School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला

Wednesday, February 25, 2015

कुछ जरूरी लिंक

प्यारे साथियो, 
हम यहाँ कुछ महत्वपूर्ण लिंक दे रहे हैं. ये कन्सोर्शियम फॉर एज्यूकेशनल कम्युनिकेशन की साईट पर पत्रकारिता और जनसंचार से सम्बंधित वीडियो लेक्चर्स के लिंक हैं. बहुत छोटे-छोटे क्लिप्स के जरिये जन संचार की बड़ी-बड़ी गुत्थियों को सुलझाया गया है. यदि आप इन्हें ध्यान से देखने-सुनने का कष्ट करेंगे तो मुझे यकीन है कि आप पत्रकारिता की बहुत-सी बातें जान जायेंगे. आशा है कि ये आपको पसंद आयेंगे. कोई समस्या हो तो हमें जरूर मेल कीजिये. (सीईसी के सौजन्य से)
आपका,
प्रो. गोविन्द सिंह
govindsingh@uou.ac.in





Tuesday, February 24, 2015

साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों की चिंता में डूबे दो दिन

संगोष्ठी/ राजेंद्र सिंह क्वीरा
साहित्य अकादमी व उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय संगोष्ठी में पहुंचे देश भर के साहित्यकार व पत्रकार
देश के वरिष्ठ साहित्यकारों व पत्रकारों ने पत्रकारिता से साहित्य को हाशिये पर धकेल दिए जाने को अफसोसनाक बताया। लेकिन उन्होने सोशल मीडिया को आशा की नई किरण बताया, साथ ही शंका भी जाहिर की कि इसमें भी साहित्य के बहस का स्तर गिर रहा है। सभी ने साहित्य का स्तर ऊंचा उठाने के लिए एकजुटता की बात की। हल्द्वानी में साहित्य अकादेमी और उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में देशभर से आये विद्वतजनों ने अपनी-अपनी राय जाहिर की। साहित्यकारों का कहना था कि विश्व स्तर पर मीडिया पर विज्ञापनों का दबाव बढ़ने के कारण साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर चली गयी है, जो कि देश और समाज के लिए बेहद निराशाजनक है। संगोष्ठी में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र का कहना था कि सारी दुनिया में साहित्य को जनता तक सरल रूप में पहुंचाने का काम पत्रकारिता ही करती रही है। साहित्य के दर्जनों नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं। हिन्दी में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली गद्य का विकास हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से ही किया। साथ ही दुनियाभर के मुद्दों से पाठकों को परिचित करवाया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तिलक और गांधी जी ने प्रतिरोध की पत्रकारिता की, जिसकी वजह से उन्हें जेल जाना पड़ा। उस समय पत्रकारिता ने ही सबसे पहले स्वदेशी और बंगाल विभाजन जैसे ज्वलंत मुद्दों को उठाया था। साहित्यिक पत्रकारिता ही उस समय मुख्य धारा की पत्रकारिता थी। लेकिन आज हालात एकदम बदल गये हैं। उन्होंने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता इतनी मजबूत बना दी थी कि लोग अखबार में लिखी गई खबर को झूठ मानने को तैयार ही नहीं होते थे। बाद के दौर में विज्ञापनों के दबाव के चलते साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर जाने लगी. दुर्भाग्य से किसी ने इसका विरोध नहीं किया। यही वजह है कि एक-एक कर हिंदी की नामी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो गईं।
उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति सुभाष धुलिया का कहना था कि भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद के आने के बाद से मीडिया में अपराध, सेक्स और दुर्घटनाओं की खबरों को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा है। इसका कारण यह है कि इसे साधारण पाठक भी सरलता से समझ लेता है, जबकि साहित्यिक पत्रकारिता को समझने में उसे कुछ मुश्किल आती है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि संपादकीय और साहित्यिक पृष्ठ पढ़नेवाले 10-12 प्रतिशत पाठक ही समाज का नेतृत्व करते हैं। इसलिए संचार माध्यमों में साहित्यिक और वैचारिक सामग्री को रोका नहीं जा सकता है. मुक्त अर्थव्यवस्था आने के बाद से मीडिया में संपादक की जगह ब्रांड मैनेजर लेने लगे। ये मैनेजर अखबार को ऐसा उत्पाद बनाने लगे जिसे विशाल जनसमूह खरीदें। इस वजह से साहित्यिक और सांस्कृतिक विमर्श हाशिए पर चले गए। पत्रकारिता सेवा से व्यापार में बदल गई। इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना बन गया। इसी वजह से समाचार उत्पाद बन कर रह गया। पत्रकारिता का उद्देश्य विवेकशील नागरिक बनाना न होकर ज्यादा क्रय शक्ति वाला उपभोक्ता बनाना हो गया। उन्होंने कहा कि न्यू मीडिया अब असंतोष और असहमति को अभिव्यक्ति देने का काम कर रहा है, लेकिन इंटरनेट जैसे माध्यम की पहुंच अभी जनसंचार के माध्यमों की तरह नहीं है।


