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पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला

Thursday, January 14, 2016

मीडिया पर क्यों बढ़ते जा रहे हमले?

मृणाल पांडे हिन्दी की जानी-मानी लेखिका और पत्रकार हैं. वामा, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी और दैनिक हिंदुस्तान की सम्पादक रह चुकी मृणाल जी का यह लेख मौजूदा दौर की हिन्दी पत्रकारिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. नई दुनिया में प्रकाशित यह लेख हम यहाँ ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं: 
जैसे-जैसे पत्रकारिता का असर, तकनीकी दक्षता और पाठकीय दायरे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे इस धारणा को भी लगातार तूल दिया जा रहा है कि पत्रकारिता में गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी और महत्वपूर्णजनों के निजी जीवन में बेवजह ताकझांक के उदाहरण बढ़ रहे हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने मीडिया नमक-मिर्च लगाकर इस तरह की खबरों को छाप या दिखाकर राजकाज व सामाजिक समरसता दोनों को बाधित कर रहा है। इस पर साम-दाम-दंड की मदद से तुरंत रोक लगनी चाहिए। कुछ हद तक यह आक्षेप सही हैं, पर गए बरस पत्रकारिता पर लगाए गए या प्रस्तावित बंधनों और भारतीय पत्रकारों, लेखकों खासकर भारतीय भाषाओं में काम करने वाले बंधुओं पर हुए हमलों के मामले देखें तो साफ होता है कि स्वस्थ राज-समाज और पेशेवर पत्रकारिता के असली संकट दूसरे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार स्व. बी.जी. वर्गीज द्वारा स्थापित गैरसरकारी संगठन मीडिया फाउंडेशन के डिजिटल पत्र द हूट ने अभी गुजरे साल में अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े एक सर्वेक्षण की रपट जारी की है। रपट दिखाती है कि 2015 में लेखन या बयानों में सत्ता की ईमानदार आलोचना साहित्य से लेकर प्रिंट, सोशल या दृश्यगत मीडिया में जोखिम का सौदा बन रही है।
चूंकि 2015 के राष्ट्रीय अपराध प्रकोष्ठ के आंकड़े अभी जारी नहीं हुए, द हूट रपट में शोधकर्ताओं ने सार्वजनिक रपटों के हवाले से बताया है कि गए साल अभिव्यक्ति की आजादी के हनन पर सवाल उठाने और सांप्रदायिकता तथा अंधविश्वास के खिलाफ लिखने या फिल्में बनाने वालों व भ्रष्टाचार और सरकारी गड़बड़ियों के खिलाफ ठोस खबर देने वाले भाषाई पत्रकारों पर किस तरह मानहानि के आपराधिक मुकदमों और जानलेवा हमलों की एक बाढ़-सी आ गई।
प्रकाशित खबरों के अनुसार इनमें 8 पत्रकार तथा दो लेखकों की मौत हुई, 30 पर जानलेवा हमले और 3 की गिरफ्तारियां हुईं। मीडिया पर धमकाने के 27, देशद्रोह के 14, मानहानि के 48 मामले दायर किए गए। वहीं कई संस्थाओं की स्वायत्तता पर भी असर पड़ा। उदाहरण के लिए सरकार से मतभिन्न्ता के कारण सेंसर बोर्ड (जो अपने नए नाम नेशनल बोर्ड फॉर फिल्म सर्टिफिकेशन के अनुसार फिल्मों को सर्टिफिकेट देने वाली संस्था है, उनमें काटछांट करने वाली नहीं) की प्रमुख लीला सैमसन तथा 9 बोर्ड सदस्यों के इस्तीफे आए। फिर वहां पहलाज निहलानी की नियुक्ति हुई। उन्होंने जेम्स बांड की फिल्म पर कैंची चलवाकर नैतिकता की बहस को प्रतिगामी मोड़ दिया।
उच्च अध्ययन में भी हस्तक्षेप हुआ। जानी-मानी इतिहासविद् वेंडी डॉनिगर की हिंदू धर्म के खुलेपन की सराहना के साथ उस पर पठनीय और नए दृष्टिकोण से विचार करने वाली किताब को धमकियों तले प्रकाशक ने बाजार से हटा लिया। निर्भया कांड तथा बलात्कार मसले पर अपनी गंभीर नारीवादी डॉक्यूमेंट्री रिलीज करने की बीबीसी जैसी संस्था को न केवल अनुमति नहीं मिली, दबाव डलवाकर उसे यूट्यूब से भी हटवा दिया गया।
