School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला

Thursday, July 28, 2016

2017 तक मीडिया के क्षेत्र में 63,000 नई नौ‍करियां पैदा होंगी

केजी सुरेश
महानिदेशक, 
आई आई एम सी
 इन दिनों मीडिया का तेजी से विस्‍तार हो रहा है। इसके साथ ही इसमें रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि हो रही है। ट्रेडिशनल मीडिया के साथ-साथ डिजिटल मीडिया का स्‍कोप भी काफी बढ़ा है और इसमें एप डेवलपर (app developers), कंटेंट क्‍यूरेटर्स (content curators), कॉपी राइटर्स (copy writers) और ब्‍लॉगर्स (bloggers) जैसे प्रफेशनल्‍स की मांग काफी बढ़ गई है।
मीडिया में लगातार बढ़ रही प्रफेशनल्‍स की डिमांड को किस तरह पूरा किया जा सकता है और इस क्षेत्र में आने के लिए इच्‍छुक नई पीढ़ी को अपने अंदर किस तरह के स्किल्‍स डेवलप करने होंगे, इसके बारे में इंडियन इंस्‍टीट्यूट ऑफ मॉस कम्‍युनिकेशन (IIMC) के डायरेक्‍टर जनरल केजी सुरेश का एक ऑर्टिकल हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स (Hindustan Times) में प्रकाशित हुआ है। आप यहां इस आर्टिकल का हिन्‍दी अनुवाद पढ़ सकते हैं।
यदि हम राजस्‍व की दृष्टि से देखें तो भारतीय मीडिया और एंटरटेनमेंट इंडस्‍ट्री इस समय 905 बिलियन से भी ज्‍यादा की इंडस्‍ट्री बन चुकी है और इसका कंपाउंड एनुअल ग्रोथ रेट (CAGR) 14.2 प्रतिशत तक पहुंचने की संभावना है। फिक्‍की-केपीएमजी (FICCI-KPMG) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 तक इस इंडस्‍ट्री का रेवेन्‍यू 1786 बिलियन तक पहुंच जाएगा। इस सेक्‍टर में इस समय तकरीबन 4.6 लाख लोग काम कर रहे हैं और उम्‍मीद की जा रही है वर्ष 2017 तक 13 प्रतिशत CAGR के साथ यह संख्‍या 7.5 लाख हो जाएगी। डिजिटाइजेशन और नए चैनल के शुरू होने से टेलिविजन सेक्‍टर में 18 प्रतिशत कीCAGR ग्रोथ की संभावना है। ऐसे में इस सेक्‍टर में विभिन्‍न पदों पर 1.35 लोगों के लिए नियुक्तियों के नए द्वार खुलने की संभावना है। इसी अवधि में फिल्‍म सेक्‍टर में 12 प्रतिशत ग्रोथ की उम्‍मीद है और माना जा रहा है कि इसमें 88000 नए लोगों की जरूरत होगी। इसके अलावा इस क्षेत्र से जुड़े अन्‍य सेक्‍टरों से वर्ष 2017 तक लगभग 63000 लोगों के लिए नई नौ‍करियां पैदा होंगी।
 इसके अलावा मीडिया सेक्‍टर इन दिनों डिजिटल की ओर तेजी से बढ़ रहा है और यह इस इंडस्‍ट्री का अभिन्‍न अंग बन चुका है। ऐसे में इस क्षेत्र में भी विभिन्‍न प्रफेशनल्‍स जैसे एप डेवलपर, सॉफ्टवेयर टेस्‍टर आदि की भी जरूरत बढ़ेगी। वहीं कंटेंट क्‍यूरेटर्स, कॉपी राइटर्स और ब्‍लॉगर्स की भी इन दिनों भारी मांग है जो डिजिटल प्‍लेटफार्म पर छाए हुए हैं और मीडिया कंपनियों के लिए रेवेन्‍यू जुटा रहे हैं।
