School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला
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Monday, May 30, 2016

पत्रकारों का रसूख बढ़ा, पर सम्मान कम हुआ

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष/ प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार  ।।
pramod_joshiहिंदी अखबार के 190 साल पूरे हो गए। हर साल हम हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाकर रस्म अदा करते हैं। हमें पता है कि कानपुर से कोलकाता गए किन्हीं पं. जुगल किशोर शुक्ल ने ‘उदंत मार्तंड’ अखबार शुरू किया था। यह अखबार बंद क्यों हुआ, उसके बाद के अखबार किस तरह निकले, इन अखबारों की और पत्रकारों की भूमिका जीवन और समाज में क्या थी, इस बातों पर अध्ययन नहीं हुए। आजादी के पहले और आजादी के बाद उनकी भूमिका में क्या बदलाव आया, इस पर भी रोशनी नहीं पड़ी। आज ऐसे शोधों की जरूरत है, क्योंकि पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण दौर खत्म होने के बाद एक और महत्वपूर्ण दौर शुरू हो रहा है।

अखबारों से अवकाश लेने के कुछ साल पहले और उसके बाद हुए अनुभवों ने मेरी कुछ अवधारणाओं को बुनियादी तौर पर बदला है। सत्तर का दशक शुरू होते वक्त जब मैंने इसमें प्रवेश किया था, तब मन रूमानियत से भरा था। जेब में पैसा नहीं था, पर लगता था कि दुनिया की नब्ज पर मेरा हाथ है। रात के दो बजे साइकिल उठाकर घर जाते समय ऐसा लगता था कि जो जानकारी मुझे है वह हरेक के पास नहीं है। हम दुनिया को शिखर पर बैठकर देख रहे थे। हमसे जो भी मिलता उसे जब पता लगता कि मैं पत्रकार हूं तो वह प्रशंसा-भाव से देखता था। उस दौर में पत्रकार होते ही काफी कम थे। बहुत कम शहरों से अखबार निकलते थे। टीवी था ही नहीं। सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने के पहले या इंटरवल में फिल्म्स डिवीजन के समाचार वृत्त दिखाए जाते थे, जिनमें महीनों पुरानी घटनाओं की कवरेज होती थी। विजुअल मीडिया का मतलब तब कुछ नहीं था।
पर हम शहरों तक सीमित थे। कस्बों में कुछ अंशकालिक संवाददाता होते थे, जो अक्सर शहर के प्रतिष्ठित वकील, अध्यापक, समाज-सेवी होते थे। आज उनकी जगह पूर्णकालिक लोग आ गए हैं। रॉबिन जेफ्री की किताब ‘इंडियाज न्यूजपेपर रिवॉल्यूशन’ सन 2000 में प्रकाशित हुई थी। इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर आकर किसी ने संजीदगी के साथ भारतीय भाषाओं के अखबारों की खैर-खबर ली। पिछले दो दशक में हिंदी पत्रकारिता ने काफी तेजी से कदम बढ़ाए। मीडिया हाउसों की सम्पदा बढ़ी और पत्रकारों का रसूख। इंडियन एक्सप्रेस की पावरलिस्ट में मीडिया से जुड़े नाम कुछ साल पहले आने लगे थे। शुरुआती नाम मालिकों के थे। फिर एंकरों के नाम जुड़े। अब हिंदी एंकरों को भी जगह मिलने लगी है। पर मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि पत्रकारों को लेकर जिस ‘प्रशंसा-भाव’ का जिक्र मैंने पहले किया है, वह कम होने लगा है।
रॉबिन जेफ्री ने किताब की शुरुआत करते हुए इस बात की ओर इशारा किया कि अखबारी क्रांति ने एक नए किस्म के लोकतंत्र को जन्म दिया है। उन्होंने 1993 में मद्रास एक्सप्रेस से आंध्र प्रदेश की अपनी एक यात्रा का जिक्र किया है। उनका एक सहयात्री एक पुलिस इंस्पेक्टर था। बातों-बातों में अखबारों की जिक्र हुआ तो पुलिस वाले ने कहा, अखबारों ने हमारा काम मुश्किल कर दिया है। पहले गांव में पुलिस जाती थी तो गांव वाले डरते थे। पर अब नहीं डरते। बीस साल पहले वह बात नहीं थी। तब सबसे नजदीकी तेलुगु अखबार तकरीबन 300 किलोमीटर दूर विजयवाड़ा से आता था। सन 1973 में ईनाडु का जन्म भी नहीं हुआ था, पर 1993 में उस इंस्पेक्टर के हल्के में तिरुपति और अनंतपुर से अखबार के संस्करण निकलते थे।
सेवंती नायनन ने ‘हेडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैंड’ में ग्रामीण क्षेत्रों के संवाद संकलन का रोचक वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि ग्रामीण क्षेत्र में अखबार से जुड़े कई काम एक जगह पर जुड़ गए। सेल्स, विज्ञापन, समाचार संकलन और रिसर्च सब कोई एक व्यक्ति या परिवार कर रहा है। खबर लिखी नहीं एकत्र की जा रही है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के कांकेर-जगदलपुर हाइवे पर पड़ने वाले गांव बानपुरी की दुकान में लगे साइनबोर्ड का जिक्र किया है, जिसमें लिखा है-‘आइए अपनी खबरें यहां जमा कराइए।’ यह विवरण करीब पन्द्रह साल पहले का है। आज की स्थितियां और ज्यादा बदल चुकी हैं। कवरेज में टीवी का हिस्सा बढ़ा है। और उसमें कुछ नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। पिछले साल मुझे आगरा में एक समारोह में जाने का मौका मिला, जहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े ऐसे पत्रकार मिले, जिन्हें उनका संस्थान वेतन नहीं देता, बल्कि कमाकर लाने का वचन लेता है और बदले में कमीशन देता है। इनसे जुड़े पत्रकार किसी संस्थान से पत्रकारिता की डिग्री लेकर आते हैं। वे अफसोस के साथ पूछते हैं कि हमारे पास विकल्प क्या है?
खबरों के कारोबार की कहानियां बड़ी रोचक और अंतर्विरोधों से भरी हैं। इनके साथ लोग अलग-अलग वजह से जुड़े हैं। इनमें ऐसे लोग हैं, जो तपस्या की तरह कष्ट सहते हुए खबरों को एकत्र करके भेजते हैं। नक्सली खौफ, सामंतों की नाराजगी, और पुलिस की हिकारत जैसी विपरीत परिस्थितियों का सामना करके खबरें भेजने वाले पत्रकार हैं। और ऐसे भी हैं, जो टैक्सी चलाते हैं, रास्ते में कोई सरकारी मुलाजिम परेशान न करे इसलिए प्रेस का कार्ड जेब में रखते हैं। ऐसे भी हैं जो पत्रकारिता की आड़ में वसूली, ब्लैकमेलिंग और दूसरे अपराधों को चलाते हैं। अखबारों ने गांवों तक प्रवेश करके लोगों को ताकतवर बनाया। पाठकों के साथ पत्रकार भी ताकतवर बने। पत्रकारों का रसूख बढ़ा है, पर सम्मान कम हुआ है। वह ‘प्रशंसा-भाव’ बढ़ने के बजाय कम क्यों हुआ?
रॉबिन जेफ्री की ट्रेन यात्रा के 23 साल बाद आज कहानी और भी बदली है। मोरल पुलिसिंग, खाप पंचायतों, जातीय भेदभावों और साम्प्रदायिक विद्वेष के किस्से बदस्तूर हैं। इनकी प्रतिरोधी ताकतें भी खड़ी हुई हैं, जो नई पत्रकारिता की देन हैं। लोगों ने मीडिया की ताकत को पहचाना और अपनी ताकत को भी। मीडिया और राजनीति के लिहाज से पिछले सात साल गर्द-गुबार से भरे गुजरे हैं। इस दौरान तमाम नए चैनल खुले और बंद हुए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका को लेकर कई तरह के सवाल खड़े हुए। खासतौर से अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान यह बात भी कही गई कि भ्रष्ट-व्यवस्था में मीडिया की भूमिका भी है। लोग मीडिया से उम्मीद करते हैं कि वह जनता की ओर से व्यवस्था से लड़ेगा। पर मीडिया व्यवस्था का हिस्सा है और कारोबार भी।
पत्रकारिता औद्योगिक क्रांति की देन है। मार्शल मैकलुहान इसे पहला व्यावसायिक औद्योगिक उत्पाद मानते हैं। अखबार नवीसी के वजूद में आने की दूसरी वजह है लोकतंत्र। वह भी औद्योगिक क्रांति की देन है। यह औद्योगिक क्रांति अगली छलांग भरने जा रही है, वह भी हमारे इलाके में। पर हम इसके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों को पढ़ नहीं पा रहे हैं। अखबार हमारे पाठक का विश्वकोश है। वह पाठक जमीन से आसमान तक की बातों को जानना चाहता है, हम उसे फैशन परेड की तस्वीरें, पार्टियां, मस्ती वगैरह पेश कर रहे हैं। वह भी उसे चाहिए, पर उससे ज्यादा की उसे जरूरत है। एक जमाना था जब पाठकों के लिए अखबार में छपा पत्थर की लकीर होता था। पाठक का गहरा भरोसा उस पर था। भरोसे का टूटना खराब खबर है। पाठक, दर्शक या श्रोता का इतिहास-बोध, सांस्कृतिक समझ और जीवन दर्शन गढ़ने में हमारी भूमिका है। यह भूमिका जारी रहेगी, क्योंकि लोकतंत्र खत्म नहीं होगा।  

Thursday, January 14, 2016

मीडिया पर क्यों बढ़ते जा रहे हमले?

