मुझे याद है कुछ साल पहले राजस्थान के किसी संग्रहालय में लगी एक पेंटिग, जिस में किसी इलाक़े के राजा विदेश से एक साइकिल ख़रीद कर लाये थे और इलाक़े की जनता को साइकिल चलाकर दिखा रहे थे !
तो कभी वह ज़माना था, जब राजा साइकिल चलाते हुए इतराते थे और आज वह ज़माना है कि साइकिल आम लोगों की सब से सस्ती सवारी है और देशों की बात तो अलग है, लेकिन हमारे यहां साइकिलया तो बच्चों की सवारी है या ग़रीब की!
सोचिए ज़रा कि साइकिल के आविष्कार ने कैसे दुनियाभर में लोगों की ज़िन्दगी बदली और साइकिल ही क्यों, सिलाई मशीन, छापा खाने या बिजली के बल्ब ने कैसे दुनिया के रहने-सहने, जीने और सोचने की तरीक़ा और सलीक़ा बदला!
तकनालॉजी सिर्फ़ पुरानी की जगह नयी मशीनों को ही नहीं बदलती, आदमी की ज़िन्दगी को भी बदलती है, समाज को बदलती है, मूल्यों और संस्कारों को भी बदलती है , यहां तक कि उसके खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, बोलने-चालने, सोने-जागने की आदतों तक को बदलती है, और जब यह सब बदलता है तो बाज़ार, अर्थव्यवस्था, देशों के कूटनीतिक सम्बन्ध और ख़ुद देशों का भविष्य भी बदलता है!
हो सकता है कि आज पत्रकारिता पढ़ रहे बहुत- से बच्चों को यह अविश्वसनीय लगे कि जब उनका जन्म हुआ होगा, उस समय देश में टीवी का प्राइम टाइम रात साढ़े नौ बजे ख़त्म हो जाता था और ज़्यादातर लोग रात दस बजे तक सोने चले जाते थे! आज टीवी का प्राइम टाइम कम से कम रात ग्यारह बजे तक तो है ही। काफ़ी घरों में तो टीवी बारह बजे रात तक भी चलता रहता है। यह बदलाव क्यों और कैसे आया? लोगों के सोने का समय आगे क्यों बढ़ गया? इस के पीछे आज बहुत- से और कारण गिनाये जा सकते हैं, लेकिन उस समय यानी आज से पन्द्रह-सत्रह बरस पहले सब से बड़ा कारण था टीवी, ख़ास कर प्राइवेट टीवी चैनलों का रोचक कंटेंट, जिन्हें देखने के लिए लोगों ने अपनी नींद आगे खिसकानी शुरू कर दी!
मुझे एक रोचक घटना याद आती है। 1995 में डीडी मेट्रो पर रात साढ़े नौ बजे 20 मिनट के बुलेटिन के तौर पर ‘आजतक’ की शुरुआत हुई। कार्यक्रम बड़ी तेज़ी से लोकप्रिय हुआ तो शायद साल भर बाद उसका प्रसारण समय साढ़े नौ से आधा घंटा आगे खिसकाकर रात दस बजे कर दिया गया। ‘आजतक’ में काम कर रहे हम सब बहुत चिन्तित हुए । लोग तो दस बजे सो जाते हैं। अब कौन देखेगा ‘आजतक?’ लेकिन हमें यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि ‘आजतक’ की दर्शक संख्या बिलकुल नहीं घटी। लोगों ने अपना सोने का समय आगे बढ़ा दिया!
हम अकसर ऐसे बदलावों से बहुत डरते हैं। मसलन, जब राजीव गांधी और सैम पित्रोदा की टीम देश में पीसीओ टेलीफ़ोन बूथों का नेटवर्क खड़ा कर रही थी और कम्प्यूटरों को लाने की बात कर रही थी, तो देश के सारे के सारे राजनीतिक दल न केवल उसका कड़ा विरोध कर रहे थे, बल्कि उनकी खिल्ली भी उड़ा रहे थे कि जिस देश की बहुत बड़ी आबादी इतनी ग़रीब है, वहां टेलीफ़ोन बूथ बना कर क्या हासिल होगा और कम्प्यूटर आने से तो सारे लोग बेरोज़गार ही हो जायेंगे। सोचिए अगर तब वह काम न हुआ होता तो आज हम कहां होते? और क्यों मार्क ज़ुकरबर्ग भारत के विशाल इंटरनेट बाज़ार को हथियाने के लिए ‘फ़्री-बेसिक’ के लिए इतना हाथ-पैर मार रहे होते?