उत्तराखंड मुक्त विवि में पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्या शाखा के निदेशक प्रो. गोविंद सिंह ने साहित्य पत्रकारिता के हो रहे ह्रास पर अपने विचार रखे। उनका कहना था कि बाजारवाद के हावी हाने के कारण ही आज साहित्यिक पत्रकारिता इस स्तर पर पहुंची है। उन्होंने यह भी कहा कि संगोष्ठी में कई ऐसे मुद्दे उठे जिन पर आगे शोध या संगोष्ठियां हो सकती हैं। जानेमाने पत्रकार एवं कवि मंगलेश डबराल का कहना था कि पत्रकारिता इतिहास का पहला ड्राफ्ट होती है और साहित्यिक रचना अंतिम ड्राफ्ट होती है। उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में हत्या, बलात्कार, आपदा और झगड़े की खबरें भी मनोरंजन बन गई हैं। हिंदी पत्रकारिता हिंदी साहित्य से ही निकली है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर रघुवीर सहाय तक साहित्यकारों ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया। हिन्दी के जाने-माने कवि लीलाधर जगूड़ी ने कहा कि केवल बाज़ार को कोसने से कुछ नहीं होगा। बाज़ार तो हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति का अंग रहा है. यह भी सच है कि वैश्विक बाजार से हमारे स्थानीय बाज़ार को पंख लगे हैं। इसलिए बाजार का नहीं, अनैतिक बाजार का विरोध होना चाहिए। उन्होंने कहा कि महान साहित्यकारों ने भी पत्रकारिता के जरिये ही साहित्य में कदम रखे. उन्होंने मार्खेज और अर्नेस्ट हेमिंग्वे का उदाहरण देते हुए बताया कि किस तरह से पत्रकारिता में उन्होंने साहित्य का पहला पाठ सीखा. वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार राजकिशोर का कहना था कि साहित्य, पत्रकारिता और मीडिया तीन पीढ़ियां हैं। उन्होंने कहा कि यह भ्रम है कि साहित्य मीडिया को नहीं समझ सकता है। साहित्य में मीडिया पर कई किताबें लिखी गई हैं। जब से खबर देना पेशा बना है, तब से ही खबर देनेवाला अपने हितों को साधने के लिए इसे इस्तेमाल करने लगा है। साहित्य कपड़ा, खिलौना या फिल्म उद्योग की तरह नहीं है। यह समस्या को समझने में मदद करता है, समाज की समझ बनाता है। साहित्य में मनोरंजन कम नहीं है। साहित्य अतुल्य है। पत्रकारिता में यदि साहित्य नहीं होगा तो सिर्फ मनोरंजन ही रह जाएगा।
साहित्यकार डॉ. प्रयाग जोशी ने कहा कि अखबार के बाद रेडियो ही आकर्षित करता है. क्योंकि वह हमारे कामकाज में व्यवधान नहीं डालता. आज भी उसमें बहुत अच्छे और शिक्षाप्रद कार्यक्रम आते हैं। लेकिन टेलीविजन और अन्य मीडिया इसे दबाए हुए हैं। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया का अपना अलग महत्व है। सबसे पहले इसी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 10 लाख के सूट का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि एक जमाना था जब साहित्य से पहला परिचय करवाने का काम पत्रकारिता ही करती थी, अब यह नहीं हो रहा. डॉ चन्द्र त्रिखा ने आतंकवाद के दौर में पंजाब की पत्रकारिता का उल्लेख करते हुए पत्रकारों की शहादत को याद किया। उन्होंने कहा कि इस दौर में बड़े अखबार समूहों ने घुटने टेक दिए थे। लेकिन छोटे अखबार और साहित्यिक पत्रिकाएं झुकी नहीं। उन्होंने कहा कि बाजार की चुनौती को हौवा नहीं बनाना चाहिए। प्रसार संख्या बढ़ाना इसका एक तोड़ हो सकता है। लाइव इंडिया वेबसाईट की सम्पादक गीताश्री ने मीडिया पर दोष मढने वाले साहित्यकारों को आडे हाथों लिया। उन्होंने मीडिया और साहित्य को दो अलग धाराएं बताया। उनका कहना था कि साहित्यकार साहित्यिक शुचितावाद को पकड़े हुए हैं। जबकि ज़माना आगे बढ़ गया है. पुराने मूल्यों के नष्ट होने पर ही नए मूल्य आएंगे।
वरिष्ठ पत्रकार एवं कवि पंकज सिंह ने कहा कि साहित्य लिखने वालों को पत्रकार नहीं माना जाता। साहित्यिक पत्रकारिता और राजनीतिक पत्रकारिता दोनों अलग-अलग चीजें हैं. अखबार में सभी वर्गों को जगह मिलनी चाहिए। अखबार सिर्फ साहित्य से नहीं भरा जा सकता है। पत्रकार एवं साहित्यकार रामकुमार कृषक ने समसामयिक साहित्यिक पत्रिकाओं की सीमाओं और संभावनाओं पर चर्चा की और कहा कि इन पत्रिकाओं को प्रकाशित करना साहस और संकल्प का छोटी पूंजी का बड़ा उद्यम है। जबकि वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय, साहित्य अकादमी के उप सचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी व पत्रकार एवं साहित्यकार श्याम कश्यप का कहना था कि पत्रिकाओं को प्रासंगिक होना चाहिए। जिस पत्रकारिता का अपना व्यक्तित्व होता है, वे ही प्रासंगिक बन सकती हैं। उन्होंने समाज में पढने की रूचि घटते जाने पर खेद प्रकट किया। हल्द्वानी में हुई यह संगोष्ठी मुक्त मंडी के इस दौर में भुला दिए गए साहित्य को नया जीवन देने में इसलिए भी कामयाब रही कि दोनों दिन बड़ी संख्या में कुमाऊँ भर से लोग श्रोता बन बैठे रहे.                                                

Sunday, February 22, 2015

पत्रकार अगर पार्टी के लिए काम करने लग जाए तो...

