट खराब था और फलां बहुत अच्छा। अखबार के लेआउट में बदलाव समकालीन(Comtemporary) होता है। एथिक्स, वैल्यूज के साथ जरूरतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। किसी भी अखबार का फॉन्ट एक डिजायन नहीं एक एक्सप्रेशन है। एक अच्छा फॉन्ट आखों को अपनी ओर खींचता है। कॉलम साइज की डिजाइनिंग विजुअलाइजेशन का एक हिस्सा है। अमर उजाला की नई स्टाइल की और फॉन्ट पर बात करते हुए बताते हैं कि कई दिनों तक इस पर काम किया और इसको डेवलेप कराया तब जाकर इसका वर्तमान स्वरूप मिल सका है।
यशवंत पुरजोर तरीके से कहते हैं कि अभी तक के अनुभव से पाया है कि डिजायन को एडिटोरियल का ही हिस्सा मानना चाहिए। एक संपादक से उम्मीद की जाती है कि वे डिजायन सेंस को समझें उसमें दिलचस्पी लें। आजकल डिजायन के कई सॉफ्टवेयर हैं जिनकी जानकारी भी समय-समय पर काफी मददगार साबित होती है।
वे कहते हैं कि इस नए लेआउट की खासियत है कि इसमें गटर स्पेस में कोई बदलाव नहीं किया गया है फिर भी अखबार का कंटेंट खुला-खुला सा दिखता है। एक बड़ी बात ये है कि आजकल जब बड़े अखबारों का प्रारूप अंतरराष्ट्रीय डिजायनर्स तय करते हैं तो ऐसे में हमारे नए प्रारूप को हमारे ही यंग डिजायनर्स ने भरपूर मेहनत और क्रिएटिबिलिटी के साथ तैयार किया है कि वे पाठकों के साथ अपनी फ्रिक्वेंसी मैच कर सकें।
अखबार के प्रारूप में परिवर्तन के प्रमोशन के बारे में यशवंत बताते हैं कि हमनें कोई बड़ा प्रमोशनल प्लान तय नहीं किया है। हम सिर्फ वैचारिक तौर पर अपने पाठकों के साथ संवाद कर रहे हैं। मसलन हाल ही में हमारे दो कैंपेन ‘खटिया या ख्वाब’ और ‘गोली या पत्थर’ काफी लोकप्रिय हुए। पाठकों ने हमें इस पर जमकर प्रतिक्रियाएं दी और हमने पूरा पेज पाठकों के नाम कर दिया।
हम अपने रविवार परिशिष्ट पर भी खास काम कर रहे हैं। हमारे कोशिश है कि इसके तहत हम पाठकों को संडे के दिन वो सामग्री दें, जो उनके काम की हो। मसलन विभिन्न तरह के व्यंजनों की जानकारी इत्यादि।
एक सवाल के जवाब में यशवंत बताते हैं कि उपलब्ध संशाधनों और मौजूदा कर्मियों से बेहतर आउटपुट निकालना एक लीडर की क्वॉलिटी है। वे अपने स्टाइल में कहते हैं कि ‘सही जूते में सही पैर जाएगा’ तो संतुलन अपने आप में बना रहेगा।

अखबारों में बढ़ रहे सरकारी परिशिष्टों और खबरों के बीच के भेद के कम होने के सवाल पर वे तपाक से बोलते हैं कि अब अखबारों ने इतने सरकारी परिशिष्ट प्रकाशित कर दिए हैं कि पाठक सबकुछ स्वयं समझ जाता है। वे कहते हैं कि अखबार में खबरों और विज्ञापनों का एक तय अनुपात होना चाहिए। पैन्ट की कीमत पर जेब दी ही नहीं जा सकती।