टीवी ने लोगों के सोने का समय आगे बढ़ाया, और इंटरनेट ने जानकारी लेने-देने का तरीक़ा बदला, संवाद का तरीक़ा बदला, ‘इमोटीकॉन’ और ‘इमोजी’ और जाने क्या-क्या चीज़ें रोज़मर्रा की भाषा का हिस्सा बन गयीं, फ़ेसबुक जीवन का अनिवार्य अंग बन गया और ट्विटर पर ख़बरें ब्रेक की जाने लगीं। मोबाइल फ़ोन आये तो बात करने के लिए थे, लेकिन उसने हर एक को फ़ोटोग्राफ़र बना दिया। यही नहीं, एसएमएस ने हमारे देखते ही देखते पूरी की पूरी अंग्रेज़ी भाषा ही बदल दी! और शायद अगले कुछ ही सालों में मोबाइल फ़ोन क्रेडिट-डेबिट कार्ड को इतिहास की चीज़ बना देंगे और मुझे तो लगता है कि करेंसी नोट और सिक्कों का जीवन भी पांच-दस साल से ज़्यादा का नहीं है। सारा लेन-देन मोबाइल के ज़रिये ही होने लगेगा। जेब में पर्स रखने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी!
तकनालॉजी के बदलने की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि पता ही नहीं चलता कि कुछ नया कब आया और कब पुराना भी हो गया! इसीलिए समय अब पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ी से बदलता है। बदलाव की यही तेज़ रफ़्तार मीडिया में भी दिखती है और दिखेगी भी। आज हम डिजिटल दौर में हैं। मीडिया चाहे प्रिंट का हो, टीवी हो, रेडियो हो या फिर वेबसाइट, सबको वेब प्लेटफ़ार्म पर मौजूद होना ही है। जो अख़बार हैं, उन की वेबसाइट वीडियो कंटेंट दे ही रही है। कुछ अख़बारों के पोर्टलों पर तो उन के पत्रकार महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर ‘लाइव वीडियो विश्लेषण’ भी करने लगे हैं। उधर टीवी चैनलों की वेबसाइटों पर पत्रकारों, स्तम्भकारों के विश्लेषणात्मक आलेख छप रहे हैं। यानी अख़बार कुछ-कुछ टीवी बन रहे हैं और टीवी कुछ – कुछ अख़बार होने की कोशिश कर रहे हैं।
आप देखें, जो वेबसाइटें शुरू से न्यूज़ की रहीं, उस के बाद अख़बारों और न्यूज़ चैनलों की जो वेबसाइटें आयीं, उन तीनों में कोई ख़ास अन्तर नहीं दिखता। तीनों में टेक्सट में ख़बरें हैं, घटनाओं की वीडियो कवरेज है, कहीं-कहीं वीडियो टिप्पणियां भी हैं, ब्लॉग में सम्पादकीय और स्तम्भकारों के लेख हैं।
तो अभी हम जो न्यूज़ मीडिया के तीन प्रमुख प्लेटफ़ार्म प्रिंट, टीवी और वेब देख रहे हैं, क्या भविष्य में वह सब मिलकर एक हो जायेंगे? और अगर ऐसा होगा तो कब तक? क्या अख़बार ख़त्म हो जायेंगे? यह सवाल तो तभी से पूछा जा रहा है, जब से टीवी पर ख़बरों की शुरुआत हुई। लेकिन अख़बार कभी ख़त्म नहीं हुए, दुनिया में कहीं भी नहीं। पत्रिकाएं ज़रूर सिमटती और बन्द होती गयीं। इंटरनेट के आने के बाद यह सवाल फिर उठा। और जैसे -जैसे दुनिया के जिन देशों में तेज़ स्पीड के साथ मोबाइल पर सस्ता इंटरनेट उपलब्ध होने लगा, वहां अख़बारों के पाठक घटने लगे, ख़ास तौर पर युवा पाठक तो इंटरनेट पर ही ख़बरें पढ़ने लगे। भारत में ज़रूर मामला अलग है। अभी-अभी जारी हुई 59वीं वार्षिक प्रेस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में प्रिंट प्रकाशनों ने 5.8% की बढ़त दर्ज की है। यह इसलिए है कि देश में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या तो तेज़ी से बढ़ी है, लेकिन इंटरनेट और स्मार्टफ़ोन का फैलाव अभी उतनी तेज़ी से नहीं हुआ है। इसलिए बहुत- से इलाक़ों में ख़बरों और समाचार विश्लेषण के लिए लोग अख़बारों और टीवी पर ही निर्भर हैं।