देखा जाए तो वर्ष 2013 में मीडिया और एंटरटेनमेंट इंडस्‍ट्री में विज्ञापन पर खर्च कुल 362.5 बिलियन था, इसमें टेलिविजन और प्रिंट का रेवेन्‍यू 80 प्रतिशत था। ऐसे में मीडिया के क्षेत्र में प्‍लानिंग, एड डेवलपमेंट और कॉपी राइटिंग की मांग काफी बढ़ी हुई है।
कॅरियर के विकल्‍प
जो भी विद्यार्थी पत्रकारिता को अपना कॅरियर बनाना चाहते हैं, वह सीनियर सेकेंड्री करने के बाद सीधे तीन साल का मॉस कम्‍युनिकेशन का कोर्स कर सकते हैं। इन दिनों विभिन्‍न विश्‍वविद्यालयों द्वारा यह कोर्स कराया जा रहा है। इसके अलावा स्‍नातक परीक्षा उत्‍तीर्ण विद्यार्थी पोस्‍ट ग्रेजुएट डिप्‍लोमा अथवा डिग्री भी कर सकते हैं। पत्रकारिता जहां समाजसेवा का एक प्रमुख माध्‍यम है और इससे आत्‍मसंतुष्टि मिलती है, वहीं आप टीवी जैसे ग्‍लैमरस पेशे को भी अपना सकते हैं। यदि आपको नए-नए लोगों से बातचीत करना और उनके साथ व्‍यवहार रखना पसंद है तो पब्लिक रिलेशन भी कॅरियर का एक विकल्‍प मौजूद है, वहीं आप सिनेमा के क्षेत्र में अपनी क्रिएटिविटी को दिखा सकते हैं। यदि आपके पास पोस्‍ट ग्रेजुएट डिग्री के साथ यूजीसी नेट उत्‍तीर्ण करने के साथ ही डाक्‍टरेट की डिग्री है तो भी आप इस उभरते हुए क्षेत्र का हिस्‍सा बन सकते हैं।
 दरअसल, पत्रकारिता में डिग्री अथवा डिप्‍लोमा करने से विद्यार्थी इस क्षेत्र की बारीकियों अथवा तकनीकों के बारे में बेहतर तरीके से जान सकता है।  
 जरूरी स्किल्‍स
 पत्रकारिता के क्षेत्र में कॅरियर बनाने के लिए शैक्षिक योग्‍यता के साथ-साथ विद्यार्थी के अंदर नई-नई जानने की जिज्ञासा होनी चाहिए अर्थात उसे जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना चाहिए और भाषा पर भी अच्‍छी पकड़ होनी चाहिए। लंबे समय तक लगातार काम करने के अलावा धैर्य और आत्‍मविश्‍वास और नैतिक मूल्‍यों अथवा सिद्धांतों के प्रति समर्पण जैसी चीजें होने से आप इस क्षेत्र में आसानी से सफल हो सकते हैं।
 इन संस्‍थानों से कोर्स कर सकते हैं
आजकल कई संस्‍थान अथवा विश्‍वविद्यालय मॉस कम्‍युनिकेशन की पढ़ाई कर रहा हैं। इनमें इंडियन इंस्‍टीट्यूट ऑफ मॉस कम्‍युनिकेशन, एजेके मॉस कम्‍युनिकेशन रिसर्च सेंटर, जामिया मिलिया इस्‍लामिया, एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्‍म चेन्‍नई, सिंबॉयसिस इंस्‍टीट्यूट ऑफ मीडिया एंड कम्‍युनिकेशन पुणे, सेंट जैवियर्स कॉलेज मुंबई, डिपार्टमेंट ऑफ कम्‍युनिकेशन हैदराबाद, इंडियन इंस्‍टीट्यूट ऑफ जर्नलिज्‍म एंड न्‍यू मीडिया बेंगलुरु, माखनाल चतुर्वेदी नेशनल यूनि‍वसिर्टी ऑफ जर्नलिज्‍म एंड मॉस कम्‍युनिकेशन भोपाल, यूनिवर्सिटी ऑफ दिल्‍ली, भारतीय विद्या भवन, वाईएमसीए और उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय आदि संस्‍थान प्रमुख हैं। यहां पर पत्रकारिता और मॉस कम्‍युनिकेशन के विभिन्‍न कोर्स कर सकते हैं। 
आप ये अंग्रेजी में लिखा ये मूल लेख नीचे लिंक पर क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं


Wednesday, July 20, 2016

Sitting down with P. Sainath

जाने-माने पत्रकार पी साईनाथ की ख्याति उनकी ग्रामीण भारत की रिपोर्टों की वजह से है. वे न होते तो भारत की ग्रामीण पत्रकारिता गर्त में जा चुकी होती. अंग्रेज़ी अखबार हिन्दू के ग्रामीण मामलों के सम्पादक रहे साईनाथ इन दिनों ग्रामीण रिपोर्टिंग पर आधारित वेबसाइट pari का संचालन कर रहे हैं. यहाँ हम मीडिया पर उनकी सोच दर्शाता एक इंटरव्यू दे रहे हैं उनकी वेबसाइट से साभार:

Posted on March 10, 2015 by Vidyut Kale in Media
P. Sainath, the former Rural Affairs Editor of the Hindu, has won an outrageous number of awards for his journalism (over 40). He recently launched his latest project, the People’s Archive of Rural India, where he hopes to document the “everyday lives of everyday people.” It provides multimedia coverage of subtopics such as “Women,” “Things We Do,” Things We Make,” and “Farming and its Crisis.” The Herald sat down with Sainath in Luce Hall to discuss the role of objectivity in journalism, what goes into capturing the lives of the 1.2 billion people who live in India, and his golden rule of always being aware of what he doesn’t know.

