पेशावर में पत्रकारों के लिए ट्रौमा सेंटर
सुरेन्द्र प्रताप सिंह |
इसमें कोई दो राय नहीं कि पत्रकारिता का काम बहुत जोखिम
भरा और मुश्किल होता है. बेशक इसमें ग्लैमर है, नाम है, प्रतिष्ठा है, पर
मुश्किलें भी कम नहीं हैं. दुनिया भर में पत्रकारों को कई बार बड़े मुश्किल हालात
में काम करना होता है. कई बार रिपोर्टिंग करते करते वे खुद अवसाद के दौर में चले
जाते हैं. 16 जून 1996 की बात
है जब आजतक के संस्थापक सम्पादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह आजतक पर खबरें पढ़ रहे थे.
उस दिन दिल्ली के उपहार सिनेमा पर अग्निकांड हुआ था. इतने भयावह दृश्य थे कि
सुरेन्द्र जी का संवेदनशील मन सहन नहीं कर पाया. दूसरे दिन सुबह उन्हें ब्रेन
हैमरेज हुआ और कुछ दिन बाद ही उनका निधन हो गया. कहने का मतलब यह है कि पत्रकारिता
के पेशे में आने वालों का जिगर मजबूत होना चाहिए.
बीबीसी की शुमैला जाफरी ने
खबर दी है कि इस तरह की परिस्थितियों से जूझने वाले पत्रकारों के लिए जर्मन
संस्थान ‘डीडब्ल्यू’ अकादमी
के वित्तीय सहयोग से पेशावर यूनिवर्सिटी
के पत्रकारिता विभाग ने एक ट्रौमा सेंटर स्थापित किया है. पेशावर के आर्मी पब्लिक
स्कूल पर हमले की कवरेज़ के बाद ही पेशावर में पत्रकारों को इस ट्रॉमा सेंटर में
मनोवैज्ञानिक मदद के लिए जाना पड़ा. पेशावर के ज़ीशान उन नौ पत्रकारों में से एक हैं
जो अब तक ट्रॉमा सेंटर से लाभान्वित हो चुके हैं.
पाकिस्तान दुनिया भर में पत्रकारों के लिए एक अत्यंत
ख़तरनाक देश माना जाता है. जहां उन्हें केवल जान के जोख़िम का ही सामना नहीं करना
पड़ता है बल्कि वे आर्थिक असुरक्षा के कारण भी गंभीर मानसिक दबाव का शिकार हैं. पत्रकारों
को उनकी मानसिक स्थिति की गंभीरता के हिसाब से रोजाना या साप्ताहिक सत्र के लिए
बुलाया जाता है. एक वेबसाइट 'साउथ एशिया टेररिज़्म' के अनुसार केवल पिछले साल पेशावर में 169 हमले और
विस्फोट हुए.
ट्रौमा सेंटर के प्रमुख अल्ताफ़ ख़ान कहते हैं,
"इस क्षेत्र में मानसिक दबाव को गंभीरता से नहीं लिया जाता है.
एक तो हम यह चाहते थे कि पत्रकारों में यह क्षमता पैदा हो कि वह किसी भी हिंसक
कार्रवाई की कवरेज पर जाने से पहले खुद को इसके लिए तैयार कर सकें." ट्रॉमा
सेंटर में इलाज के लिए पत्रकार सीधे संपर्क कर सकते हैं. हालांकि इस हवाले से
प्रेस क्लब भी ट्रॉमा सेंटर के साथ काम कर रहा है. परियोजना शुरू करने से पहले
आशंका थी कि शायद पत्रकार मनोचिकित्सा से जुड़े सामाजिक प्रभाव के कारण इस
परियोजना में कोई अधिक रुचि न लें लेकिन अल्ताफ़ ख़ान पत्रकारों प्रतिक्रिया से
संतुष्ट हैं.
वे कहते हैं, "मैं चाहूंगा
कि महिला पत्रकार भी हमारे पास आएं. एक तो क्षेत्र में महिलाओं पत्रकारों की
संख्या कम है. दूसरा मनोचिकित्सा करवाने को लेकर महिलाओं का सामाजिक व्यवहार भी
बहुत उत्साहजनक नहीं है." पेशावर के पत्रकार तो हर क्षण किसी हिंसक कार्रवाई
की चपेट में हैं. हालांकि पाकिस्तान के दूसरे शहरों में भी जान की सुरक्षा,
वित्तीय कठिनाइयां और काम के बेतहाशा बोझ तले दबे पत्रकारों की
स्थिति भी अधिक अलग नहीं है. (बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम से साभार)
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