चेन्नई में एक लोकगायक को मुख्यमंत्री के खिलाफ गाने रचकर गाने के अभियोग तले जेल में डाल दिया गया तथा एकाधिक मीडिया संस्थानों को मुख्यमंत्री की आलोचना करने पर अदालती कार्रवाई के नोटिस मिले। गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह से नए विवादास्पद निदेशक की नियुक्ति का विरोध कर चुके छात्रों का पूरा प्रखंड ही हटा दिया गया और संसद को सूचना दी गई कि देश या सरकार की आलोचना के आरोप पर 844 पेज सोशल मीडिया से हटवाए गए हैं!
हिंदी पट्टी का रिकॉर्ड भी चिंताजनक है। मध्यप्रदेश में व्यापमं घोटाले की जांच में लगे चैनल के एक पत्रकार की संदिग्ध मौत हुई, तो जबलपुर में खदान माफिया का पीछा कर रहे पत्रकार संदीप कोठारी को अगवा कर जला दिया गया। उत्तर प्रदेश में कन्नौज, चंदौली, बरेली में हिंदी पत्रकारों की गोली मारकर हत्या कर दी गई और पीलीभीत में भूमाफिया के खिलाफ रपट लिखने वाले पत्रकार को मोटरसाइकिल से बांधकर घसीटा गया।
बिहार चुनावों के दौरान सीतामढ़ी के पत्रकार अजय विद्रोही की हत्या हुई। महाराष्ट्र सरकार ने अपने (अगस्त में) जारी सर्कुलर में कड़ी चेतावनी दी कि राज्य के राजनेताओं या अफसरों के खिलाफ आलोचनापरक लेखन करने वालों से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के कड़े प्रावधानों सहित निबटा जाए। दिल्ली दरबार तो कई नाटकीय घटनाक्रमों का गवाह रहा ही, मीडिया में दिल्ली क्रिकेट बोर्ड में भ्रष्टाचार का मामला उठाया गया तो पारा इस कदर गर्म हुआ कि केंद्रीय वित्त मंत्री ने राज्य के मुख्यमंत्री पर मानहानि का दावा दायर कर दिया, जिसमें मुख्यमंत्री की तरफ से एक पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री जेठमलानी बचाव पक्ष के वकील हैं।
खबरें, खासकर भाषाई मीडिया की खबरें रेडीमेड तो अवतरित होती नहीं, अपने समय, समाज और राजनैतिक पक्ष-प्रतिपक्ष तथा बाबूशाही के पेचीदा गलियारों में मौजूद कई कार्यशालाओं की ठोंका-पीटी से ही आकार पाती और आगे बढ़ती हैं। अगर कई पत्रकार आज्ञाकारिता की कसौटी पर रखे जाते हैं तो कुछ हर संस्थान में इसलिए भी साग्रह पोसे जाते हैं कि वे जरूरत आने पर एक हाजिरजवाब गुप्तचर तथा मूर्तिभंजक लेखक बनने का जोखिम खुशी-खुशी उठा लेते हैं।
सच तो यह है कि अखबार तथा चैनल प्राय: उनकी ही रपटों-खुलासों से अधिक जाने जाते हैं। इस बात का दर्दनाक अहसास भी सबको है कि आज का भारत वयस्क होता लेकिन नाजुक लोकतंत्र है, जहां रंग-बिरंगे पत्थर-पंख जेब में जमा करने वाले बच्चे की तरह हर दल की सत्तारूढ़ सरकारें अपने लिए नित नए अधिकार जमा करती रहती हैं। उनमें से अधिकतर का उपयोग आलोचकों का मुंह बंद रखने के लिए किया जाता है और दुरुपयोग की कथाओं को उजागर करने वाला मीडिया कश्मीर से कन्याकुमारी और पटना से पटियाला तक सारी सरकारों के निशाने पर आ जाता है। सुकरात ने कहा था कि एक संतुष्ट सुअर के बजाय मैं एक असंतुष्ट आदमी होना बेहतर मानता हूं।
आज के खबर अन्वेषी मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी संशयात्मा है, जो रूटीन पत्रकारीय गोष्ठी में जारी सरकारी तथ्यों, स्पष्टीकरणों या सेंसरशिप लगाने की सफाई से संतुष्ट नहीं होता। वह उनके परे जाकर अन्य स्रोतों से भी तथ्यों की पड़ताल अवश्य करना चाहता है। इस प्रश्नाकुलता और असंतोष का अभिनंदन हम नागरिक क्यों न करें, जिसने लगातार घोटालों, भ्रष्टाचार, माफिया गठजोड़ों का पर्दाफाश कर देश के बिगड़े वातावरण को प्रदूषण से मुक्त कराया और आज की सरकार को विपक्षी रोल से मुक्त कर सत्तारूढ़ होने का नायाब मौका दिलाया। सरकारपरस्त और संस्कारी मीडिया के कब्रस्तान से तो मीडिया का विविधतामय मछलीबाजार कहीं स्वस्थ है और उसकी यही जागरूक जिंदादिली अन्य पत्रकारों के लिए कारगर रक्षाकवच भी बनेगी।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
(साभार: नईदुनिया)

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