मृणाल पांडे हिन्दी की जानी-मानी लेखिका और पत्रकार हैं. वामा, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी और दैनिक हिंदुस्तान की सम्पादक रह चुकी मृणाल जी का यह लेख मौजूदा दौर की हिन्दी पत्रकारिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. नई दुनिया में प्रकाशित यह लेख हम यहाँ ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं: 
जैसे-जैसे पत्रकारिता का असर, तकनीकी दक्षता और पाठकीय दायरे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे इस धारणा को भी लगातार तूल दिया जा रहा है कि पत्रकारिता में गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी और महत्वपूर्णजनों के निजी जीवन में बेवजह ताकझांक के उदाहरण बढ़ रहे हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने मीडिया नमक-मिर्च लगाकर इस तरह की खबरों को छाप या दिखाकर राजकाज व सामाजिक समरसता दोनों को बाधित कर रहा है। इस पर साम-दाम-दंड की मदद से तुरंत रोक लगनी चाहिए। कुछ हद तक यह आक्षेप सही हैं, पर गए बरस पत्रकारिता पर लगाए गए या प्रस्तावित बंधनों और भारतीय पत्रकारों, लेखकों खासकर भारतीय भाषाओं में काम करने वाले बंधुओं पर हुए हमलों के मामले देखें तो साफ होता है कि स्वस्थ राज-समाज और पेशेवर पत्रकारिता के असली संकट दूसरे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार स्व. बी.जी. वर्गीज द्वारा स्थापित गैरसरकारी संगठन मीडिया फाउंडेशन के डिजिटल पत्र द हूट ने अभी गुजरे साल में अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े एक सर्वेक्षण की रपट जारी की है। रपट दिखाती है कि 2015 में लेखन या बयानों में सत्ता की ईमानदार आलोचना साहित्य से लेकर प्रिंट, सोशल या दृश्यगत मीडिया में जोखिम का सौदा बन रही है।
चूंकि 2015 के राष्ट्रीय अपराध प्रकोष्ठ के आंकड़े अभी जारी नहीं हुए, द हूट रपट में शोधकर्ताओं ने सार्वजनिक रपटों के हवाले से बताया है कि गए साल अभिव्यक्ति की आजादी के हनन पर सवाल उठाने और सांप्रदायिकता तथा अंधविश्वास के खिलाफ लिखने या फिल्में बनाने वालों व भ्रष्टाचार और सरकारी गड़बड़ियों के खिलाफ ठोस खबर देने वाले भाषाई पत्रकारों पर किस तरह मानहानि के आपराधिक मुकदमों और जानलेवा हमलों की एक बाढ़-सी आ गई।
प्रकाशित खबरों के अनुसार इनमें 8 पत्रकार तथा दो लेखकों की मौत हुई, 30 पर जानलेवा हमले और 3 की गिरफ्तारियां हुईं। मीडिया पर धमकाने के 27, देशद्रोह के 14, मानहानि के 48 मामले दायर किए गए। वहीं कई संस्थाओं की स्वायत्तता पर भी असर पड़ा। उदाहरण के लिए सरकार से मतभिन्न्ता के कारण सेंसर बोर्ड (जो अपने नए नाम नेशनल बोर्ड फॉर फिल्म सर्टिफिकेशन के अनुसार फिल्मों को सर्टिफिकेट देने वाली संस्था है, उनमें काटछांट करने वाली नहीं) की प्रमुख लीला सैमसन तथा 9 बोर्ड सदस्यों के इस्तीफे आए। फिर वहां पहलाज निहलानी की नियुक्ति हुई। उन्होंने जेम्स बांड की फिल्म पर कैंची चलवाकर नैतिकता की बहस को प्रतिगामी मोड़ दिया।
उच्च अध्ययन में भी हस्तक्षेप हुआ। जानी-मानी इतिहासविद् वेंडी डॉनिगर की हिंदू धर्म के खुलेपन की सराहना के साथ उस पर पठनीय और नए दृष्टिकोण से विचार करने वाली किताब को धमकियों तले प्रकाशक ने बाजार से हटा लिया। निर्भया कांड तथा बलात्कार मसले पर अपनी गंभीर नारीवादी डॉक्यूमेंट्री रिलीज करने की बीबीसी जैसी संस्था को न केवल अनुमति नहीं मिली, दबाव डलवाकर उसे यूट्यूब से भी हटवा दिया गया।
चेन्नई में एक लोकगायक को मुख्यमंत्री के खिलाफ गाने रचकर गाने के अभियोग तले जेल में डाल दिया गया तथा एकाधिक मीडिया संस्थानों को मुख्यमंत्री की आलोचना करने पर अदालती कार्रवाई के नोटिस मिले। गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह से नए विवादास्पद निदेशक की नियुक्ति का विरोध कर चुके छात्रों का पूरा प्रखंड ही हटा दिया गया और संसद को सूचना दी गई कि देश या सरकार की आलोचना के आरोप पर 844 पेज सोशल मीडिया से हटवाए गए हैं!
हिंदी पट्टी का रिकॉर्ड भी चिंताजनक है। मध्यप्रदेश में व्यापमं घोटाले की जांच में लगे चैनल के एक पत्रकार की संदिग्ध मौत हुई, तो जबलपुर में खदान माफिया का पीछा कर रहे पत्रकार संदीप कोठारी को अगवा कर जला दिया गया। उत्तर प्रदेश में कन्नौज, चंदौली, बरेली में हिंदी पत्रकारों की गोली मारकर हत्या कर दी गई और पीलीभीत में भूमाफिया के खिलाफ रपट लिखने वाले पत्रकार को मोटरसाइकिल से बांधकर घसीटा गया।
बिहार चुनावों के दौरान सीतामढ़ी के पत्रकार अजय विद्रोही की हत्या हुई। महाराष्ट्र सरकार ने अपने (अगस्त में) जारी सर्कुलर में कड़ी चेतावनी दी कि राज्य के राजनेताओं या अफसरों के खिलाफ आलोचनापरक लेखन करने वालों से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के कड़े प्रावधानों सहित निबटा जाए। दिल्ली दरबार तो कई नाटकीय घटनाक्रमों का गवाह रहा ही, मीडिया में दिल्ली क्रिकेट बोर्ड में भ्रष्टाचार का मामला उठाया गया तो पारा इस कदर गर्म हुआ कि केंद्रीय वित्त मंत्री ने राज्य के मुख्यमंत्री पर मानहानि का दावा दायर कर दिया, जिसमें मुख्यमंत्री की तरफ से एक पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री जेठमलानी बचाव पक्ष के वकील हैं।
खबरें, खासकर भाषाई मीडिया की खबरें रेडीमेड तो अवतरित होती नहीं, अपने समय, समाज और राजनैतिक पक्ष-प्रतिपक्ष तथा बाबूशाही के पेचीदा गलियारों में मौजूद कई कार्यशालाओं की ठोंका-पीटी से ही आकार पाती और आगे बढ़ती हैं। अगर कई पत्रकार आज्ञाकारिता की कसौटी पर रखे जाते हैं तो कुछ हर संस्थान में इसलिए भी साग्रह पोसे जाते हैं कि वे जरूरत आने पर एक हाजिरजवाब गुप्तचर तथा मूर्तिभंजक लेखक बनने का जोखिम खुशी-खुशी उठा लेते हैं।
सच तो यह है कि अखबार तथा चैनल प्राय: उनकी ही रपटों-खुलासों से अधिक जाने जाते हैं। इस बात का दर्दनाक अहसास भी सबको है कि आज का भारत वयस्क होता लेकिन नाजुक लोकतंत्र है, जहां रंग-बिरंगे पत्थर-पंख जेब में जमा करने वाले बच्चे की तरह हर दल की सत्तारूढ़ सरकारें अपने लिए नित नए अधिकार जमा करती रहती हैं। उनमें से अधिकतर का उपयोग आलोचकों का मुंह बंद रखने के लिए किया जाता है और दुरुपयोग की कथाओं को उजागर करने वाला मीडिया कश्मीर से कन्याकुमारी और पटना से पटियाला तक सारी सरकारों के निशाने पर आ जाता है। सुकरात ने कहा था कि एक संतुष्ट सुअर के बजाय मैं एक असंतुष्ट आदमी होना बेहतर मानता हूं।
आज के खबर अन्वेषी मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी संशयात्मा है, जो रूटीन पत्रकारीय गोष्ठी में जारी सरकारी तथ्यों, स्पष्टीकरणों या सेंसरशिप लगाने की सफाई से संतुष्ट नहीं होता। वह उनके परे जाकर अन्य स्रोतों से भी तथ्यों की पड़ताल अवश्य करना चाहता है। इस प्रश्नाकुलता और असंतोष का अभिनंदन हम नागरिक क्यों न करें, जिसने लगातार घोटालों, भ्रष्टाचार, माफिया गठजोड़ों का पर्दाफाश कर देश के बिगड़े वातावरण को प्रदूषण से मुक्त कराया और आज की सरकार को विपक्षी रोल से मुक्त कर सत्तारूढ़ होने का नायाब मौका दिलाया। सरकारपरस्त और संस्कारी मीडिया के कब्रस्तान से तो मीडिया का विविधतामय मछलीबाजार कहीं स्वस्थ है और उसकी यही जागरूक जिंदादिली अन्य पत्रकारों के लिए कारगर रक्षाकवच भी बनेगी।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
(साभार: नईदुनिया)