किसी भी अखबार का संपादकीय पेज बहुत ही अहम पेज है और पाठकों की एक निश्चित संख्या के साथ पेज की ट्यूनिंग होती है। यशवंत कहते हैं कि संपादकिय पेज को हल्का नहीं मानना चाहिए, लेकिन इस पर बौद्धिकता का भार भी नहीं उड़ेल देना चाहिए। वे बताते हैं कि उनकी संपादकीय पेज की टीम संपादकीय के शीर्षक पर काफी चर्चा करती है। हाल ही में इस पेज के प्रारूप में भी बदलाव किया गया है। सरकार और जनता के बीच नीतियों पर संवाद के महत्व को समझते हुए अमर उजाला अब हर हफ्ते देश के प्रमुख राज्य के मुख्यमंत्री का एक लेख प्रकाशित करता है, जिसमें मुख्यमंत्री अपने राज्य की नीतियों और जनता के साथ अपने सरोकारों पर बात करते हैं।
अमर उजाला के संपादकीय पेज पर कई विदेशी और अंग्रेजी के लेखकों का बोलबाला रहता है, इस आरोप पर यशवंत कहते हैं कि ऐसा नहीं है। हिंदी के कई बड़े लेखक भी हमारे यहां प्रकाशित होते हैं। हां, ये जरूर है कि हमारी कोशिश रहती है कि संबंधित विषय पर उस विषय को ढंग से समझने वाले किसी विशेषज्ञ से ही लेख लिखवाया जाए। ऐसे में हम विदेशी और अंग्रेजी लेखकों के प्रति कोई दुराग्रह नहीं रखते हैं। हमारा पाठक किसी अमुक विषय पर कई आयाम के साथ विचार जानना चाहता है बजाय परम्परागत लेख के। उन्होंने कहा कि भाषा नहीं विचार का महत्व है। बड़ी संख्या में आज भी युवा वर्ग अंग्रेजी की हिंदी में डब फिल्में देखता है इसलिए लेख के विचारों में ताजगी होना जरूरी है बजाय हिंदी-अंग्रेंजी के द्वंद के। पाठकों को विचारों का विस्तार चाहिए, बोझ नहीं।
साहित्य और पत्रकारिता में कैसे सामंजस्य होता है, इस पर यशवंत जवाब देते हैं कि साहित्य अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। साथ ही यशवंत ये भी स्पष्ट करते हैं कि वे मूलतौर पर एक पत्रकार हैं और बाद में एक साहित्यकार। बॉटनी की पढ़ाई करने वाले यशवंत बताते हैं कि साहित्य अभिव्यक्ति का ही एक मूड है।पत्रकार होने के साथ अगर आप साहित्यकार भी है, तो आप समाज की  संवेदना को भलीभांति समझ पाते है। एक अच्छा पत्रकार जरूरी नहीं कि एक अच्छा साहित्यकार हो और एक अच्छा साहित्यकार जरूरी नहीं कि एक अच्छा पत्रकार हो।
व्यंग्य पर यशवंत कहते हैं कि ये बहुत जरूरी विधा है जो बहुत कुछ ऐसा कह देती है जो आप सीधे शब्दों में नहीं कह सकते हैं। वे हरिशंकर परिसाई के व्यंग्यों की तरीफ करते हुए कहते हैं कि केंचुए ने पीढ़ियों के अनुभव से ये जान लिया था कि रीढ़ की हड्डी नहीं होनी चाहिए। बताइए, इससे बेहतर व्यंग्य क्या हो सकता है।
यशवंत कहते हैं कि हमारे जमाने के हीरो तो विनोद मेहता और प्रीतिश नंदी हुआ करते थे, मैंने उनको बहुत ऑब्जर्व किया है। किस तरह इन महान संपादकों ने कई स्वरूपों के अखबार और मैगजीन के साथ नए और लोकप्रिय प्रयोग किए।  अखबार में फोटो से किस तरह से पेश करना है कि इसके लिए संपादकीय दृष्टि होना बहुत जरूरी है।