आचार संहिता/ वेद विलास उनियाल 

राजनीति और पत्रकारिता का सम्बन्ध चोली-दामन का है. एक जमाना था जब राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखने वाले लोग ही पत्रकारिता में आते थे. चूंकि पत्रकारिता के पास ताकत है, इसलिए राजनीतिक दल भी चाहते हैं कि हर अखबार में, हर चैनल में उनकी विचारधारा वाले पत्रकार हों. किसी भी पत्रकार के लिए किसी ख़ास विचारधारा का अनुयायी होना कोई गलत बात नहीं होती. हाँ, गलत बात तब मानी जाती है, जब वह पत्रकार खबर लिखते हुए अपनी विचारधारा का प्रयोग करता है. जब भी चुनाव आता है, ऐसा देखने को मिलता है. पिछले दिनों दिल्ली चुनाव में भी यह खुल कर सामने आया. तभी अमर उजाला से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास  उनियाल ने  अपने फेसबुक वाल पर राजनीति और पत्रकारिता पर दस सूत्रवाक्य लिखे थे, जो काफी मौजूं लगे. हमने उनसे अनुरोध किया कि वे इन सूत्रों को समझा कर लिख दें. हाजिर है वेद जी के विचार:

पत्रकार भी एक इंसान है। किसी राजनीतिक पार्टी की तरफ उसका झुकाव हो सकता है। आखिर वह भी मतदान करता है। किसी न किसी राजनीतिक दल को अपना वोट देकर आता है। किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपना रुझान रखना अलग बात है, और किसी राजनीतिक पार्टी के लिए समर्पित हो जाना और बात है। पत्रकार किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपने रुझान के आधार पर काम करता हुआ दिखे यह खतरनाक है।

 1-  ऐसे में पत्रकार अपनी रुझान वाली पार्टी की आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता। देखने में आया कि अगर किसी संदर्भ में उनकी पसंद की पार्टी की या उसके किसी नेता की किसी मसले पर आलोचना हो रही हो तो वह तुरंत अपनी टिप्पणी/ लेख से उस तथ्य को नकारने की कोशिश करता है। उसकी पूरी कोशिश होती है कि उसकी रुझान वाली पार्टी के प्रति किसी तरह का आक्षेप न लगे। कई बार वह ऐसे तर्क ढूंढता है कि अमुक घटना तो दूसरी पार्टियों के समय भी हुई थी। इसका फर्क यह  होता है कि अगर किसी पार्टी पर कोई आक्षेप लगता है तो वह पत्रकार ढाल बनकर आने की कोशिश करता है। इस स्थितियों में घटनाओं को मोड़ने, उसके तथ्यों को हल्का करने की कोशिश होती है। किसी विषय पर अपनी राय बनाना, उसके संदर्भ में वाद-विवाद होना, टिप्पणियों के साथ अपने मत को रखना और बात है। लेकिन ढाल की तरह खड़े हो जाना और बात है। इसका नुकसान यह है कि मूल संदर्भ कई बार भटक जाता है। गंभीर आरोप हल्के लगने लगते हैं।

2- ऐसी परिस्थितियों में वह पत्रकार ऐसे तर्क ढूंढता है जिससे उसकी रुझान वाली पार्टी के विपरीत खडी पार्टी को दिक्कत हो। इसमें घटनाओ की तह में जाने के बजाय ऐसे तर्क तलाशे जाते हैं जिससे आप अपने रुझान वाली पार्टी के लिए मुश्किल पैदा करें। तर्क ढूंढना गलत नहीं। लेकिन कई बार बहुत हल्के तर्कों का सहारा लिया जाता है। बिहार के संदर्भ में देखेंगे तो नीतिश कुमार और मांझी की कशमकश में दोनों पक्षों के लिए कुछ ऐसे ही लेख-टिप्पणियां देखने को मिली। जबकि वहां की परिस्थितियों में नीतिश, मांझी , भाजपा, लालू अपनी-अपनी स्वभावगत कमजोरियों के साथ खड़े हैं। लेकिन साफ देखा गया कि मीडिया में अपने-अपने रुझान पर भी काम होता रहा। तीनों पक्षों के लिए अपनी-अपनी तरह से कहने वाले मिले। हमेशा नीतिश या हमेशा मांझी  या हमेशा सुशील मोदी कैसे सही या गलत हो सकते हैं। घटनाओं के संदर्भ में कोई कभी गलत या सही हो सकता है। राजनीति में यह हो सकता है कि कि अचानक नीतिश  शिवसेना की प्रशंसा करें, क्योंकि शिवसेना ने उनका पक्ष लिया, या भाजपा मांझी को समाज उद्धारक बताने लगे। लेकिन अपने पत्रकार भी इन चतुराई से भरे संदेशों में सुर मिलाएं तो यह अनुचित है। पत्रकारों को देखना चाहिए कि कब कौन राजनेता या उनकी पार्टी चालाकी से बयान देकर लोगों से खेल रही है। लेकिन ऐसे  खास पत्रकार केवल उन्हीं संदर्भों को पकड़ते हैं जिसमें उनकी रुझान वाली पार्टी को सहूलियत हो। उसका कहीं कुछ फायदा हो।

4- ऐसे  पत्रकार इस तरह की  टिप्पणियां करते हैं  ताकि रुझान वाली पार्टी को फायदा मिले। टीवी में  इस तरह के पत्रकार नजर आ जाते हैं ।  बहुत चालाकी से वो ऐसी टिप्पणियां करते हैं कि उसका फायदा उनकी मनपंसद पार्टी को मिले। वो सीधे नहीं कहेंगे,  पर घुमा फिरा कर इस तरह कहेंगे कि उनकी बात का फायदा उनकी पसंद की राजनीतिक पार्टी उठाए। जिन मुद्दों को उनकी पसंद की राजनीतिक पार्टी उठा रही है, वो उसे ही तूल देंगे। टीवी पर बहस में यह साफ झलकता है। ऐसे पत्रकारों की टिप्पणियां विचारात्मक लहजे में कही जाती है। लेकिन वह सहज नहीं होती। उसके पीछे पूरा जोड़-घटाना होता है। उनके कहे एक एक शब्द में छिपे हुए गूढ आशय होते हैं। टीवी के श्रोता या दर्शक उन्हें विचारों की तरह लेते हैं जबकि वे पूरी रणनीति के साथ कहे जाते हैं। वह विचार से ज्यादा एक योजना की तरह होते हैं। ऐसे पत्रकार अच्छी तरह जानते हैं कि उनके कहे शब्द कहां चोट कर रहे हैं और कहां उनके शब्दों से दिलों को थाह मिल रही है।