Sunday, August 2, 2015

धर्मयुग का समय : पत्रकारिता से जुड़ी यादें, कुछ कड़वी, कुछ मीठी

संस्मरण/ मनमोहन सरल 



यह महज संयोग ही था कि मैं पत्रकार बना। बचपन में चाह थी कि मैं डॉक्‍टर कहलाऊँ। यहाँ तक कि कुछ बड़ा होने पर मैंने घर के दरवाजे पर चाक से लिख भी दिया था 'डॉ. मनमोहन खन्‍ना, एम.बी.बी.एस.'। हाँ, तब मैं अपना पारिवारिक सरनेम ही इस्‍तेमाल करता था। 'सरल' उपनाम तो बहुत बाद में आया और उसकी भी एक कहानी है, जिसका जिक्र बाद में कर पाऊँगा। मेरा जन्‍म एक नौकरीपेशा परिवार में हुआ था। दादा सरकारी महकमे में ट्रेजरार थे। दादी तो जब बाबूजी नौ वर्ष के थे, उन्‍हें छोड़कर भगवान को प्‍यारी हो गई थीं। दादा के छोटे भाई घर-बार छोड़ कर गंगा किनारे 'विदुर कुटी' में रहने लगे थे, बल्कि बिजनौर की उस प्रसिद्ध 'विदुर कुटी' का पुनरुद्धार भी उनके प्रयासों से हो चुका था। चाचा लोग मस्‍तमौला थे, खासकर छोटे चाचा तो कबूतर उड़ाने और घुड़सवारी के शौकीन थे। अलबत्‍ता बाबूजी बहुत मेहनती थे और अपने छोटे भाइयों को सँभालने में भी लगे रहते थे। पर किसी का दूर-दूर तक पत्रकारिता अथवा साहित्‍य से कोई रिश्ता न था।
मेरा जन्‍म नजीबाबाद में हुआ था, किंतु बचपन बिजनौर वाले घर में ही बीता था। बाबूजी महकमा बंदोबस्त में थे सो उनका ट्रांस्‍फर होता रहता था। उनके तबादले पर हम लोग बरेली चले गए, फिर आजमगढ। कई साल माँ ही हमें घर पर पढाती रहीं और इस बीच मैंने उनसे खूब सारी कहानियाँ सुनीं - धार्मिक भी, पौराणिक भी और तिलिस्‍मी भी। माँ की हस्‍तलिपि बहुत खूबसूरत थी - मोती जैसे अक्षर। मुझे याद है लकड़ी की तख्‍ती को खूब घोट कर चमकाना और उस पर खड़िया से सरकंडे की कलम से लिखना और सलेट पर गिनती और पहाड़े सीखना। जब मुझे खूब पढ़ना आ गया तो 'चंद्रकांता संतति' वगैरह सब पढ़ डालीं। और भी बहुत कुछ पढ़ा, जिसका ब्‍योरा अब याद नहीं।
स्‍कूल सीधे चौथी कक्षा में गया। स्‍कूल घर से काफी दूर था। पैदल जाता था - उम्र रही होगी कोई 6 साल। रास्‍ते में कचहरी पडती थी। उसके बाहर अक्‍सर लाशें पड़ी मिलती थीं, जो गाँव वालों की होती थीं, जिन्‍हें किसी-न-किसी आपसी झगड़े या विवाद में दूसरे पक्ष के लोगों ने मार दिया होता था। वे शायद तस्‍दीक या प्रमाण के लिए लाई जाती होंगी, यह मुझे पता न था। उन्‍हें देखकर मन में बहुत से सवाल उठते थे कि कोई किसी दूसरे को जान से मार क्‍यों देता है और कैसे मार देता है। क्‍या आदमी का जीवन इतना क्षणभंगुर होता है? और भी बहुत कुछ मन में आता था पर मेरा बाल मन इन सवालों के जवाब तलाशने के न तो योग्‍य था और न मैंने उन्‍हें जानने की कोशिश की। पर वह सब देख कर अक्‍सर बेहद दुखी मन और भारी कदमों से स्‍कूल जा पाता था।
एक दिन सकूल में छुट्टी घोषित हो गई। पता चला कि किसी बहुत बड़े कवि-चित्रकार की मृत्‍यु हो गई है, जिन्हें देश में सबसे पहला नोबेल पुरस्‍कार मिला था। अगले दिन जब टीचर ने उनके बारे में बताया तो पता चला कि वे कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर थे और यह भी कि नोबेल पुरस्‍कार क्‍या होता है।
इसके बाद पता चला कि दूसरा विश्‍व युद्ध शुरू हो गया है। क्‍यों होते हैं युद्ध और इनसे क्‍या हासिल होता है? कौन लड़ता है और उन्‍हें क्‍या मिलता है - ऐसे कितने ही सवाल उठे पर उनका समाधान सोचना किसे आता था? फिर एक दिन बाबूजी हड़बड़ाए हुए आए और कहा हम सब बिजनौर जाएँगे। जापानी फौज बर्मा तक आ पहुँची है और कभी भी कलकत्‍ता पर बम गिरा सकती है। कलकत्‍ता से आजमगढ़ दूर ही कितना है? यों भी यहाँ ब्‍लैक आउट तो होने ही लगा था और साइरन बजते ही हमें सकूल से कई बार भगा दिया गया था।
हम सब फिर से बिजनौर आ गए। कुछ दिन बाद स्‍कूल में बड़ा उत्‍सव हुआ। तमाम शहर में खूब मिठाइयाँ बाँटी गईं। सई साँझ से आसमान आतिशबाजियों से भर गया। हम बच्‍चों के तो पौ बारह हो गए। तालियाँ बजा-बजा कर तमाशा देखा। बाद में पता लगा कि विश्‍व युद्ध में इंग्‍लैंड-अमेरिका जीत गए हैं और यह सारा आयोजन जीत का जश्‍न मनाने का है।
याद तो अपने देश की आजादी मिलने वाले दिन की रौनक की भी थी। तमाम दिन 16 अगस्‍त को हम दोस्‍त शहर घूम घूम कर जायजा लेते रहे थे। जश्‍न का वह आलम नहीं दिखा, जो विश्‍वयुद्ध की समाप्ति पर बिजनौर ने पाया था। सबब शायद यह रहा होगा कि वह खर्च अँग्रेज बहादुर के खजाने से हुआ होगा। पर यहाँ भी पूरे मेरठ में बंदनवार लगे थे और तिरंगे झंडे और झंडियाँ लगी थीं। तब उम्र थी 13 साल से भी कम। तब तक मेरी राजनीतिक समझ विकसित न हो पाई थी, इसलिए कारण की समीक्षा तो नहीं कर पाता था, किंतु इतना जरूर समझा था कि जनता में खुशी और गम का मिला-जुला भाव था। स्‍वतंत्र होने के साथ-साथ देश तीन हिस्‍सों में तकसीम जो हो गया था। इसका मलाल कम न था।
हाई स्कूल साढ़े 13 साल की उम्र में ही पास कर लिया था और कॉलेज जाना शुरू हो चुका था। तब हम शाहपीर वाले घर में आ गए थे। कॉलेज पहुँच कर तुकबंदी वाली कविताओं ने रोमानी गीतों का रूप ले लिया था। हालाँकि किसी वास्‍तविक या काल्‍पनिक प्रेमिका का दूर-दूर तक पता न था। मुझे हमेशा लगता है कि ज्‍यादातर प्रेम-विषयक कविताएँ किसी अनजानी और अनुपस्थिति प्रेमिका को लक्ष्‍य करके ही लिखी जाती रही हैं।
गद्य और कहानियाँ लिखने का आरंभ भी महज एक इत्तिहाफ ही था। उस दिन मन कुछ अनमना था। बैठक में एक कलैंडर टँगा था, जिस पर कश्‍मीर का दृश्‍य था। उसे देख कर फिल्‍म 'बरसात' याद आने लगी और उससे प्रेरित होकर एक कहानी लिख मारी। अचरज यह भी हुआ कि वह छप भी गई - शायद 'मस्‍ताना जोगी' या 'प्रसाद' में। फिर और भी लिखीं और विषय ढूँढ़कर लेख भी लिखे। इस तरह लिखने का सिलसिला शुरू हो गया और लिखे हुए के छपने का भी।
छोटे भाई को ढोर डॉक्‍टर बनने के लिए मथुरा भेज दिया गया। मेरा नंबर नहीं आया। यों भी बाबूजी की आर्थिक स्थिति पहले जैसी नहीं रही थी और उनका स्‍थानांतरण सहारनपुर कर दिया गया था। दो जगहों पर रहने से खर्च भी बढ़ गया था। मैंने नौकरी करने की पेशकश शुरू कर दी। पर यह आसान न था। डिफेंस एकाउंट के दफ्तर में लोअर डिवीजन क्‍लर्क की नियुक्ति मिली पर पोस्टिंग नैनी में की गई। जाने का सवाल ही नहीं उठता था। बहुत हाथ पैर मारे। दो बार मिलिट्री बोर्ड के इंटरव्‍यू दिए। लिखित और इंटेलिजेंस टेस्‍ट में अच्‍छा स्‍थान पाया, किंतु इंटरव्‍यू में नहीं चुना गया। ऐसा हर बार ही होता रहा... चाहे यूपीएससी वाली जगह हो, जबलपुर की ऑडिनेंस फैक्‍टरी में नियुक्ति हो, रेलवे का या विकास अधिकारी की। कानपुर के एचबीटीआई में आगे पढ़ने के लिए प्रवेश चाहा पर वहाँ भी निराशा ही हाथ लगी।
इस बीच मेरठ की साहित्यिक संस्‍था 'प्रगतिशील साहित्‍यकार परिषद्' से संपर्क हो गया हो तो लिखना तेज हो गया। आखिर प्रति सप्‍ताह कुछ नया सुनाना जो पड़ता था। परिषद से जुड़ने से वरिष्‍ठ कवि रघुवीर शरण मित्र, ऐतिहासिक कथाकार आनंदप्रकाश जैन, कहानीकार लाडलीमोहन, गीतकार भारतभूषण, इतिहासकार अरुण जैसे उन दिनों के मेरठवासी साहित्‍यकारों से संपर्क स्‍थापित हो गया।
बाबूजी ने जब मेरा यह रुझान देखा तो उन्‍होंने हिंदी में एमए करने को कहा। साथ ही शाम को एलएलबी कक्षाओं में भी प्रवेश ले लिया। उसी साल एक वर्ष के लिए प्रसिद्ध गीतकार गोपालदास नीरज कॉलेज में लेक्‍चर बन कर आए। उनसे अच्‍छी आत्‍मीयता हो गई, जिसने मेरे गीतकार को उचित दिशा दी। उनमें से कई गीत 'अजंता' और 'विशाल भारत' में पहले पृष्‍ठ पर छपे। 'विशालभारत' में तो उनकी व्‍याख्‍या भी दी जाती थी।