यशवंत व्यास दिल्ली के पत्रकार नहीं हैं, लुटियन दिल्ली से उनका नाता नहीं है। इस सवाल पर वे मुस्कुराते हुए कहते हैं कि दिल्ली आता-जाता रहता हूं, वैसे भी दिल्ली किसकी हुई है? मनमोहन सिंह भी असम से थे।
Courtesy: समाचार4मीडिया डॉट कॉम 

Tuesday, October 4, 2016

विजुअल मीडिया: गुणवत्‍ता से समझौता कभी न करें

टेलीविज़न पत्रकारिता/ TV Journalism
 मनोरंजन भारती
 मैं उन गिने चुने लोगों में हूँ, जिन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत टीवी से की। हां, आईआईएमसी में पढ़ने के दौरान कई अखबारों के लिए फ्री लांसिंग जरूर की। लेकिन संस्‍थान से निकलते ही विनोद दुआ के 'परख' कार्यक्रम में नौकरी मिल गई। यह कार्यक्रम दूरदर्शन पर हफ्ते में एक बार प्रसारित होता था। कहानी से पहले तीन दिन रिसर्च करना पड़ता था। बस या ऑटो से लेकर लाइब्रेरी की खाक छाननी पड़ती थी. वो गूगल का जमाना तो था नहीं। फिर इंटरव्‍यू वगैरह करने के बाद पहले कहानी की डिजिटल एडिटिंग की जाती थी और तब स्क्रिप्‍ट लिखी जाती थी और अंत में आवाज दी जाती थी। अब उल्‍टा होता है। पहले कहानी लिखी जाती है और फिर एडिटिंग। 
उस सप्‍ताहिक कार्यक्रम में हर हफ्ते स्टोरी करने का मौका भी नहीं मिलता था। परख में मेरी दूसरी स्‍टोरी ही टाडा पर थी। एक हफ्ते रिसर्च करने के बाद मैंने ऐसे लोगों को ढूंढा जिन पर टाडा लगा था मगर बाद में अदालत ने उन्‍हें छोड़ दिया था। करीब पांच मिनट की स्‍टोरी बनाई मगर टेलीकॉस्‍ट के दिन मालूम हुआ कि दूरदर्शन को मेरी कहानी पसंद नहीं आई और उन्‍होने उसे प्रोग्राम में दिखाने से मना कर दिया। मुझे लगा कि मेरी नौकरी गई, मगर विनोद दुआ जी ने मुझे बुला कर उल्‍टे शाबाशी दी और कहा ऐसे मौके और भी आएंगे क्‍योंकि हमारा शो डीडी पर आता है।
यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि अब के और तब के हालात कितने बदल गए हैं उस वक्‍त मोबाइल नहीं था, गुगल नहीं था, 24 घंटे का चैनल नहीं था। पहले हर हफ्ते कहानी नहीं मिलती थी और अगर मिल गई तो डीडी को पसंद नहीं आती थी यदि उन्‍हें पसंद आ भी गई तो केवल एक बार स्‍टरेी चलती थी। यदि तय समय पर आपने प्रोग्राम नहीं देखा तो एक काम से। आज के 24 घंटे के चैनल में यदि किसी रिपोर्टर को कहानी 24 घंटें में 12 बार नहीं चली तो शिकायत करने आ जाता है कि सर स्‍टोरी चल नहीं पाई मैं केवल मुस्‍कुराता रहता हूं।