5- देखा गया कि जब रुझान वाली पार्टी के खिलाफ कोई बात हो, वह उसे टालता हुआ दिखता है। जबकि विपरीत पार्टी की आलोचना करनी हो तो वह क्रांतिकारी बन जाता है। बाडी लैंग्वेज अपने ढंग से काम करती है। इसी तरह अखबार के पन्नों पर भी शब्द कई बार करामात करते हुए दिखते हैं।  जब उनकी रुझान वाली पार्टी किसी बात पर फंसती हुई नजर आती है तो वो भी राजनीतिज्ञों की शैली में कहते हुए दिख जाते हैं कि दूसरे क्या कम हैं। लेकिन जब उनके मिजाज के विपरीत वाली पार्टी किसी मसले पर फंसती है तो वह धारदार हो जाते हैं। जवाब आज दो अभी दो की मुद्रा में सजग पत्रकार बन जाते हैं। ऐसे पत्रकार बहुत जरूरी हो तब  अपनी पसंद की पार्टी के किसी बड़े मसले पर भी हल्की सी टिप्पणी कर अपना पल्ला छुड़ा लेंगे। लेकिन मजमा तब जमाने की कोशिश करेंगे जब उन्हें दूसरी विपरीत पार्टी के खिलाफ कुछ कहना हो। ऐसे पत्रकारों में अक्सर विचारों का संतुलन नहीं दिखता है। वो एक पहलू पर दो पार्टियों के लिए अलग अलग राय बनाते हुए देखे जा सकते हैं। कई बार बहुत सावधानी से कुछ काम किए जाते हैं।  जैसे नेहरू की कुछ आलोचना के साथ मोदी की आलोचना। लगेगा बड़ा ही पारदर्शी लेखन हैं आखिर नेहरू की भी तो आलोचना हो रही है।  लेकिन  यहां पत्रकार को पता रहता है कि अब नेहरू का कुछ नहीं बिगड़ना न इस लेख से कांग्रेस का बिगड़ना। लेकिन नेहरू के साथ साथ मोदी की जो आलोचना की जा रही है, उससे मोदी का काफी कुछ बिगड़ना है। इसी तरह राजीव के कुछ गुणों का वर्णन इस तरह होगा कि लगेगा कि यह तो राजीव गांधी की प्रशंसा में लेख है। लेकिन इसके पीछे की मनोदशा यह होगी कि राहुल आखिर राजीव गांधी क्यों नहीं बन पाया। गूढ़ में जाएंगे तो पाएंगे कि लेख राजीव गांधी की प्रशंसा नहीं कर रहा बल्कि राहुल गांधी की जमकर खिंचाई कर रहा है। लेख ऐसा भी दिख सकता है कि आपको लगेगा कि लालू यादव की राजनीतिक शैली की आलोचना हो रही है। लेकिन अंत होते होते उसका सार यही होगा कि एक हो कमियों को नजरअंदाज करें तो भारत को जमीनी स्तर पर तो इसी नेता ने समझा. यही नेता है जो वचिंतो गरीबों की आवाज है। लालू के  कुछ हास परिहासों का जिक्र इस तरह से होगा मानों किसी बहुत भोले और एकदम ग्रामीण अनजाने से से इंसान की गुदगुदाती हुई कुछ बातें बताई जा रही हो।

5- ऐसे पत्रकार पूरी श्रद्धा के साथ अपनी रुझान वाली राजनीतिक पार्टी के विपरीत पार्टी  के खिलाफ सामग्री जुटाने में व्यस्त रहता है। आप उनके जरिए जुटाए कार्टून, व्यंग चित्र, व्यंग टिप्पणियों पर गौर करें । फेसबुक किसी और संदर्भ में वो हमेशा एक ही पार्टी या उसके किसी नेता पर केंद्रित होंगे। ऐसे जुटाए कार्टून, कविता व्यंग  उसकी रुचि का तात्कालिक विषय न होकर, अपनी रुझान की पार्टी के लिए एक सेवा की तरह होता है। अपनी रुझान वाली पार्टी के लिए यह एक तरह से अप्रत्यक्ष सेवा के रूप में होती है।  जो मजाक, व्यंग राजनेताओं को दूसरों पर करना होता है वह पत्रकार उन्हें उपलब्ध कराता है। लेकिन जब यही वंयग चित्र आर के लक्ष्मण या सुधीर तेलंग या काक बनाकर समाज को सौंपते रहे हैं  तो उसमें इस तरह का पक्षपात या खुरापात नहीं होती। वह घटना को पकड़ते हैं। उन्हें जहां व्यंग दिखा उसे पकड लिया। लेकिन ऐसे पत्रकारों को व्यंग दिखता नहीं, व्यंग की वो जतन से खोज करते हैं। उन्हें साफ पता होता है कि उनके व्यंग की दिशा कहां और किस पर होनी चाहिए।

7 ऐसा पत्रकार अगर अपनी रुझान वाली राजनीतिक पार्टी की आलोचना में कोई लेख या खबर विश्लेषण आदि लिखता है या टीवी पर कमेंट्स देता है तो उसमें आलोचना का पुट नहीं होता बल्कि वह सभंलने का सुझाव रहता है। शब्दों में अलग ढंग का अपनापन रहता है।  कुछ इस तरह कि भाजपा को सुझाव दिया जा सकता है कि वह कश्मीर में पीडीएफ से संवाद में ज्यादा तल्खी नहीं रखे, कल साझा सरकार बनानी पड़ सकती है। या फिर इस तरह कि आप पार्टी को कहे कि जो गलत किया माफी मांगने में क्या जाता है सुझाव रहता है कि कांग्रेस की भी थोड़ी आलोचना कर लो। नितिश लालू के लिए सुझाव रहता है कि आप को बिहार बुलाओ एक महागंठबंधन बनाओ वरना अकेले केंद्र में नहीं आ पाओगे। कांग्रेस की कमियों पर हल्के हल्के सहलाया जाता है कि राहुलजी किन रास्तों से फिर वापस मुख्यधारा में आओगे। ऐसे सुझाव गलत नहीं । लेकिन सुझाव हमेशा एक ही राजनीतिक पार्टी के लिए हों या जहां तीखी आलोचना की जरूरत है वहां आलोचना सहलाते हुए सुझाव के रूप में दिखे तो थोड़ा चीजें भटकती हुई नजर आती है।