रोमानी कविताओं ने मुझे कक्षा में खासा लोकप्रिय बना दिया। अक्‍सर क्‍लास में कतिवा-पाठ होता और खूब गा-गा कर गीत सुना कर वाहवाही लूटता। कॉलेज मैग्‍जीन के हिंदी भाग का संपादन भी सौंप दिया गया मुझे।
अब उपनाम की बात। मेरे पारिवारिक परिचय के दायरे में एक लड़की थी, जो उम्र में मुझसे बड़ी थी। दरअसल, सरला मेरे एक सहपाठी की बुआ थी। उसकी एक बड़ी बहन भी थी, सरोज। मेरे मन में उनके प्रति ठीक वैसा ही भाव था, जैसा मेरे सहपाठी के मन में रहा होगा। सरला बहुत खूबसूरत थी। उसे घर में सब प्‍यार से सरल पुकारते थे। मेरठ में होली के बाद एक मेला लगता है - 'नौचंदी'। एक शाम दोनों परविार उसमें घूम रहे थे। सरला भी थी। कुछ शरारती दोस्‍तों ने उसे मेरे साथ देख लिया। बस, अगले दिन उसका नाम मेरे साथ जोड़ दिया गया, जबकि मेरा रिश्‍ता एक परिचित मित्र का ही था। लेकिन अंतर्मन में कुछ ऐसा जरूर रहा होगा कि उपनाम के रूप में वह नाम मेरे साथ जुड़ गया।
जब एमए हो चुका तो नौकरी की तलाश फिर से तेज हो गई। पता नहीं, कहाँ-कहाँ एप्‍लाई किया पर एक इंटरव्‍यू के लिए बुलावा आया - बागपत के एक दूर दराज कस्‍बे से। गया, इंटरव्‍यू जैसा तो कुछ न हुआ। बस, कहा गया कि नियुक्ति 160 रु पर होगी पर मिलेंगे सौ रुपये और रसीद देनी होगी 160 की। मेरा मन इसे मानने को तैयार न था। यों भी जगह बहुत उजाड़-सी थी। सो वापस लौट आया और भविष्‍य का इंतजार करने लगा। तभी गाजियाबाद से एक कॉल आई। गया पर जब पहुँचा तब तक नियुक्ति हो चुकी थी। निराश लौट ही रहा था कि मन में आया कि प्रिंसपल पास में ही तो रहते हैं। उनसे मिलने की कोशिश की जाए। झिझकते-झिझकते दरवाजे की घंटी दबा दी। श्री बी एस माथुर सौहार्द से मिले। तब तक छपी अपनी सब पुस्‍तकें ले गया था। वे सब उनकी मेज पर सजा दीं। वे प्रभावित लग रहे थे। कहा कि मैं अपना पता आदि छोड़ जाऊँ, जगह हुई तो बुला लेंगे। मैं इस तरह से उत्तर सुनने का आदी हो चुका था, इसलिए बहुत आशान्वित न था। पर अगले सप्‍ताह ही अचरज जैसे मेरा इंतजार कर रहा था। महानंद मिशन कॉलेज दिल्‍ली के छात्रों से चलता था। जिनको दिल्‍ली में प्रवेश नहीं मिलता था, वे वहाँ आते थे। संख्‍या बढ़ जाने पर एक और सेक्‍शन खोलना पड़ा था, इसलिए जगह हो गई थी।
एक-दो साल सब ठीक चला। इस बीच अगले सत्र में से.रा. यात्री भी आ गए। तब वे प्रसिद्ध कथाकार नहीं हुए थे, बल्कि प्रेमगीत लिखा करते थे। मेरे एक सीनियर थे आनंदप्रकाश कौशिक। हम तीनों ने दयानंद नगर में एक फ्लैट किराए पर ले लिया और हम सब एक साथ रहने लगे।
लगता है कि इत्तिफाक फिर से मेरा इंतजार कर रहा था। एक दिन पीरियड खाली था। स्‍टॉफरूम में 'हिंदुस्‍तान टाइम्‍स' देख रहा था कि मेरी नजर दो पंक्तियों के एक विज्ञापन पर पड़ी। लिखा था - 'बंबई से निकलने वाले एक हिंदी साप्‍ताहिक के लिए योग्‍य सहायक संपादक की आवश्‍यकता है।' एप्‍लाई करने के लिए केवल बाक्‍स नंबर दिया गया था। तभी यात्री ने स्‍टॉफरूम में प्रवेश किया। उन्‍हें मैंने वह छोटा-सा विज्ञापन दिखाया तो वे बोले कि एप्‍लाई करने में क्‍या हर्ज है और मैंने अगले दिन प्रार्थनापत्र भेज दिया।
शायद, आठ-दस दिन में बुलावा आ गया। इंटरव्‍यू के लिए बुलाया गया था। पत्‍नी ने कहा कि चले जाओ, इस बहाने बंबई (तब वह मुंबई नहीं हुआ था) भी देख लोगे। धर्मवीर भारती से मेरा कोई परिचय न था। खतोकिताबत तक नहीं रही थी।
इंटरव्‍यू के समय ही पहली बार मिला था। 'ज्ञानोदय' आदि में उनको पढ़ता जरूर रहा था। कुछ किताबें भी पढ़ चुका था। सच तो यह था कि तब तक मैंने अखबार का कोई दफ्तर तक न देखा था। हाँ, एक बार 'नवभारत टाइम्‍स' के प्रधान संपादक अक्षयकुमार जैन से मिलने जरूर गया था। मैंने बताया कि मेरा बचपन नजीबाबाद से शुरू हुआ था। बाबूजी साहू परिवार को बचपन से जानते थे। बताया तो यह गया था कि शांतिप्रसाद जी और श्रेयांस जी उनके साथ ही खेले थे। जब मेरी ओर से सब तरफ निराशा ही दिख रही थी, बाबूजी ने शांतिप्रसाद जी को मेरे लिए पत्र लिखा, जिसका उत्तर भी तुंरत आ गया। साहूजी ने अक्षय जी से जाकर मिलने को कहा था और यह भी कि उन्‍होंने अक्षय जी को भी लिख दिया है। इस तरह पहली बार किसी अखबार के दफ्तर जाना हुआ और वह भी मात्र अक्षय जी के चैंबर में ही। अक्षय जी अपनी स्‍नॉबरी के लिए जाने जाते थे। उन्‍होंने वही-सा जवाब दे दिया कि अभी तो कोई जगह नहीं है, अपना पता छोड़ जाइए। जब अवसर होगा, बुला लेंगे।
वह दिसंबर की कोई तारीख थी, भारती जी से उनके केबिन में मिलना हुआ। मेज पर अपनी सभी प्रकाशित पुस्‍तकें रख दीं, जिन पर उन्‍होंने नजर तक न डाली। मुझे उपसंपादक की जगह तजबीज की तो मैंने कहा कि मैंने तो सहायक संपादक के पद के लिए आवेदन किया है, जिसके जवाब में भारती जी बोले कि वे उस पद के लिए तो रघुवीर सहाय अथवा सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना को लाने की सोच रहे है, फिलहाल तुम यह स्‍वीकार कर लो। फिर बात वेतन को लेकर उठी। पाँच इन्‍क्रीमेंट ऑफर किए गए, फिर भी वे मेरी अपेक्षा के अनुरूप न थे। इंटरव्‍यू बोर्ड के समक्ष भी यही बात दोहरा दी गई।
अपनी पुत्री और नाती के साथ भारती जी 
वे सब फॉर्मेलिटीज पहले ही निबटा लेना चाहते थे। सो मेडिकल जाँच भी करा ली गई और नियुक्ति-पत्र के साथ एक दस्‍तावेज और बनाया गया कि मैं फलाँ तारीख को अवश्‍य ज्‍वाइन कर लूँ। उस तरह के अनुबंध की क्‍या अहमियत हो सकती थी, यह मैं आज भी नहीं समझ पाया। मतलब यह कि भारती जी चाहते थे कि मैं नियुक्ति स्‍वीकार कर लूँ।
बहरहाल, थोड़ा-बहुत घूमघाम कर मैं लौट आया। संपादकीय विभाग कैसा होता है, मैंने झाँक कर भी नहीं देखा।
गाजियाबाद पहुँच कर साथियों से सलाह ली गई। पत्‍नी अध्‍यापन कर रही थीं, किंतु वे आसन्‍नप्रसवा थीं और प्रसव के लिए मायके इलाहाबाद जाना चाहती थीं। बंबई की समस्‍याओं को देखते वेतन मुझे कम लग रहा था। माँ-बाबूजी तो बिल्‍कुल तैयार न थे। उनके अनुसार इतनी दूर जाना, खासकर, बंबई जाना जान-बूझकर समस्‍याओं के समुद्र में कूदना था। पत्‍नी का तर्क था कि नौकरी तो उन्‍हें छोड़नी पड़ेगी और कम-से कम चार-पाँच महीने इलाहाबाद ही रहना पड़ेगा। मैं इस बीच बंबई में रहने का कामचलाऊ इंतजाम कर सकता हूँ।
इन सब बातों और घटनाओं के विवरण जान कर क्‍या किसी को गुमान भी होता है कि इनका मेरे पत्रकार बनने की संभावना से कोई रिश्‍ता है, नहीं ना? लेकिन नियति के आगे किसी चली है? कहते हैं न, 'होइए वही जो राम रचि राखा'। पर अब मैं सोचता हूँ कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप में इन सब ने एक पूर्वपीठिका तो जरूर बनाई है, जो मेरे पत्रकार जीवन पर कहीं-न-कहीं प्रभाव डालती अवश्‍य रही है।
अंततः जनवरी की 14 तारीख को मैंने 'धर्मयुग' के संपादकीय विभाग में प्रवेश लिया। पहली बार देखा कि सब सहयोगी कैसे काम करते हैं। सहायक संपादक कोई था नहीं, वरिष्‍ठतम मुख्‍य उपसंपादक थे हरिमोहन शर्मा। उनके बाद थे आनंदप्रकाश सिंह जो हमेशा जैसे उलझन में रहते थे। संपत ठाकुर गंभीर लगे और पन्‍नालाल व्‍यास निरंतर व्‍यस्‍त दिखाई दिए या शायद, वे व्‍यस्‍त दिखने का अभिनय करते थे। प्रसिद्ध उपन्‍यासकार उदयशंकर के सुपुत्र प्रमोद शंकर ने तो मेरे साथ ही ज्‍वाइन किया था।
आरंभ में जो पृष्‍ठ मुझे सौंपे गए, वे मेरी रुचि के ही थे। बस, साप्‍ताहिक भविष्‍य के अनुवाद को छोड़ कर। वह कोई विेदेशी महिला भेजती थी, अँग्रेजी में। यद्यपि किसी अखबार की डेस्‍क पर काम करने का यह पहला अवसर था, मुझे कोई दिक्‍कत नहीं हुई। सब समझने में थोड़ा समय जरूर लगा।