YH: How did you get involved in Journalism?
Sainath: Historically the Indian press is a child of the Indian freedom struggle, and I came from a family that was heavily involved in the freedom struggle. Almost every major nationalist leader in that struggle, whether it was Gandhi, or Nehru, or the women Sarojini Naidu and Vijaya Lakshmi Pandit, every one of those leaders also doubled up as a journalist. They saw journalism as a society in discussion with itself. They saw journalism as a mode of social change.
When I finished my higher studies or left them halfway through, there was no great plan or grand design. It was perfectly natural for me to go into journalism because that’s where all the people I associated with the freedom struggle went. I was born ten years after it was over and I would say my values are rooted in that generation and in that struggle. So, it was a perfectly natural move to make.
YH: Has your role as an objective journalist ever forced you to make some difficult choices when working with the rural populations you cover?
Sainath: Absolutely, and I have very serious issues with the use of the term “objectivity.” By the way, we are sitting in the Henry Luce building. Right? Do you know that one of the more famous statements from Luce about the doctrine of objectivity is, “Objectivity is strictly a phony”? There are three kinds of objectivity in my opinion. One is desirable. One is genuine. And, one is a fraud. The doctrine of objectivity, which is really a North American product, the doctrine, in my view, is a fraud….
So, the first kind of objectivity is the objectivity of the pure sciences. Now, that is admirable, desirable, but not replicable in journalism.  Because, say, suppose someone claims they have created cold fusion, you remember the claim a few years ago of cold fusion? A thousand scientists across the country, across the world, are able to replicate those conditions in a lab and check the veracity of the claim. You and I can’t do that as journalists. Our labs are entirely different…The laboratory is the laboratory of daily life and human beings are incredibly different from chemical compounds. The objectivity of the pure sciences, where something can be verified, checked, and examined, that is very desirable and it’s admirable but it’s not replicable beyond a certain degree in the social sciences and in journalism.
The second thing is the doctrine of objectivity, which I consider a fraud and really ends up giving the last word to authority and the powerful. Incidentally, all this doctrine of balance and two sides goes out the window when the major interests of the newspaper or the channel or the country it represents are threatened. There is a difference between objectivity and the doctrine of objectivity. The doctrine of objectivity, which is the gift you guys give the world, is a fraud. It defends the powerful. It always weakens the arguments against power.
Though, one caveat, there are people who follow schools of journalism… which have tried for a third kind of objectivity that I am very supportive of, which is your personal objectivity, the honesty with which you deal with a subject. The first thing about being honest is to accept that our value systems have an impact on us. Now, the day that we accept that journalism is a very subjective art is the day we begin striving for objectivity.  Now, if I start with the myth that I am objective then you will be actually committing a serious disservice to your readers, or viewers, or listeners. If you start from the point of view that we all have our deep subjectivities, we all are affected by our sensitivities and our socialization then you know what to look out for. You know the biases and the prejudices to watch out for when you write.
YH: What would you say your subjectivities are when you start writing a piece?
Sainath: It depends on the subject of the issue. I have different subjectivities on different issues.  I have never been dishonest with my readers. They know where I stand. I never conceal that. My journalism is about the everyday lives of everyday people. I write about the work poor people do. I write about the work ordinary people do.
I will write about agri-business. I will and have written about Monsanto. I will and have written about Cargill. And if I report them, I will report them very honestly. When I’ve done stories on these guys, they never ever complained that their version was unfairly represented, and I’ve done a lot of stories.
YH: Why did you choose to resign from the Hindu and start the People’s Archive?
Sainath: I was the only rural affairs editor in existence in India, in South Asia and as far as I know anywhere else at the national level. How many newspapers do you know of that have a rural editor full time? I spent 270 days a year on average of the last 22 years in the countryside.
I spent most of my time, even now, even after leaving the Hindu in the countryside in the poorest areas trying to understand how people cope, what are their survival strategies, and trying to do it as much from giving them a voice rather than imposing my own, that’s also a form of objectivity. As a writer, and a journalist, and a reporter. I bring in the data. I bring in the perspective. I bring in context. The story is theirs.
        I did this in the Hindu for ten years. I had a fantastic run at the Hindu. The Hindu took rural India out of ghettos of agriculture and things like that and put it on the op-ed pages. No reader of the millions that the Hindu has ever questioned the objectivity of any of these pieces. In fact, they had the highest number of hits. They had an astonishing following, which stands me in good stead wherever I’m writing, and it also shows that human beings in the cities are not brain dead consumers. They have an interest in other human beings who are less privileged and less fortunate than they are. My entire experience has been that people are concerned, that they are worried.
        So, the Hindu did this and it was hugely successful. In late 2013 and early 2014, there were changes in the paper that made me feel that that run had come to an end, and that the new priorities did not include the rural. It did not include the poor, the farmer, the marginal. And I left.
At that time, my eyes were being opened up to the possibilities of what the digital platform allowed. So, I’m doing the same thing that I’ve done for 20 years as a full time rural reporter, but the digital platform infinitely expands the scope for it. So, I’ve been concentrating on the People’s Archive of Rural India, which is both a living journal and an archive.
YH: Why have you chosen to use so many different forms of media–writing, photography, video–to create this archive? What does it add?
Sainath: I think that for me it is all about storytelling. There are two aspects. One is documenting the complexities of the Indian countryside which is the most complex part of planet earth, 833 million people speaking 780 languages, six of those languages spoken by more than 50 million people, three of them spoken by more than 80 million, some of them spoken by 10 people, the last speakers of a given language. I just did a video on that. Don’t you think it’s important to record a language that is about to go into extinction? It is part of my culture, part of my history, part of my legacy. As a journalist I want to be able to report on it.
YH:  I have a few more questions on here, but they seem to be questions that you’ve given answers to before. So, what’s just on your mind? What are you thinking about right now?
Sainath: Right now we are trapped with how to cope with the expansion of this project. It is growing much faster than we can cope with. We are getting 150 volunteers a week online. There are 14 of us in the core group. I had 200 or 300 volunteers before I began, mostly fellow journalists who were once students of mine. But, now we are getting 150 highly skilled volunteers ranging from accountants to medical doctors in rural areas to bankers. They want to do something for it. So, we are trying to see how to train them so that they can document, so that they can record, so that they can tell stories. And that’s what we are grappling with.
YH: Any words of advice for students who are interested in going into journalism?
Sainath: If you are someone burning to connect with other human beings, as I am, then it’s what I see journalism being about. Good journalism is a society in conversation, argument, often raucous argument, debate, and discussion with itself. Now, if that’s your view of journalism you will really enjoy it because you will be taking your studies and your knowledge and using it to interact with reality, where it will be a help to you and where it will be helped by the interaction with reality.
So, I would say this. If you are accepting corporate media as the be-all and end-all of journalism, and you are going there, don’t go. If journalism for you is about engaging with society, connecting with your fellow human beings, trying to do something to understand the world in order that perhaps there are things that could be done better, then go for journalism.