8 ऐसा पत्रकार अपनी रुझान वाली राजनीतिक पार्टी  के लिए ऐसे तर्क गढ़ता है कि उस राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता भी हीन भावना से कुंठित हो जाएं। उन्हं अपने पद में बने रहने का संकट दिखने लगता है।

9 ऐसे पत्रकार इस बात की परवाह नहीं करते कि उसका लिखा पढकर या या उन्हें प्रवक्ता शैली में टिप्पणी करते हुए देखकर लोग क्या सोच रहे होंगे। शुरू में वह थोड़ी हिचक करता भी है लेकिन बाद में वह लोकलाज त्याग कर अपने काम में दक्ष हो जाता है। साथ ही ऐसे खास पत्रकार अपने कुछ अनुयायियों की एक टीम भी बना लेते हैं। जो फेसबुक , गोष्ठियों, आम कार्यक्रमों में उनके लिखे या कहे हुए की खूब प्रशंसा करते हैं।  यही नहीं कहीं उनकी किसी बात पर असहमति देता हुआ दिखे तो ये सब  पूरे आवेग से उस व्यक्ति या समूह के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। फिर उनका उद्घोष यही होता है कि इतने महान और बड़े पत्रकार पर इस तरह की टिप्पणी की जा रही है। या उसके बारे में कहा जा रहा है। आतंकित करने जैसा भाव भी पैदा किया जाता है। खबरदार जो उनके कमेंट्स पर या लेख पर कुछ कहा, जानते नहीं वो कौन हैं। कई एकलव्य और अर्जुन सामने आ जाते हैं। जिस राजनीतिक पार्टी के लिए वो अपना समय, श्रम और भावना का समर्पण कर रहे होंते हैं उसके कार्यकर्ता भी उस पत्रकार के लिए खड़े हो जाते हैं। उनकी विद्वता का बखान किया जाता है, उनके पत्रकारीय जीवन के कार्यों का उल्लेख किया जाता है। यह सब इसलिए कि संवाद न हो पाए। लोग खुल कर अपनी राय न जता सकें। उनके जरिए जो कहा जा रहा है, और जो लिखा जा रहा है उसे चुपचाप स्वीकार करें। न सुनना चाहें तो उस पर बहस न करें।

10- ऐसा पत्रकार अक्सर अपने किए हुए को कहीं न कहीं जरूर साबित कराता है। अपने लिखे को व्यर्थ नहीं जाने देता। बल्कि अपने रुझान वाली राजनीतिक पार्टी के आकाओं को उसका अहसास कराता है।

Thursday, February 19, 2015

शब्द क्या है?

शब्द मनुष्य की सब से बड़ी उपलब्धि है
संचार का साधन, विकास का स्रोत और ज्ञान विज्ञान का सागर है
शब्द की शक्ति अनंत है
संस्कृत के महान वैयाकरण महर्षि पतंजलि ने कहा था:
सही तरह समझा और इस्तेमाल किया गया शब्द इच्छाओँ की पूर्ति का साधन है.
इंग्लिश लेखक मार्क ट्वेन ने लिखा:
सही शब्द और लगभग सही शब्द मेँ वही अंतर है
जो बिजली की चकाचौँध और जुगनू की टिमटिमाहट मेँ है.

समान्तर कोष के लेखक अरविन्द कुमार के फेसबुक वाल से 

Wednesday, February 18, 2015

रेडियो के दिन आने वाले हैं

रेडियो एक ऐसा माध्यम है, जिसकी पहुँच सबसे ज्यादा है. आज यह हमारे देश की ९७ प्रतिशत आबादी तक पहुँच सकता है. एक ज़माना था, जब देश में रेडियो की धूम थी. अखबार बहुत कम लोगों तक पहुँच पाते थे, टीवी तब था ही नहीं. सिर्फ रेडियो ही समाचार, शिक्षा और मनोरंजन का जरिया हुआ करता था. अस्सी के दशक में जब टीवी ने मनोरंजन के माध्यम के रूप में अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं, तब रेडियो की चमक कुछ फीकी पड़ने लगी. नब्बे के दशक में उपग्रह चैनलों और विदेशी चैनलों के लिए जब देश के दरवाजे खुले तो रेडियो के लिए स्थितियां कुछ और गड़बड़ाने लगीं. फिर दूरदर्शन के साथ ही अनेक निजी टीवी चैनल आने लगे, जिनमें खबरें भी प्रसारित होने लगीं. ऐसा लगा कि रेडियो अब अतीत की बात हो जाएगा. क्योंकि लोग रेडियो की जगह टीवी देखने लगे. दूरदर्शन और आकाशवाणी की सरकारी खबरों की तुलना में निजी चैनलों की खबरें ज्यादा ताजातरीन लगने लगीं. इस बीच अखबारों के विस्तार और प्रसार में भी बेतहाशा इजाफा हुआ. संचार और परिवहन साधनों के बढ़ने से अखबार दूर-दूर तक पहुँचने लगे. इससे भी रेडियो का महत्व घटने लगा.
लेकिन नब्बे के ही दशक में रेडियो में भी निजीकरण की शुरुआत हुई. एफएम यानी फ्रीक्वेंसी मोड्यूलेशन वाले रेडियो की शुरुआत हुई, जिसमें आवाज एकदम साफ़ आने लगी. पुराने जमाने की कर्णकटु आवाज की तुलना में एकदम मधुर और पारदर्शी-जैसी आवाज कानों में गयी तो एफएम के प्रति एक नया जोश युवाओं में दिखने लगा. एफएम को लोगों ने, खासकर महानगरीय युवाओं ने सर आँखों में बिठा दिया. लेकिन सरकार निजी रेडियो को खबरें और सामयिक कार्यक्रम देने से डरती रही. एफएम निजीकरण के दो चरण बीत गए, लेकिन समाचारों को खोला नहीं गया. अब सुनते हैं कि तीसरे चरण में खबरों के प्रसारण की अनुमति भी सरकार देने वाली है. निश्चय ही, यदि ऐसा हो गया तो रेडियो में भी एक नयी क्रान्ति आयेगी.
इधर, हाल ही में आकाशवाणी ने अपने मनोरंजन चैनल विविध भारती को भी रीलांच करने का फैसला किया है. प्रधानमंत्री मोदी ने निश्चय ही रेडियो पर अपने मन की बात शुरू करके एक नई पहल शुरू की है. यानी रेडियो एक बार फिर से फोकस में आ रहा है. श्रोताओं में भी नया जोश दिखाई पड़ रहा है. हो भी क्यों न. रेडियो जितना सहज माध्यम है, उतना और कोई नहीं है. यह आपको डिस्टर्ब नहीं करता. थोड़ा सा धन खर्च करने पर ही आप इसकी सेवा का लाभ उठा सकते हैं. इसलिए यदि सरकार और हम रेडियो के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें तो इसकी धाक फिर से जम सकती है. हम यहाँ अमर उजाला के रविवारीय अंक की आवरण कथा दे रहे हैं, जिसमें विविध भारती की पूरी झलक प्रस्तुत की गयी है. आप भी पढ़िए: प्रो. गोविन्द सिंह 