शायद, दूसरा या तीसरा ही दिन रहा होगा वह कि दोपहर बाद मेरी मेज के सामने एक सज्‍जन आ कर बैठ गए, कत्‍थई रंग का मामूली सा सूट पहने थे और गले में नायलोन की टाई लटक रही थी। उनके हाथ में एक सफेद रंग का पाउच था, जिसे उन्‍होंने मेरी मेज पर रख दिया था। उस पर 'हिंदी ग्रंथ रत्‍नाकर' छपा हुआ था। अपना हाथ बढ़ा कर हाथ मिलाने का आह्वान करते हुए बोले, 'आप मनमोहन सरन हैं न? मैं हूँ कन्‍हैयालाल नंदन। बंबई में आपका स्‍वागत करता हूँ। एक कॉलेज में पढ़ाता हूँ और यह त्रैमासिक पत्रिका भी निकालता हूँ।' और उन्‍होंने अपने पाउच से निकालकर एक पत्रिका सामने रख दी।
उनके और उनकी पत्रिका 'आधार' के बारे में मैंने पहले सुना न था, फिर भी जैसे तपाक से वे मिले थे, उससे मुझे अच्‍छा लगा। हाँ, रामावतार चेतन को जरूर जानता था, जो उनके साले थे। शुरू में मैं चैंबूर में रहता था, जहाँ की व्‍यवस्‍था 'पराग' के संपादक मेरे मेरठ के परिचित आनंदप्रकाश जैन ने कर दी थी, इसलिए चेतन ली के घर भी जा चुका था।
नंदन जी से यह मुलाकात किस तरह मित्रता में बदल गई, यह शायद वक्‍त का तकाजा रहा होगा। खुद ही उनकी अपनी पैरवी करने का कमाल ही था कि उन्‍हें भारती जी को झुकाने में ज्‍यादा वक्‍त नहीं लगा। यों भी भारती जी की रघुवीर सहाय या सर्वेश्‍वर दयाल को धर्मयुग में लाने की मुहिम नाकाम हो गई। सर्वेश्‍वर तो इंटरव्‍यू देने तक न आए। रघुवीर सहाय आए तो जरूर पर उन्‍होंने मुंबई में रहने से इनकार कर दिया। नंदन जी ने अपने रसूक से पुष्‍पा (शर्मा) को स्‍कूल में नौकरी दिलवा दी, जिसके कारण उनका भारती जी के साथ मुंबई में रह सकना संभव हो गया।
इस प्रकार अंततः श्री कन्‍हैयालाल नंदन धर्मयुग के सहायक संपादक बन गए। इसके बाद बड़ी तेजी उनमें स्‍पष्‍टतः परिवर्तन सामने आया। उनका ट्रेडमार्क कत्‍थई सूट चरित्र अभिनेता हंगल का तराशा हुआ सलेटी सूट में बदला, एक कमरे का चाल जैसी खोली यशवंत नगर के रो हाउस में बदली, हिंदी ग्रंथ रत्‍नाकर वाला पाउच पोर्टफोलियो बैग में बदला, आदि, आदि। लेकिन इस सब में एक साल के करीब लगा।
इस बीच मैं नंदन जी के मश्विरे से गोरेगाँव में ही रहने लगा। पहले डबल इंक्रीमेंट दिए गए। फिर मुझे मुख्‍य उपसंपादक भी बना दिया गया। मुझसे जो वरिष्‍ठ थे उनका ट्रांस्‍फर कर दिया गया। आनंदप्रकाश सिंह 'सारिका' में और जो मुख्‍य उपसंपादक थे हरिमोहन शर्मा, उन्‍हें नवभारत टाइम्‍स में। इन्‍हीं दिनों 'सरिका' के संपादक रतनलाल जोशी छोड़कर चले गए और आनंदप्रकाश जैन ने 'पराग' के साथ 'सारिका' का संपादन आरंभ कर दिया। उन्‍होंने मुझे भी 'सारिका' में लेने की पेशकश की, जिसे मैंने विनम्रता से अस्‍वीकार कर दिया। कारण स्‍पष्‍ट था।
अब मुझ पर उत्तरदायित्‍व बढ़ गए। विभागीय कामों के अलावा प्रोडक्‍शन की जिम्‍मेदारी भी आ गई, यानी तमाम साथियों के पृष्‍ठों को चेक करना, उनकी बेहतरी के लिए सुझाव देना। अंकों की प्‍लानिंग में भारती जी की सहायता करना और विशेषांकों की तैयारी में हाथ बँटाना। बाद में जब नंदन जी आ गए, तो यह सब उनके ऊपर आ गया, किंतु प्रोडक्‍शन की जिम्‍मेदारी मुझ पर ही रही। पर हाँ, उन्‍हीं दिनों धर्मयुग ने 'कथा दशक' आरंभ किया। उसकी योजना स्‍वयं भारती जी ने बनाई थी, किंतु यह उनकी सदाशयता ही थी कि उस श्रृंखला का पूरा क्रेडिट उन्‍होंने मुझे दिया। यों कहानीकारों की सूची बनाने में सुझाव देना और उनसे कहानी तथा वक्‍तव्‍य समय से मँगाने को जिम्‍मेदारी सौंप दी गई थी।
'कथा दशक' के तुरंत बाद सत्तर के दशक के बाद उभरे महत्‍वपूर्ण युवा कथाकारों की एक नई श्रृंखला आरंभ होती थी, जिसका पूरा दायित्‍व मुझे दिया गया। इस श्रृंखला में सबसे पहला नाम था ज्ञानरंजन का उनके बाद इस क्रम में कौन थे, अब मुझे याद नहीं हैं किंतु संजीव, शैवाल, अखिलेश जैसे नाम अब भी याद हैं।
नंदन जी के विभाग में आ जाने के बाद सब काम ठीक-ठाक चलने लगा। गोरेगाँव से हम दोनों साथ ही निकलते थे और अगर नंदन जी को कहीं अन्‍यत्र जाना न होता तो लौटते भी साथ ही थे। जब वे धर्मयुग में नहीं आए थे, अँग्रेजी में आए लेखों का अनुवाद उनसे कराया जाता था। मैं लाकर शाम को देता था और वे अगले दिन ही अनुवाद करके पहुँचा दिया करते थे। तब उनके कारण मेरे कई निजी काम भी आसानी से हो जाया करते थे। नया होने के कारण मुझे छुट्टी नहीं मिल सकती थी और तब तक मेरी पत्‍नी इलाहाबाद में ही थी। जब वे आ गईं तब दोनों परिवारों का बड़ा आत्‍मीय रिश्‍ता बन गया था। तब तक नंदन जी अपने पुराने घर में ही रहते थे, जो मेरे घर से थोड़ा दूर था। फिर भी शाम को या छुट्टी के दिन हम मिल लिया करते थे।
भारती जी ने जैसे बंबई के कास्‍मोपोलिटकल स्‍वरूप को पहचान लिया था उन्‍होंने हिंदी लेखकों के अलावा दूसरी भाषाओं के लेखकों से संपर्क स्‍थापित करने आरंभ कर दिए थे। प्रति दूसरे शनिवार को हम 'महानगर में लेखन की समस्‍याएँ' विषय देकर गोष्ठियाँ आयोजित करते थे। इनमें हिंदी के अतिरिक्‍त अन्‍य भाषाओं के लेखक कवि विशेष कर बुलाए जाते थे। इन्‍हीं आयोजनों के कारण राजेंद्रसिंह बेदी, कृश्‍नचंदर, गुलाबदास ब्रोकर, सरदार जाफरी, ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास, पं. नरेंद्र शर्मा, इस्‍मत चुगताई, सलमा सद्दीकी, शांताराम, गंगाधर गाडगिल, नामदेव ढसाल, जैसे अनेक प्रख्‍यात हिंदीतर लेखकों से परिचय हो सका था। सिंधी तथा कुछ दक्षिण के लेखकों को भी जानने का मौका मिला। शनिवार की गोष्ठियों के अलावा भूलाभाई देसाई ऑडीटोरियम में एक पूरे दिन का सेमिनार भी आयोजित किया गया था, जिसकी पूरी रूपरेखा में मैंने सहयोग दिया था और उस सेमिनार का संचालन भी किया था। संचालन का मेरे लिए यह पहला अवसर था। मैं कुछ झिझक रहा था किंतु भारती जी ने कहा कि नहीं, यह तुम्‍हें ही करना होगा।
तब तक शायद नंदन जी की नियुक्ति नहीं हुई थी, या वे किसी वजह से उपलब्‍ध नहीं थे। यह पहला अवसर नहीं था, नंदन जी कई महत्‍वपूर्ण अवसरों पर मौजूद नहीं रहे थे। ऐसा ही एक अवसर था जब प्रख्‍यात कवि रामधारीसिंह दिनकर का निधन हुआ। अंक लगभग तैयार था। भारती जी मॉरीशस गए हुए थे और नंदन जी छुट्टी पर थे। मैंने हरिवंशराय बच्‍चन से उनका साक्षात्‍कार लेने के लिए फोन किया, जिसके उत्तर में उन्‍होंने कहा कि मैं दिनकर जी पर बहुत सहानुभूतिपूर्ण नहीं बोल पाऊँगा। मुझे उनसे हमेशा कई शिकायतें रही हैं। मैं इंटरव्‍यू में अगर उन सब का भी उल्‍लेख करूँ तो क्‍या आप छापना चाहेंगे। बच्‍चन जी जैसे वरिष्‍ठ साहित्‍यकार से मुझे यह आशा न थी। यह तो मुझे मालूम था कि दिनकर जी से उनके रिश्‍ते अच्‍छे नहीं रहे हैं किंतु यह उन शिकायतों को रेखांकित करने का समय न था। फिर पद्मा सचदेव से लिखवाया गया। नरेंद्र शर्मा का साक्षात्‍कार करा लिया तथा अन्‍य सामग्री तुरंत ही दिल्‍ली से मँगवा ली थी।
अज्ञेय जी के निधन के समय भी भारती जी विदेश में थे किंतु नंदन जी तब विभाग में थे। पर अज्ञेय जी पर पूरा अंक निकालने के स्‍थान पर मात्र सूचना दे दी गई। बाद में जब भारती जी लौटे तो वे बहुत नाराज हुए और दुखी भी हुए। बाद में अवसर ढूँढ़ कर एक समूचा अंक अज्ञेय जी को स‍मर्पित किया गया।
सबसे कठिन समय तब था, जब भारती जी बांग्‍लादेश के युद्धक्षेत्र में गए थे। वे मोर्चे पर अटक गए थे। उस समय भी नंदन जी शायद बीमारी के अवकाश पर थे। हमें उस कठिन समय में तीन अंक निकालने पड़े थे। गणेश मंत्री और हरिवंश के सहयोग से वे अंक निकाले और ऐसी सामग्री दी कि उसकी चर्चा होती रही। धर्मयुग का मुकाबला हमेशा अँग्रेजी के इलेस्ट्रेट वीकली से होता था, जिसके संपादक उन दिनों खुशवंत सिंह थे। हमारे उन तीनों अंकों को मैनेजमेंट ने वीकली से बेहतर माना था। बल्कि मैंने भारती जी की डाक में जनरल मैनेजर का वह पत्र भी पढ़ा था, जिसमें उन्‍होंने मेरी तारीफ की थी। पर पता नहीं क्‍यों भारती जी ने वह मुझे नहीं दिखाया। भले ही मेरे इस कार्य की प्रशंसा वाला वह नोट छिपा लिया हो, प्रकट में उन्‍होंने स्‍वयं उन तीनों अंकों की प्रशंसा की।