दूसरी बात यह कि बड़े शहरों में भी मोबाइल सेवा की हालत ख़स्ता है। कॉल ड्रॉप आम बात है, मोबाइल पर इंटरनेट इतना धीमा है कि कई बार तो ईमेल तक डाउनलोड करना या भेजना मुश्किल हो जाता है। निजी लैपटॉप, टैबलेट और डेस्कटॉप बहुत कम ही लोगों के पास हैं। फिर अभी मोबाइल कम्पनियों के ‘डाटापैक’ बहुत महंगे पड़ते हैं। इसलिए ज़्यादातर लोग इंटरनेट का इस्तेमाल सोशल मीडिया, गूगल सर्च और ईमेल के लिए ही करते हैं, ख़बरों के लिए नहीं।
लेकिन यह स्थिति ज़्यादा दिन तक नहीं रहने वाली है। ज़्यादा दिन यही हाल रहा हो तो विकास की रफ़्तार में हम दुनिया में बहुत पिछड़ जायेंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ज़ोर भी ‘डिजिटल इंडिया’ पर है, इसलिए उम्मीद करनी चाहिए कि 2016 में सरकार इस पर ख़ास ध्यान देगी।
सस्ते इंटरनेट और सस्ते स्मार्टफ़ोन के विस्तार से तीन बड़ी बातें होंगी। पहली यह कि कम से कम जहां तक न्यूज़ मीडिया की बात है, अख़बार, टीवी और वेब मिलकर एक हो जायेंगे। इंटरनेट कनेक्शन अगर तेज़ और सस्ता मिलने लगे तो मोबाइल पर ख़बरें पढ़ने-देखने वालों की संख्या तेज़ी से बढ़ेगी और ख़बरें देने का तौर-तरीक़ा बदलेगा। ख़बरों को इस अन्दाज़ में देना पड़ेगा कि मोबाइल पर देखना सुविधाजनक हो। वीडियो को शूट करने और ग्राफ़िक बनाने तक के तरीक़े बदलने पड़ेंगे। सब को अपने पोर्टलों की डिज़ाइन और फ़ॉर्मेट भी मोबाइल के लिए बदलना ही पड़ेगा। तो अब मोबाइल न्यूज़ के लिए तैयार हो जाइए!
दूसरी बात यह होगी कि बहुत- से छोटे और स्वतंत्र न्यूज़ पोर्टल अस्तित्व में आयेंगे। वैसे अभी ही ऐसे कई पोर्टल चल रहे हैं, लेकिन उनकी भूमिका अभी प्रभावशाली नहीं है। उनकी संख्या, भूमिका और हस्तक्षेप आगे चलकर बहुत बढ़ेगा क्योंकि बहुत कम लागत से उन्हें शुरू किया जा सकेगा। बड़ी मीडिया कम्पनियों के एकाधिकार को इससे कड़ी चुनौती मिलेगी। यह चुनौती तो सोशल मीडिया और कई छोटे पोर्टलों के ज़रिये अभी से ही मिलने लगी है, आगे चलकर यह और बढ़ेगी।
तीसरी बात यह कि नयी तकनालॉजी ‘इंटरएक्टिविटी’ काफ़ी बढ़ायेगी और दर्शक-पाठक की भागीदारी अपने न्यूज़ मीडिया में काफी बढ़ेगी। यह अच्छा भी होगा और ख़राब भी। अच्छा इसलिए कि न्यूज़ मीडिया अपने दर्शकों-पाठकों की सतत ‘स्क्रूटनी’ में रहेगा और उसकी ग़लतियों पर तुरन्त उसे ‘फ़ीडबैक’ मिल जायेगा और ख़राब इसलिए किसी भावनात्मक मुद्दे पर मीडिया ‘जनदबाव’ के अनुसार अपनी कवरेज की दिशा तय करने लग सकता है। सोशल मीडिया के कारण यह अब भी हो रहा है, जैसा कि हमने अभी हाल में किशोर न्याय बिल पर देखा।
ज़ाहिर-सी बात है कि यह सब 2016 में नहीं होगा, लेकिन इस दिशा में बढ़ने की शुरुआत तो एकाध साल पहले से हो ही चुकी है। अगले पांच सालों में हम सब के सामने एक बिलकुल नया मीडिया होगा, जो मोबाइल पर पढ़ा, देखा और सुना जायेगा, इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं। और तब मोबाइल ही शायद मीडिया के उपभोग का सबसे बड़ा प्लेटफ़ार्म होगा क्योंकि तब तक मोबाइल एक ऐसी ‘ऑल इन वन डिवाइस’ में बदल चुका होगा, जो अलादीन के चिराग़ की तरह हर काम करेगा। अख़बार और टीवी शायद तब भी रहें, लेकिन फ़ुर्सत के समय के लिए!
तो नये पत्रकारों, मीडिया संस्थानों और मीडिया की पढ़ाई करा रहे संस्थानों को अपने आप को नये मोबाइल मीडिया के लिए तैयार करना चाहिए।
raagdesh.com से साभार
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