Interview condensed by Abigail Schneider and the Herald. Originally published at the Yale Herald.

http://psainath.org/sitting-down-with-p-sainath/


Monday, July 18, 2016

हल्द्वानी और देहरादून में पत्रकारिता की विशेष कार्यशालाएं

उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग द्वारा चार दिवसीय विशेष कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसमें उत्तराखंड के विभिन्न अंचलों के साथ ही दिल्ली, जयपुर, बरेली, नोएडा आदि स्थानों से विद्याथिर्यो ने प्रतिभाग किया। इस कार्यशाला का शुभारंभ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. नागेश्वर राव ने किया। अपने संबोधन में प्रो. राव ने कहा कि पत्रकारिता का पेशा गरिमामय होने के साथ ही बेहद चुनौती वाला भी है। इसमें कड़ी मेहनत के साथ लगन की भी आवश्यकता होती है। जबकि पत्रकारिता विभाग के निदेशक प्रो. गोविन्दसिंह ने विद्याथिर्यो को पत्रकारिता का इतिहास और उसकी बारीकियों से अवगत कराया। सहायक प्रोफेसर भूपेनसिंह ने रिसर्च व प्रोजेक्ट निर्माण की विधि के बारे में अवगत कराया। अकादमिक एसोसिएट राजेन्द्रसिंह क्वीरा ने सत्रीय कार्य व रिपोर्टिंग के बारे में बताया। कार्यशाला में वाहरी विशेषज्ञों ने भी टीवी पत्रकारिता, रेडियो पत्रकारिता और विज्ञापन आदि के संबंध में अपने-अपने व्याख्यान दिये। इससे पूर्व देहरादून के विश्वविद्यालय कैम्पस में भी पत्रकारिता की चार दिवसीय विशेष कार्यशाला का आयोजन किया गया है।                                                               -राजेंद्र क्वीरा

Brand Vs. Product

For example, A Floppy Disk is no longer available now but it was a hot cake at one time. Even till 2001-02 floppies existed in market. The product just died.Brands on the other hand don't exactly follow a life cycle. Brands can be immortal unless they commit suicide. Brand and product are closely related. A brand is nothing without a product or service but brand can evolve over the time.
Coming back to floppy example, Sony, Seagate all had their floppy disks, but the brands didn't die after the death of floppies.Sony today is preparing market for BluRay whereas Seagate is a market leader in hard disks. The brands lived.
Coca Cola is a brand that is immortal. Brands who realized that they need to evolve survived, rest have died.There were brands in India like Campa Cola, Gold Spot, Cibaca etc, today they have died and are no more.
Either they were killed by the bigger brands or the customers rejected them. If Campa Cola could have gone into a slightly different beverage market, they could have survived. Parle did survive as a brand. Today its a big brand.
Thums Up as a brand could not be killed even after Coca Cola tried its best because the consumer demanded the drink.
Some years back, there was a series of TV commercials in India for a brand called Home Trade. The ads featured Sachin Tendulkar, Shah Rukh Khan, Hritik Roshan but the brand was never heard of after the ads. The brand died instantly. 
Brands are not created by TV commercials or campaigns but they are for the consumer/customer to test and trust. Once a name is in customer's mind, its a brand. But the life of the brand would be decided by the fact whether customer sees the brand as a friend or a foe.
Whenever Maruti comes out with any new car, people accept it and trust it because Maruti as a brand is a friend to many target customers. Same is the case for Apple as brand.
Many would argue that once a brand is established, its immortal. But its not the case. Luna was a brand which was highly valued and popular, today the Moped is neither no longer in production nor any other vehicle is produced with a Luna logo or brand.So Luna is alive in history and not in reality.
Brand unlike a product can live forever, if managed properly. Here comes the role of Brand Management.
Brand can undergo a physical change too. Like many brands keep changing their color, the look, the identity or image. This ensures freshness and long life.
Coca Cola, Nike, Adidas, Google, Microsoft are the kind of brands which will 'never' die (hopefully) because they have evolved over the time, adding more products to their arsenal.
Evolving Brand will never Die... It can't.
https://www.linkedin.com/pulse/brand-vs-product-kapil-kaushik?trk=hb_ntf_MEGAPHONE_ARTICLE_POST