धर्मयुग ने मुझे कई दुर्लभ मौके भी दिए, जो अविस्‍मरणीय रहेंगे। पूर्व और पश्चिम यूरोप की यात्राएँ, जिनमें दो बार लंदन और पेरिस जाना भी शामिल रहा। सोवियत रूस और अमेरिका के आमंत्रण, जो आम तौर पर कम ही दिए जाते हैं। बल्कि जो रूस हो आता है, उसे अमेरिकन वीसा विरल ही मिलता है। स्‍केंडिवियन देशों की यात्राएँ और नीदरलैंड तथा जर्मनी जाने के अवसर भी मिले। भारत में भी कई महत्‍वपूर्ण एसाइंमेंट के सिलसिले में कई जगहों पर भेजा गया, जिनके अनुभव आज भी स्‍मृति में स्‍थायी हैं।
मुझे यह तो पता नहीं कि वे कौन से कारण थे कि नंदन जी की तरफ से भारती जी का मोहभंग हो गया था, किंतु अवश्‍य यह उनकी कार्यप्रणाली या क्षमता के कारण रहा होगा। इसका सबसे बड़ा स्‍वरूप तब सामने आया, जब नंदन जी ने टाइम्‍स के सेक्रेटरी प्‍यारेलाल शाह से मिल कर भारती जी के विरोध में हस्‍ताक्षर अभियान चलाया। वह दिन बहुत सरगर्मी का था। भारती जी अपने केबिन में बैठे चुरुट-पर-चुरुट पी रहे थे। मैं उनके सामने कुछ देर बैठा रहा था। विभाग में एक उपसंपादक थे स्‍नेह कुमार चौधरी, उन्‍होंने हस्‍ताक्षर करने से साफ इनकार कर दिया। यहाँ तक कि जब कैंटीन के हॉल में शाह साहब ने सबको इकट्टा करके भारती जी पर दोषारोपण की झड़ी लगा दी, तब चौधरी ने साहस दिखा कर उनका विरोध भी किया। भारती जी सब सुनते रहे, पर उत्तर में कुछ बोले नहीं।
इलाहाबाद से आए तो जरूर थे भारती जी किंतु उनका मन वहीं रहता था। निराला जी के निधन पर वे तुरंत गए थे। अपने पूर्व गुरुओं या इलाहाबाद के साथियों के बंबई आगमन पर गो‍ष्ठियाँ और पार्टियाँ की जाती थीं। डॉ. धीरेंद्र वर्मा हों या रामकुमार वर्मा हों, उनका भरपूर स्‍वागत किया जाता था। बाद में यह परिपाटी, न जाने क्‍यों, समाप्‍त हो गई। माखनलाल चतुर्वेदी के प्रति भी भारती जी की अगाध श्रद्धा था। कई बार उनसे मिलने खंडवा भी गए थे।
जब बच्‍चों का कालम मुझे दिया गया था (यह एकदम शुरू की बात है) तब उसका स्‍वरूप मैंने अपनी तरह बनाने की कोशिश की थी। 'सरल भैया की चिट्ठी' भी प्रति सप्‍ताह लिखता था। बाद में एक और कालम शुरू किया था 'आओ बच्‍चो, तुम्‍हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्‍तान की' जिसमें प्राय पूरे पृष्‍ठ का एक रंगीन चित्र दिया जाता था और उसके साथ उस स्‍थान का विवरण देता हुआ छोटा-सा लेख होता था। यह बच्‍चों में बहुत लोकप्रिय हुआ था।
इसी तर्ज पर 'चित्र वीथी' शुरू हुई थी। इसकी योजना 1968 में बनी थी। सोचा यह गया था कि पूरे पृष्‍ठ को समकालीन चित्रकला को समर्पित किया जाय। चित्रकार की कलाकृति का रंगीन चित्र और साथ ही उसका चित्र दिया जाए और संक्षेप में उसका, उसकी कला और उसके भारतीय समकालीन कला में योगदान पर लिखा जाय। आरंभ हुआ 3 नवंबर 1968 के अंक से और सबसे पहले चित्रकार थे मकबूल फिदा हुसेन। प्रति सप्‍ताह एक प्रतिष्ठित चित्रकार को प्रस्‍तुत किया जाने लगा। यह कालम शायद तीन वर्ष तक चला। वरिष्‍ठ चित्रकार ही नहीं, बाद में नए प्रतिभावान चित्रकारों को भी इस क्रम में शामिल किया गया। अगर मैं कहूँ कि 'चित्र वीथी' ने ही मुझे कला समीक्षक बना दिया, तो यह अनुचित न होगा। बाद में धर्मयुग में जितना भी कला-विषयक लेखन होता, वह मुझे ही सौंपा जाता। बाद में सहयोगी समाचार पत्र 'नवभारत टाइम्‍स' के लिए भी प्रति सप्‍ताह कला समीक्षा लिखने का भार मुझे दिया गया और जब तक सुरेंद्रप्रताप सिंह का 'रविवार' छपता रहा, उसके लिए भी कला और रंगमंच के आयोजनों पर 'रंगमोहन' नाम से लिखता रहा। कभी-कभी दूसरे सहयोगियों की गलतियों पर परदा डालने की जरूरत पड़ती थी। छोटी-मोटी ऐसी घटनाएँ तो कई आ पड़ीं किंतु एक का उल्‍लेख किया जा सकता है, जो नए पोप के अभिषेक से जुड़ी है और इसमें साथी उदयन शर्मा से भयंकर भूल हुई थी। मामला मुख्‍य शीर्षक का था। वह उस अंक की कवर स्‍टोरी थी और लेख के प्रथम पृष्‍ठ के तीन रंगों के सिलेंडर बन चुके थे। जब हम काले रंग वाले फार्म को देखने गए, जिसमें आलेख का टेक्‍स्‍ट होता था, तो पाया कि मुख्‍य शीर्षक गलत है, जो एकदम उल्‍टा अर्थ देता है। उदयन परेशान और मैं चिंतित कि यह किस तरह सुधारा जाय। आखिर प्रिटिंग सुप्रिंटेंडेंट के पास गया और उसे गलती की भयंकरता को समझाया। वह स्‍वयं ईसाई था। उसने मदद का भरोसा दिलाया। पर तीन रंगों के नए सिलेंडर तो बिना मैनेजमेंट की अनुमति के बनाए नहीं जा सकते थे। उसने रास्‍ता निकाला कि उन तीनों सिलेंडरों में से शीर्षक घिस कर हटा दिया जाए और नया शीर्षक तुरंत कंपोज कराकर सिर्फ काले रंग में दे दिया जाय। और कोई रास्‍ता न था। चारों सिलेंडर नए बनाने के लिए तो बात ऊपर तक जाती। आखिर यह प्रस्‍ताव मानने के अलावा कोई चारा न था। तुरंत नया शीर्षक तैयार किया गया और उदयन शर्मा की भूल का परिष्‍कार हो गया, जिसका भारती जी तक को पता न लगा।
इससे भी बड़ी घटना एक और हुई। स्‍टाकहोम से सतीकुमार योरोपनामा भेजा करते थे। उस किस्‍त में एक विवरण था, जिसमें कहा गया था कि इन दिनों यूरोप में आस्‍थावान संकट में हैं। साथ में एक छोटा-सा रेखाचित्र था, जिसमें ईश्‍वर पर शैतान को हावी होते दिखाया गया था। चित्र का चुनाव स्‍वयं भारती जी ने किया था। व्‍यवस्‍था यह थी कि मैं मशीन से छपने वाली प्रथम कापी चेक किया करता था। रात के नौ बजे उस बार कापी पास करनी थी, जो मैं कर चुका था और घर जाने ही वाला था कि नाडिग आ गए। वह उन दिनों तक्‍नीशियन थे, जर्मन थे। सुरूर में आए थे। अंक की प्रति पृष्‍ठ-दर-पृष्‍ठ देखी। फोरमैन को रंगीन पृष्‍ठ से संबंधित कुछ सुधार की हिदायत दी और अंक पलटने लगे। उस रेखांकन पर आ कर मजाक में जो बोले वह तो लिखा नहीं जा सकता, किंतु उसका मतलब यही था कि चित्र में जो दिखाया गया है, वह आपत्तिजनक है। मशीन धड़ाधड़ छापे जा रही थी और तब तक कई हजार प्रतियाँ छप चुकी थीं। नाडिग ने उसी मजाकिया ढंग से भारती जी को घर पर फोन किया। वे तुरंत आए और तस्‍वीर को ध्‍यान से देखा। नाडिग की बात समझते देर न लगी। मशीन तुरंत रुकवा दी गई और नाडिग ने सिलेंडर को इस तरह घिसवाया कि रेखांकन का सिर्फ एक भाग दिखाई दे। आगे छपने वाली प्रतियों के लिए तो व्‍यवस्‍था हो गई, पर जो 11 हजार प्रतियाँ छप चुकी हैं, उनका क्‍या किया जाय? यह विकट समस्‍या थी। उन्‍हें नष्‍ट तो किया नहीं जा सकता था। आखिर हल यह निकाला गया कि उस चित्र पर हाथ से काला रंग पोता जाय। पूरी रात मैं यह काम करता रहा। नंदन जी को भी बुला लिया गया और हमने सुबह तक एक-एक प्रति पर उस छपी हुई तस्‍वीर पर काला रंग पोता।
इस तरह की घटनाओं दुर्घटनाओं की फेहरिस्‍त तो बहुत लंबी है और भी कई यादें तो हैं, उनकी विशाल भीड़ में से कुछ प्रसंग निकाल पाना बड़ा दुष्‍कर कार्य है। बच्‍चन जी के शब्‍द उधार लें तो 'क्‍या भूलूँ, क्‍या याद करूँ' वाली स्थिति है। सब स्‍मृतियाँ मीठी ही नहीं हैं, कड़वे और दुखी होने के क्षण भी बहुत बार आए हैं। ऐसे में यह विचार भी आया कि पत्रकारिता में कहाँ फँस गया। कॉलेज की नौकरी बड़े आराम की थी। पर साथ ही यह भी सोचा कि तब वहाँ किसी किस्‍म की चुनौती कहाँ थी? बिना चुनौतियों से जूझते जिंदगी का मजा ही क्‍या है? (हिंदी समय से साभार)
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=5567&pageno=1