      

Wednesday, February 11, 2015

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

आमंत्रण
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता पर आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में आप सादर आमंत्रित हैं.
प्रो. गोविन्द सिंह


Friday, February 6, 2015

सोशल मीडिया में पत्रकारिता पर बहस

मित्रो, आजकल दिल्ली विधान सभा के चुनाव से माहौल गर्म है. चुनाव में अक्सर पेड न्यूज का मामला बहस के केंद्र में आ जाता है. पेड न्यूज का सम्बन्ध मीडिया-मालिकों से रहता है, लेकिन चुनावों के वक्त अकसर पत्रकार भी सवालों के घेरे में आ जाते हैं. कोई धन के लालच में आकर तो कोई वैचारिक पूर्वाग्रहों के चलते निष्पक्ष नहीं रह पाता. यहाँ हम फेसबुक पर चल रही बहस के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे संकलित किया है जनसत्ता एक्सप्रेस वेबसाईट ने.
प्रमोद जोशी: पाठक और दर्शक चाहता है कि पत्रकार निर्भीक, स्वंतंत्र, निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीके से काम करे। यह पत्रकार और उनकी संस्था को तय करना है कि उसका संरक्षक कौन है, पाठक-दर्शक, मीडिया मालिक, राजनीति या पूँजी?
राजीव रंजन झा:  पाठक चाहता है कि पत्रकार निर्भीक हो, स्वतंत्र हो, निष्पक्ष हो, वस्तुनिष्ठ हो, और हवा खाये पानी पीये, क्योंकि 20-30 रुपये में छपने वाला अखबार उसे 2-3 रुपये में ही चाहिए!
प्रमोद जोशी: पाठक सस्ता मीडिया चाहता है तो उसे या तो 'सस्ता' या फिर किसी स्वार्थ से प्रेरित पत्रकार मिलेगा।
मजीठिया मंच: यह आम आदमी और समाज के सहयेाग के बिना संभव नहीं है। अगर निष्‍पक्ष और वस्‍तुनिष्‍ठ होने की सारी जिम्‍मेदारी और ठीकेदारी पत्रकारों और उनके मालिकों को दे दी जाएगी तो हम यहां चर्चा भर करते रह जाएंगे। इसलिए जब लगे कि कोई अपने अधिकारों और कर्तव्‍यों के हिसाब से काम नहीं कर रहा है तो समाज और आम आदमी को दखल देना चाहिए। अब यह दखल कैसा और कैसे हो, यह तय करना आम आदमी और समाज को करना चाहिए।
राजेंद्र तिवारी:  राजीव आपने सोलह आने सच बात कही। पत्रकारिता निर्भीक, स्वंतंत्र, निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीके से समाज के लिए तभी काम कर पायेगी जब उसकी फंडिंग समाज करेगा।
मनोज भट्ट:  यह बात ख़ाली पत्रकारिता ही नहीं, हर प्रोफ़ेशन पर लागू होती है.
प्रभात गोपाल झा:  लेकिन राजेंद्र तिवारी सर, सवाल का जवाब तो हमें ही खोजना होगा कि समाज किस तरह फंडिंग करेगा. कॉरपोरेट जमाने में समाज और उसकी नीतियों को दरकिनार किया जा रहा है. जो पत्रकार हैं, वह खुद आज नौकरी और आर्थिक नीतियों को लेकर जूझ रहे हैं. कोई सुरक्षा की गारंटी नहीं.... हमेशा जद्दोजहद की स्थिति. कहने का मतलब जो स्थापित पत्रकार हैं, वही समाज के साथ तालमेल बैठाते हुए सही राह तय कर सकते हैं. नहीं तो यह सिर्फ भाषणबाजी तक ही सीमित रह जायेगी.
प्रमोद जोशी: दुनियाभर में इस बात को पहचाना गया है कि मीडिया ओनरशिप और मीडिया कारोबार के बारे में अलग से भी सोचना चाहिए। हमारे देश में पिछले साल टीआरएआई ने पहल की है। हाल में रीडर सपोर्टेड न्यूज की अवधारणा भी सामने आई है।
मजीठिया मंच: राजेंद्र तिवारी प्रभात खबर के कारपोरेट संपादक हैं , प्रमोद जोशी भी हिन्‍दुस्‍तान में संपादक थे और राजीव रंजन झा भी बड़े मीडिया संस्‍थान में हैं । उन्‍हें अखबार और मीडिया के अर्थ शास्‍त्र के बारे में पूरा पता है। हम बस इतना जाना चाहते हैं कि मालिक रोज नई कोठियां कैसे पीट रहे हैं , बड़ी बड़ी गाडि़यों में कैसे घूम रहे हैं, मार्केटिंग और सर्कुलेशन वाले फाइव स्‍टा होटलों में कैसे दावतें उठा रहे हैं क्‍या यह सब पत्रकारिता को बलि चढ़ाकर नहीं किया जा रहा। सभी अखबार वाले दिल्‍ली में अपनी अखबारी दुकान समेट नोएडा चले गए। वहां भी उन्‍हें सस्‍ती जमीन चाहिए और दिल्‍ली में मोटा किराया। जब देना हो तो पत्रकारिता कर रहे होते हैं और जब लेना हो तो प्रोडक्‍ट बन जाते हैं। इस बात से समाज और आम लोगों को कौन अवगत कराएगा।