Friday, July 15, 2016

स्नैपचैट फ़िल्टर: एक नया विजुअल माध्यम


सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म स्नैपचैट फ़िल्टर का इस्तेमाल अमूमन लोग दोस्ताना बातचीत को मनोरंजक बनाने के लिए करते हैं लेकिन भारत में इसका इस्तेमाल कहीं गंभीर उद्देश्य के साथ किया जा रहा है.
भारत में यौन उत्पीड़न पीड़ित इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल अपना दर्द सुनाने के लिए कर रहे हैं.
इस फ़िल्टर के चलते पीड़ित महिलाएं अपने अनुभव को कहीं ज़्यादा सहज होकर शेयर कर रहीं हैं, क्योंकि फ़िल्टर के चलते उन्हें भरोसा होता कि पहचान जाहिर नहीं होगी.
हिंदुस्तान टाइम्स के मोबाइल एडिटर यूसुफ उमर ने इस तरह का प्रयोग किया है. उन्होंने यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं के साक्षात्कार को स्नैपचैट फ़िल्टर के जरिए पाठकों के सामने रखा है.
उमर ने अपने इस प्रयोग के बारे में बताया है, “आंखों से आत्मा की सच्चाई का पता चल जाता है. इतना ही नहीं स्नैपचैट अपने फ़िल्टर के लिए चेहरा मापने की तकनीक का इस्तेमाल करती है, जिससे चेहरे का हाव भाव पता चलता रहता है.
उमर के मुताबिक, “एक पीड़िता ने ड्रैगन फ़िल्टर का इस्तेमाल किया है और इसमें आप उसके चेहरे के भाव को आसानी से देख सकते हैं.
भारत में यौन उत्पीड़न एक गंभीर समस्या है, एक अनुमान के मुताबिक करीब 2.75 करोड़ महिलाएं इसकी शिकार हैं. इसके अलावा कई मामले ऐसे भी होते हैं, जिसमें पीड़िता भविष्य को लेकर डर के चलते मामले को दर्ज नहीं कराती हैं.
भारत सहित दुनिया के कई देशों में यौन उत्पीड़न की पहचान को जाहिर करना गैर क़ानूनी है. ऐसे में इस तकनीक का इस्तेमाल निश्चित तौर पर निजता के साथ अपनी बात कहने का मौका उपलब्ध कराता है.
ड्रैगन फ़िल्टर का इस्तेमाल करने वाली एक लड़की बता रही है कि पांच साल की उम्र में उसका उत्पीड़न हुआ है. उन्होंने बताया, “किसी ने हैदराबाद में मेरा अपहरण कर लिया. वे मुझे मैसूर ले गए, एक कमरे बंद कर दिया. उन्होंने मुझे प्रताड़ित किया और घर से बाहर नहीं निकलने देते थे.
यूसुफ ने बताया कि पीड़ित महिलाएं अपने फ़िल्टर का चुनाव ख़ुद करती हैं, और इससे उनके अंदर चीज़ों को कुछ हद तक कंट्रोल करने का भाव भी आता है.
यूसुफ़ ने ये भी बताया कि पीड़िता फ़िल्टर के इस्तेमाल के बाद अपनी तस्वीरों को देख लेती थीं, इस तरह उन्हें यकीन भी हो जाता था कि मैं उनकी पहचान ज़ाहिर नहीं करूंगा.
यूसुफ़ ने ये भी बताया कि इसके ज़रिए भारत ही नहीं दुनिया भर में यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को अपनी बात कहने का मंच मिल सकता है.
(बीबीसी हिन्दी.कॉम से साभार)