Friday, July 24, 2015

विकास पत्रकारिता को अपनी जगह खुद बनानी होगी

विकास पत्रकारिता/ अन्‍नू आनन्‍द

कोई भी रिपोर्ट/स्‍टोरी बेहतर और प्रभावी कैसे हो सकती है? अच्‍छी और प्रभावी स्‍टोरी की परिभाषा क्‍या है? समाचार कक्षों में बेहतर स्‍टोरी कौन सी होती है? अजीब बात यह है कि न्‍यूज रूम में इन मुददों पर कभी बहस नहीं होती? लेकिन फिर भी 'रूचिकर और असरदार यानी प्रभावी' स्‍टोरी की मांग बनी रहती है। किसी भी रिपोर्ट को लक्षित श्रोताओं, दर्शकों या पाठकों तक पहुंचाने के लिए जरूरी है कि रिपोर्ट में तथ्‍यों के साथ उसकी प्रस्‍तुति भी इस प्रकार से हो कि वह मुददे की गंभीरता को समझा जा सके और लोगों का ध्‍यान आकर्षित करने का अर्थ यह नही कि मुददे की संवेदनशीलता से समझौता किया जाए।
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आज के मीडिया परिदृश्‍य में जब प्रिंट, इलै‍क्‍ट्रानिक या वेब और डिजिटल मीडिया में प्रतिस्‍पर्धा अपने चरम पर है। हर स्‍टोरी/रिपोर्ट में प्रकाशित प्रसारित या अपलोड होने की होड रहती है, ऐसी स्थिति में किसी भी रिपोर्टर के लिए पत्रकारिता के मूल्‍यों का पालन करते हुए अपनी रिपोर्ट को रूचिकर बनाना एक चुनौती बन जाती है। खासकर उन संवाददाताओं के लिए जो सामाजिक या विकास जैसे मुददों पर लिखते हों। क्‍योंकि इन विषयों पर कोई भी रिपोर्ट या स्‍टोरी तभी स्‍वीकृत मानी जाती है जब संबंधित संपादक या ब्‍यूरो चीफ तथ्‍यों से सहमत होने के साथ उसके प्रस्‍तुतीकरण से भी प्रभावित हो।
अक्‍सर माना जाता है कि सामाजिक या विकास के मुददों जैसे स्‍वास्‍थ्‍य, गरीबी, बेरोजगारी या मानव अधिकार पर लिखी गई रिपोर्ताज आंकडों, शुष्‍क तथ्‍यों या फिर पृष्‍ठभूमि के ब्‍यौरे में ही उलझ कर रह जाती है और वह पाठकों या दर्शकों को अधिक समय तक बांधे नहीं रख पाती। इसी क्रम में बाल अधिकार या महिला अधिकार के मुददे भी केवल किसी बढ़ी दर्घटना या त्रासदी के समय ही मीडिया में अपनी जगह बना पाते हैं।
बाल लिंग अनुपात या लड़की को गर्भ में ही खत्‍म करने संबंधित रिपोर्ट, विश्‍लेषण या विस्‍तृत फीचर भी सामान्‍य समय में समाचार कक्ष की पसंद नही बन पाते क्‍योंकि उस के लिए जनगणनाओं के आंकडों की समझ बनाना फिर उसे सरल ढंग से विश्‍लेषित करना और उसके साथ उसे रूचिकर बनाना किसी भी रिपोर्टर के लिए आसान नहीं होता।
कोई भी रिपोर्ट/स्‍टोरी बेहतर और प्रभावी कैसे हो सकती है? अच्‍छी और प्रभावी स्‍टोरी की परिभाषा क्‍या है? समाचार कक्षों में बेहतर स्‍टोरी कौन सी होती है? अजीब बात यह है कि न्‍यूज रूम में इन मुददों पर कभी बहस नहीं होती? लेकिन फिर भी 'रूचिकर और असरदार यानी प्रभावी' स्‍टोरी की मांग बनी रहती है। किसी भी रिपोर्ट को लक्षित श्रोताओं, दर्शकों या पाठकों तक पहुंचाने के लिए जरूरी है कि रिपोर्ट में तथ्‍यों के साथ उसकी प्रस्‍तुति भी इस प्रकार से हो कि वह मुददे की गंभीरता को समझा जा सके और लोगों का ध्‍यान आकर्षित करने का अर्थ यह नही कि मुददे की संवेदनशीलता से समझौता किया जाए।
समाचारपत्र में छपने वाली रिपोर्ट के लिए जरूरी है कि उसकी शुरूआत इस प्रकार से हो कि औसत व्‍यस्‍त पाठक विषय की अहमियत को समझे और एक पैरा पढ़ने के बाद पूरी स्‍टोरी पढ़ने के लिए मजबूर हो जाए। याद रहे कि सामाजिक रूप से मुददा या उसके बारे में दी गई जानकारी कितनी भी महत्‍वपूर्ण क्‍यों न हो लेकिन अगर उसकी शुरूआत यानी इंट्रो/लीड (पहला पैरा) की प्रस्‍तुतीकरण ही बेहतर नहीं तो संपादक के लिए वह 'बेहतर' स्‍टोरी नहीं है।
कुल मिलाकर यह निष्‍कर्ष निकलता है कि स्‍टोरी की इंट्रो/लीड यानी शुरूआत आकर्षक, रूचिकर और सूचनाप्रद होना जरूरी है। इंट्रों कैसे आकर्षक हो सकती है इस पर चर्चा से पहले यह चर्चा करना अधिक जरूरी है कि बालिकाओं की कम होती संख्‍या जैसे गंभीर, संवेदनशील मुददे पर रिपोर्ट किस रूप में अधिक प्रभावी और रूचिकर बन सकती है। (इंट्रो की तकनीक के लिए देखें बॉक्‍स)
किसी भी विषय पर रिपोर्ट लिखने के कई तरीके हैं लेकिन सामाजिक विषयों जैसे लडकियों की घटती संख्‍या पर जानकारी प्रदान करने के साथ लोगों को समस्‍या के प्रति जागरूक बनाने और तथ्‍यों की विस्‍तृत जानकारी देने के उददेश्‍यों को पूरा करने के लिए रिपोर्ट को लेखन की मुख्‍यता निम्‍न शैलियों से लिखना अधिक प्रभावी माना जाता है ।
1. समाचार फीचर (न्‍यूज फीचर) 2. फीचर 3. विचारात्‍मक आलेख
समाचार फीचर
महिला या बाल अधिकार जैसे मुददों पर संक्षेप में लिखना हो तो समाचार की बजाय समाचार फीचर शैली में लिखना अधिक प्रभावकारी माना जाता है। समाचार फीचर, फीचर से अलग होता है। इसमें समाचार के सभी तत्‍व विद्यमान रहते हैं यानी पारंपरिक समाचार स्‍टोरी या रिपोर्ट का ही ढांचा रहता है लेकिन शैली भिन्‍न होती है। पहले लीड/इंट्रो, फिर 'बॉडी' यानी दूसरा संक्षिप्‍त विवरण। अंत में अगर जरूरी लगे तो निचोड। लेकिन न्‍यूज फीचर में कहानी कार यानी कहानी सुनाने वाली शैली पर अधिक जोर दिया जाता है ताकि पढने या सुनने वाले की उसमें रूचि बने। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि तथ्‍यों को गढा जाए। किसी भी समाचार की तरह समाचार की विशेषताएं जैसे सामयिक, नजदीकी, आकार, महत्‍ता और प्रभाव जैसे बुनियादी समाचार के सिद्धांत बने रहने चाहिए। जैसे कि रिपोर्ट सामयिक है या नहीं। उसका 'आकार' यानी कितने बडे समुदाय से जुडी खबर है । लेकिन इस की इंट्रो/लीड आकर्षक, जुडाव पैदा करने वाली और गैर पारंपरिक होनी चाहिए। समाचार फीचर किसी भी अखबार में किसी भी पेज की एंकर स्‍टोरी हो सकती है। इसमें समाचार के सभी तत्‍वों के इस्‍तेमाल के साथ फीचर की शैली का इस्‍तेमाल किया जाता है। समाचार के महत्‍वपूर्ण माने जाने वाले पांच डब्‍ल्‍यूएच यानी हिंदी के छह 'क' का भी समावेश रहता है। लेकिन इसमें जरूरी नहीं कि सामान्‍य समाचार की तरह पहले पैरा में ही सभी 'क' यानी क्‍या, कब, कौन, कहां और क्‍यों का जवाब हो। समाचार फीचर में सभी 'क' का जवाब पहले पैरा में हो यह जरूरी नहीं। इसमें केवल कौन या क्‍या का जवाब हो सकता है। लेकिन यह सभी प्रश्‍न धीरे-धीरे खुलते हैं। समाचार फीचर को रूचिकर बनाने के लिए इंट्रो/लीड चित्रांकन शैली में भी हो सकता है। जब पाठक इंट्रो पढते हुए ऐसा महसूस करता है कि द़श्‍य उसकी आखों के समक्ष गुजर रहा है और उसकी आगे पढने की उत्‍सुकता बनी रहती है। इंट्रो के बाद दूसरे पैरा में आप धीरे-धीरे सभी तथ्‍यों के समाचार तत्‍वों का उत्‍तर देते रहते हैं।
समाचार (न्‍यूज फीचर) अक्‍सर संक्षेप में लिखा जाता है। यह 400 से 600 शब्‍दों तक हो समता है। लडकियों का घटता अनुपात या बच्‍चों के मुददों पर न्‍यूज फीचर लिखना उपयुक्‍त हो सकता है। लेकिन न्‍यूज फीचर नयेपन की मांग करता है। इसलिए लिंग चयन जैसे मुददे पर कुछ नई घटना जैसे जनगणना में लिंग अनुपात का खुलासा, लिंग जांच करने वाले क्‍लीनिकों को सील करने की घटना, सुप्रीम कोर्ट के आदेश, कानून में संशोधन इत्‍यादि। ये सभी समाचार होते हुए भी फीचर की शैली में लिखे जाने पर अधिक प्रभावी साबित हो सकते हैं। इसमें विभिन्‍न विशेषज्ञों की राय या उनके कथन को शामिल करने से समस्‍या से संबंधित विभिन्‍न विचारों का प्रस्‍तुतीकरण हो सकता है। 
फीचर
सामाजिक मुददों पर विस्‍तृत रिपोर्ट लिखने के लिए फीचर शैली सबसे महत्‍वपूर्ण और प्रभावी हथियार है। कोई भी फीचर केवल समाचार नहीं बताता, समाचार के सभी मुख्‍य तत्‍वों सहित फीचर का मुख्‍य उददेश्‍य लोगों को रूचिप्रद जानकारी देना उन्‍हें समस्‍या/घटना के साथ जुडाव का अ‍हसास दिलाना, जागरूक बनाना या उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर के रूप में किसी उबाऊ माने जाने वाले विषय को भी दिलचस्‍प बनाने की स्‍वतंत्रता रहती है। सफल कहानियां इस शैली में लिखे जाने पर अधिक प्रभावी साबित होती है। अधिकतर फीचर लोगों की समस्‍याओं, सफलताओं, विफलताओं या अभियान और प्रयासों का ब्‍यौरा देते हैं। इसलिए लोग फीचर शैली में लिखे लेख से अधिक जुडाव महसूस करते हैं।
रिपोर्टर को इस में विभिन्‍न तकनीकों के इस्‍तेमाल से इसे दिलचस्‍प बनाने की छूट रहती है लेकिन समाचार मूल्‍य जैसे सत्‍यता, निष्‍पक्षता और विश्‍वसनीयता जैसे मूल्‍यों का पालन करना भी जरूरी होता है।
लड़कियों उनके गर्भ या पैदा होन पर मारने की प्रवृत्ति के खिलाफ बदलाव लाने के प्रयास, विभिन्‍न क्षेत्रों में लड़कियों के खिलाफ भेदभाव की परम्‍पराओं से संबंधित विस्‍तृत फीचर और खोजपरक फीचर के रूप में क्‍लीनिकों में लिंग जांच की प्रवृत्ति के खुलासे हमेशा बेहतर स्‍टोरी साबित हुए हैं, इसलिए इन मुददों पर लिखने के लिए फीचर की शैली को समझना जरूरी है।
फीचर लेखन में ध्‍यान रखने योग्‍य बातें:
·         पहले मुददे को चुनो/उससे संबंधित सभी तथ्‍य/जानकारियां, आंकड़ें, बातचीत, केस स्‍टडी या संबंधित घटना या क्षेत्र का दौरा करने के बाद आकर्षक लीड/इंट्रो बनाओ। फीचर लेखन में कोई केस स्‍टडी, दृश्‍य या उदाहरण इंट्रो या लीड के रूप में अच्‍छी शुरूआत हो सकते हैं। उदाहरण के लिए राजस्‍थान में लड़की की पैदायश पर शोक मनाने और लड़के के जन्‍म पर थाली बजाकर स्‍वागत करने जैसी परंपराओं पर फीचर की शुरूआत दृश्‍य के वर्णन से अधिक पठनीय बन सकती है। इसी प्रकार लड़कियों के पक्ष में माहौल बनाने के प्रयासों पर फीचर की शुरूआत केस स्‍टडी से करने से लेख की सत्‍यता उभर कर आएगी।
·         अच्‍छी लीड/इंट्रो के बाद दूसरे-तीसरे पैरे में उत्‍सुकता कायम रखते हुए तथ्‍यों को खोलो। फीचर में रूचि और उत्‍सुकता को बनाए रखने के लिए उसे पिरामिड स्‍टाइल में लिखना यानी पहले थोड़ी जानकारी फिर धीरे-धीरे छह 'क' के जवाब देते हुए बाकी ब्‍यौरा देने से रिपोर्ट पाठक को बांधने में सहायक साबित होती है। बीच-बीच में तथ्‍यों से संबंधित विभिन्‍न लोगों के कथनों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इस से फीचर संतुलित करने में मदद मिलती है।
·         फीचर लेखन में एक सूत्र पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। मुददे से जुड़े विभिन्‍न व्‍यक्तियों के हवाले से जानकारी और सूचनाएं मिलनी चाहिए।
·         फीचर सफलता की कहानी का हो या विफलता यानी आलोचनात्‍मक। सजावटी भाषा या कलिष्‍ठ भाषा का इस्‍तेमाल न करें। अक्‍सर देखने में आता है कि फीचर में दृश्‍य और व्‍यक्तित्‍व के बखान में अधिक विशेषणों का सहारा लिया जाता है। विशेषणों और सजावटी शब्‍दों का इस्‍तेमाल भ्रामक हो सकता है। याद रहे पाठक/श्रोता केवल सीधी और सरल भाषा ही समझ पाता है।
·         फीचर में चित्रों, ग्राफिक्‍स और आंकडों का इस्‍तेमाल अधिक हो सकता है। इस प्रकार के चित्र का इस्‍तेमाल करें जो फीचर के निचोड़ को प्रदर्शित करे।
·         फीचर में ग्राफ, चार्ट और आंकडों का इस्‍तेमाल भी होता है। लेकिन इस प्रकार के चार्ट या तालिकाएं दें जिसे सरल और स्‍पष्‍ट रूप से समझा जा सके।
·         लोगो की भावनाओं के प्रति संवदेनशील रहे। उनकी अभिव्‍यक्ति में भाषा का खास ध्‍यान रखें।
·         लिखने के बाद स्‍वयं पाठक बनकर अपने लेख को पढ़ना और देखना कि क्‍या मैं इसी प्रकार की रिपोर्ट पढ़ना चाहता हँ, फीचर में सुधार की संभावना बढाता है। क्‍या यह अपेक्षा के अनुरूप रूचिकर और महत्‍वपूर्ण है क्‍या इसे जगह मिल सकती है? याद रहे पाठक लेख को भी देखना और महसूस करना चाहता है न कि महज थोपा जाना यानी जुड़ाव की कड़ी होनी चाहिए।
·         अब एक बार के लिए पाठक/उपभोक्‍ता से वास्‍तुकार बने और लेख के ढांचे की जांच करें। क्‍या उनमें सभी पहलू या कोण शामिल हैं। क्‍या कोई बिंदु छूटा तो नहीं या किन्‍हीं बिंदुओं का दोहराव या किन्‍ही पर अधिक फोकस तो नहीं किया गया। आपकी रिपोर्ट की लीड या इंट्रो पूरे फीचर की महत्‍ता के अनुरूप है? क्‍या लीड फीचर के बाकी विवरण से मेल खाती है? पहले पैरे में प्राथमिक फिर द्वितीय सूचनाओं और उसके बाद पृष्‍ठभूमि और फिर अतिरिक्‍त विवरण के साथ क्‍या फीचर संतुलित है।
·         क्‍या आंकड़ें या ग्राफिक्‍स ब्‍यौरे का समर्थन कर रहे हैं। एक बार वास्‍तुकार के रूप में रिपोर्ट का विश्‍लेषण हो जाए तो फिर मेकेनिक की भूमिका शुरू होती है जो अनावश्‍यक विवरण को निकालने का काम करती है।