मनोज भट्ट:  बिज़नेस है. घाटा खाने के लिये कोई पूँजी नहीं लगायेगा . मीडिया मालिकों से अपेक्षा रखना व्यर्थ है. सही पत्रकारिता करनी है तो ईकानामिस्ट पत्रिका का माडल देखा जा सकता है.
प्रमोद जोशी: पत्रकार की भूमिका में अंतर्विरोध है। वह पाठक के सामने उसके हितों की रक्षा का दावा करता है। उसके मालिक के अपने हित हैं। ये हित कई बार कारोबारी हैं और कई बार दूसरे हितों की रक्षा करने वाले, रसूख बनाने वगैरह से जुड़े हैं। यह उस पूँजी की कीमत है जो व्यापार में लगाई गई है। मोटे तौर पर लगता है कि भारत की पत्रकारिता अमेरिका की पत्रकारिता के मुकाबले कमजोर है। इसकी एक वजह यह है कि वहाँ का पाठक हमारे पाठक के मुकाबले आर्थिक रूप से मजबूत है। वह साख की बेहतर कीमत देने को तैयार है। औसत अमेरिकी अखबार की रिसर्च टीम भारत के सर्वश्रेष्ठ अखबार की टीम के मुकाबले बेहतर होती है। पर इतना ही काफी नहीं है। अमेरिकी अखबार अपनी राजनीतिक व्यवस्था के पोषक और पक्षधर हैं। उन्होंने पिछले कई वर्षों में पाठक की कंसेंट बनाने में व्यवस्था की मदद की है। अमेरिका में ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट जैसे आंदोलन शुरू हुए हैं, जिनके पीछे गहरी विचारधारा नहीं है, पर जनता के एक तबके का रोष है। मैकलुहान के अनुसार मीडिया पहला औद्योगिक उत्पाद है। साथ ही मीडिया के बदलते रूप के अनुसार ही मैसेज बदलता है। यानी हमें मीडिया के रूपांतरण पर भी नजर रखनी चाहिए। अलबत्ता मेरा इतना अनुभव है कि अखबारी मीडिया के प्रबंधकों की कोशिश सम्पादकीय विभाग को ज्यादा से ज्यादा कंट्रोल में रखने की होती है। मनोज भट्ट:  निष्पक्षता, विश्वसनीयता और वस्तुनिष्ठता अभी भी आपको एजेंसी में दिख जायेगी. Bloomberg और Reuters की क्रेडीबिलटी बहुत ज़्यादा है.
http://jansattaexpress.in/print/9735.html

Tuesday, February 3, 2015

खुशवंत सिंह ने अपनी ओबिचुअरी खुद लिखी थी

ओबिचुअरी या मर्शिया या मृत्यूपरांत जीवनी वास्तव में छपती तो किसी मशहूर व्यक्ति की मृत्यु के बाद ही है, लेकिन विद्रूप यह है कि यह अक्सर लिखी पहले जाती है, या कम से कम इसकी सामग्री का संकलन पहले से कर लिया जाता है. टीवी चैनलों के रिसर्च विभाग हों या अखबारों के सन्दर्भ विभाग, वहाँ हर सेलिब्रिटी का हिसाब तैयार रहता है. पत्रकारिता की कक्षाओं में अक्सर छात्र इस प्रक्रिया का मजाक बनाते हैं. एक बार तो खुद मेरी लिखी धर्मवीर भारती की ओबिचुअरी उनके जीते-जी छप गयी. एक वरिष्ठ राजनेता को लेकर एक तैयार पेज आज भी मेरे कम्प्यूटर के कोष में पडा हुआ है, जो कि उक्त राजनेता की बीमारी की हालत में कई साल पहले एक अखबार के लिए तैयार किया गया था. जाने-माने लेखक, पत्रकार स्वर्गीय खुशवंत सिंह के बारे में भी यह चर्चित है कि उन्होंने अपनी ओबिचुअरी खुद अपने-आप लिखी थी. समचर४मीडिया ने उनकी सौवीं जयन्ती पर उनकी ओबिचुअरी छापी है, जिसे हम यहाँ साभार दे रहे हैं. - गोविन्द सिंह   