अब इंटरनेट, स्‍मार्ट फोन, हर जगह से लाइव करने की सुविधा ने पूरे टीवी न्‍यूज को बदल दिया है। अब सब कुछ फास्‍ट फूड की तरह, स्‍टोरी 15 मिनट में तैयार। क्‍वालिटी बाद में देखी जायेगी। रिपोर्टर को सीखने का मौका ही नहीं मिलता उसके पास कुछ भी सोचने का मौचा नहीं होता। रोज एक कहानी करने की ललक ने उसके अंदर रचनात्‍मकता को खत्‍म कर दिया है। टीवी का रिर्पोटर हमेशा फील्‍ड में रहना चाहता है कहानी भेज दी, डेस्‍क ने कहानी लिख दी प्रोडक्‍शन ने उसे एडिट करा दिया और कहानी ऑन एयर चली जाती है और रिपोर्टर प्रेस क्‍लब चला जाता है। अगली सुबह फिर वही कहानी दोहराई जाती है। किसी को शाट्स की चिंता नहीं होती क्‍योंकि उन्‍हें मालूम है कि फाइल फुटेज पर भी कहानी बन जाएगी। और एक बात कहना चाहता हूं कि हर गली नुक्‍कड़ पर जो टीवी के रिर्पोटर बनाने की दुकानें खुल गई हैं उससे टीवी न्‍यूज को खासा नुकसान हुआ है। अब तो हालात ये हैं कि सभी बड़े चैनलों ने अपने इंस्‍टीट्यूट खोल लिए हैं और भर्तियां वहीं से की जाती हैं। चैनलों पर भी दबाव होता है प्‍लेसमेंट करने का।
रिर्पोटर के लिए दो सोर्स से अपनी खबर पक्‍का करने का सिस्‍टम भी खत्‍म होता जा रहा है। सारा कुछ एजेंसियों के ऊपर छोड़ दिया जाता है। हम लोगों के फोन में अभी भी आपको नेताओं के ड्राइवरों, उनके पीए फोन उठाने वाले लोगों के नंबर मिल जाएंगें।
खैर जितना भी और जो कुछ भी बदला है। टीवी न्‍यूज की दुनिया में खो कर रह गया है। अब हिलते डुलते कैमरे के लिए गए शॉट को खराब नहीं बताया जाता बल्कि उसमें एक्‍शन है ऐसा माना जाता है। जैन हवाला डायरी से पहले कैमरामेन कैमरे को कंधे पर नहीं रखते थे। उस जैन हवाला डायरी के बाद सभी तरह की कोर्ट रिर्पोटिंग का दौर आया और उसके बाद अदालतों में भाग दौड़ का जो सि‍लसिला चला कि कैमरामेन ने कंधे से कैमरा हटाया ही नहीं। चैनलों की बढ़ती भीड़ ने हमें 7 रेसकोर्स से निकाल कर रोड़ पर खड़ा कर दिया। एक वक्‍त था जब सुप्रीम कोर्ट के बरामदे तक कैमरा ले जाते थे फिर सीढि़यों के नीचे फिर एक लॉन से दूसरे लॉन और अब एकदम बाहर कोने में। पहले कहानी कही जाती थी अब केवल डिबेट होता है।
इस तेजी से बदलती दुनियां में टीवी को भी बदलना था हमें न्‍यूज चैनलों की बढ़ती भीड़ के लिए भी सोचना चाहिए और गुणवत्‍ता का भी ख्‍याल रखना होगा। वरना ये इंडस्‍ट्री भी धीरे-धीरे पतन का शिकार होने लगेगी।
एक भयावह सच यह है कि कई चैनल बंद हो गए हैं और कई बंद होने के कगार पर हैं और इस क्षेत्र में नौकरी एकदम नहीं है। मैं किसी चैनल के किसी के पक्ष लेने पर जरा भी डिबेट नहीं कर रहा। मैं केवल इस बात से आगाह कर रहा हूं कि जो लोग इन चैनलों में काम कर रहे हैं उनकी नौकरियां बचाइए क्‍योंकि एक बड़ा संकट टीवी उद्योग पर दस्‍तक दे रहा है।
http://www.newswriters.in/2016/09/07/visual-media-do-not-compromise-with-quality/
साभार: प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के प्रकाशन ” The Scribes World  सच पत्रकारिता का“. लेखक  NDTV के Political Editor हैं.