फरवरी 2, 2015: जिस्म बूढ़ा पर आंखें हमेशा बदमाश.. यह कहने वाले पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह आज होते तो 100 बरस के हो गए होते। आज उनका सौवां जन्मदिन है। अगर उनकी जुबान में कहें तो वह 99 पर आउट हो गए थे। वह कहा करते थे, खुद पर हंसकर ही हम दुनिया में हंसी बांट सकते हैं। वह बेबाक थे। बेलौस और बिंदास थे। यही उनकी खासियत थी।
खुशवन्त सिंह का जन्म 2 फरवरी 1915 में पंजाब  में हुआ था। उन्होंने गवर्नमेंट कॉलेजलाहौर  और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी लंदन से पढ़ाई पूरी की और लंदन में ही कानून की पढ़ाई भी की। उसके बाद लाहौर लौटे और वहां वकालत शुरू की। उनके पिता सर सोभा सिंह अपने समय के प्रसिद्ध ठेकेदार थे।
आजादी के बाद खुशवंत सिंह का परिवार दिल्ली आ गया। कहा जाता है, उस समय सोभा सिंह आधी दिल्ली के मालिक थे। दिल्ली आने के बाद खुशवंत सिंह ने विदेश मंत्रालय में नौकरी की। 1951 में वह आकाशवाणी से जुड़े और लगभग दो साल सरकारी पत्रिका योजनाके संपादक रहे। इसके बाद वह मुंबई चले गए और वहां अंग्रेज़ी साप्ताहिक इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया और न्यू डेल्ही के संपादक रहे। 1980 में वह दिल्ली लौटे और अंग्रेज़ी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक रहे। तभी से वह हिन्दुस्तान टाइम्स में एक लोकप्रिय कॉलम भी लिखा करते थे।
खुशवंत सिंह सिर्फ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं थे। एक उपन्यासकार और इतिहासकार भी थे। उन्होंने लगभग 80 किताबें लिखी हैं। दो खंडों में प्रकाशित सिखों का इतिहास उनकी एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक कृति है। उनके उपन्यासों में डेल्ही, ट्रेन टू पाकिस्तान, द कंपनी ऑफ़ वूमन जैसी कृतियां बहुत लोकप्रिय हुईं। ट्रेन टू पाकिस्तान पर फिल्म भी बन चुकी है। भारत सरकार ने उन्हें 1974 में पद्म भूषण और 2007 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया था। 1980 से 1986 तक वह राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे। लेकिन इस दौरान वह इंदिरा गांधी से नाराज हो गए। इसका कारण ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार था जब स्वर्ण मंदिर में इंदिरा गांधी ने सेना भेज दी थी। खुशवंत सिंह इंदिरा गांधी पर इतना गुस्सा गए कि पद्मभूषण तक लौटा दिया।
खुशवंत सिंह अपनी मिसाल आप थे। साल 2000 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, मेरा कोई दीन-ईमान धरम-वरम कुछ नहीं है। पर मैं किसी धर्म की बुराई नहीं करता। किसी का दिल दुखाना मुझे पसंद नहीं है। मैं सुबह चार बजे उठ जाता हूं पर पूजा-पाठ नहीं करता। सिर्फ अपना काम करता हूं। आज जिस सर्वधर्म सम्भाव की जरूरत हैखुशवंत सिंह उसकी मिसाल थे। सिख होने पर भी गायत्री मंत्र पढ़ते थे। उनके घर के प्रवेश द्वार पर गणपति की प्रतिमा लगी थी और कृपालु जी महाराज उनके पसंदीदा साधु थे। उन्होंने जपजी साहिब का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया था। उन्हें सिख होने पर गर्व था लेकिन वह गुरुद्वारा नहीं जाते थे। 
खुशवंत सिंह आज भी लोगों के बीच लोकप्रिय हैं तो इसका कारण है। वह अपने हर पाठक की चिट्ठी का जवाब देते थे। वह भी पोस्ट कार्ड पर। एक बार उनके बेटे राहुल की गाड़ी दक्षिण भारत के किसी गांव में खराब हो गई। वहां के लोगों ने उनकी मदद की। जब उन्हें पता चला कि राहुल खुशवंत सिंह के बेटे हैं तो एक किसान ने अपने घर से एक पोस्टकार्ड लाकर राहुल को दिखाया। यह खुशवंत सिंह ने उसे लिखा था।
खुशवंत सिंह सरदारों पर जोक लिखने के लिए मशहूर थे। एक बार शिरोमणि गुरुदारा प्रबंधक समिति ने उन्हें ऐसा करने से मना किया तो उन्होंने समिति को भी एक पोस्ट कार्ड लिखा जिस पर तीन शब्द लिखे थे- गो टु हेल (नर्क में जाओ)। खुशवंत सिंह आजाद खयाल थे। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, मेरे अंदर किसी चीज़ को छुपाने की हिम्मत नहीं है। शराब पीता हूं तो कहता हूं कि मैं पीता हूं। सिंगल माल्ट खुशवंत सिंह की फेवरेट विस्की थी, जिसके दो पैग नियत समय पर पीते थे। कोई खाने पर बुलाता, तो अपना ब्रैंड साथ ले जाते। ऐसा न हो कि वहां न मिले। खाना जल्द खा लेते थे इसलिए घर में हों या किसी पार्टी में, पार्टी चाहे प्रधानमंत्री के घर पर हो या कहीं और,  उन्हें समय पर भोजन मिलना चाहिए था। 
खुशवंत सिंह ने कई प्रसिद्ध राइटर्स की तरह अपनी ऑब्यूचेरी यानी मर्सिया खुद ही लिखा था- शीर्षक इस तरह पढ़ा जाएगा- सरदार खुशवंत डेड, और आगे छोटे अक्षरों में प्रकाशित होगा : गत शाम 6 बजे सरदार खुशवंत सिंह की अचानक मृत्यु की घोषणा करते हुए अफसोस हो रहा है। वह अपने पीछे एक युवा विधवा, दो छोटे-छोटे बच्चे और बड़ी संख्या में मित्रों और प्रशंसकों को छोड़ गए। यही नहीं उन्होंने अपना समाधि लेख भी लिखा था-यहां एक ऐसा मनुष्य लेटा है, जिसने इंसान तो क्या भगवान को भी नहीं बख्शा। उसके लिए आंसू न बहाएं। खुदा का शुक्र है कि वह मर गया।
जब पिछले साल 20 मार्च को खुशवंत सिंह ने दुनिया से विदा ली तो उनके प्रशंसकों की आंखें नम हो गईं। एक आजादखयाली ने दुनिया से विदा ले ली।
http://samachar4media.com/tribute-to-late-khushwant-singh-on-his-100th-birthday.html