अनावश्‍यक और कम महत्‍व की जानकारी को निकाल दें। अपने लिखे को संपादित करने यानी कांटने-छांटने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। समूचे सुधार के बाद फीचर रिपोर्ट फाइल करें।
फीचर कई प्रकार के हो सकते हैं व्‍यक्तित्‍व (प्रोफाइल) मानव रूचिकर, खोजपरक, शोधपरक (इन डेप्‍थ) और पृष्‍ठभूमि आधारित (बैक ग्राउंडर)
विचारात्‍मक आलेख

इस प्रकार का आलेख किसी एक विषय पर विस्‍तृत बहस को आमंत्रण देता है। किसी विशेष मुददों या विषयों पर लिखने वाले पत्रकारों के अलावा स्‍वतंत्र पत्रकार, विषय संबंधित विशेषज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता अनुनय और विस्‍तृत विश्‍लेषण के साथ अपने विचार रख सकते हैं। इनमें मुददे से जुडे विभिन्‍न सर्वे, आंकड़ें, कानून, जनहित याचिका या फिर दिशा निर्देशों के आधार पर अपने विचारों के विश्‍लेषण का प्रस्‍तुतीकरण किया जाता है। 'क्‍यों कम हो रही हैं लड़कियों, 'कानून में अमलीकरण में खामियां', 'जनगणना में कम हुआ लड़कियों का अनुपात' जैसे विस्‍तृत लेख बाल लिंग अनुपात के मुददे के विभिन्‍न पहलुओं पर जानकारी देते हैं। ध्‍यान रहें केवल शुष्‍क सूचनांए, आंकड़ें, नीतियों, लक्ष्‍यों या बजट ही इसकी वस्‍तु सामग्री नहीं होनी चाहिए। उसमें तथ्‍य और नई जानकारियां तथा सूचनांए होना भी अनिवार्य है।

सरल भाषा और छोटे वाक्‍यों के इस्‍तेमाल से कठिन विचार को भी लोगों तक पहुंचाया जा सकता है। लेखन में बस बात का ध्‍यान रखना जरूरी है कि कहीं प्रशासनिक या पुलिस अधिकारियों, वकीलों की शब्‍दावली तो आपकी रिपोर्ट का हिस्‍सा तो नहीं बन रही। ऐसे सभी शब्‍दों के अर्थों को सरल शब्‍दों में लिखना अधिक पठनीय होता है। छोटे वाक्‍य और ऐसे शब्‍द जिसका आम ज्ञान हो।

आकर्षक इंट्रो या लीड

इंट्रो इस प्रकार की होनी चाहिए जो पाठकों/श्रोताओं/दर्शकों को रिपोर्ट पढ़ने के लिए मजबूर कर सके। यह कई बार गंभीर तथ्‍यों के साथ आरम्‍भ हो सकती है। किसी घटना के दृश्‍य का विवरण पाठक को रोमांचित कर सकता है। सामाजिक और गंभीर मसलों पर उत्‍तेजित प्रश्‍नों से शुरूआत भी प्रभावी लीड मानी जाती है। इसके अलावा जिज्ञासा और कुतूहल पैदा करने वाले कथन भी पाठक को बाधने का काम करते हैं। ऐसी लीड के बाद के पैरा में संवाददाता विश्‍लेषण, टिप्‍पणी और अन्‍य विवरण के माध्‍यम से लेख का बहाव बनाए रखता है।

किसी प्रभावी या पी‍डित व्‍यक्ति की केस स्‍टडी या उसके ब्‍यौरे के संवेदनशील प्रसतुति भी विश्‍वसनीय लीड मानी जाती है। यह देखने सुनाने वाले के साथ जुड़ाव पैदा करती है।
इलैक्‍ट्रानिक मीडिया के साथ स्‍पर्धा में आज कल आखों देखा हाल की शैली में लिखी गई लीड भी लोकप्रिय है। लेकिन आकर्षक बनाने की उत्‍सुकता में अतिरेकता और झूठ का सहारा लेना उचित नहीं।

अन्‍नू आनंद विकास और सामाजिक मुददों के पत्रकार हैं। उनहोने प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया बेंगलूर से कैरियर की शुरूआत की । विभिन्‍न समाचारपत्रों में अलग-अलग पदों पर काम करने के बाद एक दशक त‍क प्रेस इंस्‍टीटयूट ऑफ इंडिया से विकास के मुददों पर प्रकाशित पत्र 'ग्रासरूट' और मीडिया मुददों की पत्रिका 'विदुर' में बतौर संपादक। मौजूदा में पत्रकारिता प्रशिक्षण और मीडिया सलाहकार के साथ लेखन कार्य किया।

Thursday, July 23, 2015

सम्पादन: खबर अखबारी कारखाने का कच्चा माल होती है

सम्पादन/ डॉ. महर उद्दीन खां
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रिपोर्टर समाचार लिखते समय उन सब बातों पर ध्यान नहीं दे पाता जो अखबार के और पाठक के लिए आवश्‍यक होती हैं। खबर को विस्तार देने के लिए कई बार अनावश्‍यक बातें भी लिख देता है। कई रिपोर्टर किसी नेता के भाषण को जैसा वह देता है उसी प्रकार सिलसिलेवार लिख देते हैं जबकि सारा भाषण खबर नहीं होता। इस भाषण से खबर के तत्व को निकाल कर उसे प्रमुखता देना सम्पादकीय विभाग का काम होता है।
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कोई भी खबर अखबारी कारखाने का कच्चा माल होती है और पत्रकारिता का केवल पहला चरण होती है। असल पत्रकारिता का आरंभ खबर का सम्पादकीय विभाग की मेज पर पहुंचना होता है। यहां इस कच्चे माल को तैयार माल बनाने के लिए सम्पादकीय विभाग की एक पूरी टीम होती है जिस में सब एडीटर , चीफ सब एडीटर न्यूज एडीटर और सहायक सम्पादक एवं सम्पादक भी शामिल  होते हैं जो आवश्‍यकतानुसार कारखाने के इंजीनियर ,मिस्त्री और कामगार का रोल निभा कर खबर को तैयार माल बनाने अर्थात उसे पाठकों की रुचि के अनुकूल बनाने में अपना योगदान करते है। खबर में कोमा फुल स्टाप के साथ साथ वर्तनी और व्याकरण की त्रुटियां भी सही करनी होती हैं। खबर पर रोचक शीर्षक  लगाना और उसे सही स्थान देना भी सम्पादन के अंतर्गत ही आता है। खबर का सम्पादन अगर सही नहीं हो पाता तो वह पाठक को अपील नहीं कर सकती। नमूना देखें-
मूल खबर-पुजारी की हत्या के विरोध में उन के भक्त लोगों ने सड़क पर यातायात जाम कर दिया। पुलिस द्वारा लाठियां चला कर उन्हें हटाया गया। बाद में पुलिस द्वारा अनेकों भक्तों को गिरफ्तार कर पुलिस लाइन भेज दिया।
संपादित खबर- पुजारी की हत्या के विरोध में उन के भक्तों ने यातायात जाम कर दिया। पुलिस ने लाठी चार्ज कर जाम खुलवाया और अनेक भक्तों को अरेस्ट कर पुलिस लाइन भेज दिया।
मूल वाक्य- मदन लाल की ईश्‍वर में आस्था नहीं है और न ही वह धर्म कर्म में विश्‍वास करता है।
संपादित- मदन लाल नास्तिक है।
रिपोर्टर समाचार लिखते समय उन सब बातों पर ध्यान नहीं दे पाता जो अखबार के और पाठक के लिए आवश्‍यक होती हैं। खबर को विस्तार देने के लिए कई बार अनावश्‍यक बातें भी लिख देता है। कई रिपोर्टर किसी नेता के भाषण को जैसा वह देता है उसी प्रकार सिलसिलेवार लिख देते हैं जबकि सारा भाषण खबर नहीं होता। इस भाषण से खबर के तत्व को निकाल कर उसे प्रमुखता देना सम्पादकीय विभाग का काम होता है। अनावश्‍यक शब्दों को हटाना भी सम्पादकीय विभाग का काम है। खबर छोटा करने के लिए उस की सबिंग करनी होती है। कभी कभी पूरी खबर को दोबारा लिखना होता है जिसे रिराइटिंग कहते हैं। इस सारी प्रक्रिया में यह भी ध्यान रखना होता है कि खबर की आत्मा का नाश न हो जाए। सम्पादन में एक खास बात और जिस पर ध्यान देना आवश्‍यक है वह यह कि खबर में कोई बात एक बार ही कही जाए रिपीट नहीं होनी चाहिए।
देखने में आया है कि कई पत्रकार किसी घटना की खबर लिखने से पहले एक पैाग्राफ की भूमिका लिखने के बाद खबर लिखते हैं उर्दू अखबारों में यह प्रवृति अधिक देखने को मिलती है। जैसे किसी लूट की खबर लिखने से पहले लिखते हैं कि आजकल शहर की कानून व्यवस्था भगवान भरोसे चल रही है, अपराधी सरे आम अपराध कर रहे हैं और पुलिस खामोश तमाशाई बनी है।  लोगों का पुलिस से विश्‍वास उठता जा रहा है। कई लोग यहां से पलायन करने पर विचार कर रहे हैं। ध्यान रहे खबर में भूमिका का कोई मतलब नहीं होता हां जब आप किसी विषय का विश्‍लेषण करें तो भूमिका या टिप्पणी लिख सकते हैं। कई पत्रकार खबर के साथ अपने विचार भी परोस देते हैं यह भी उचित नहीं है। किसी वारदात पर अपनी ओर से कोई निर्णय देना भी उचित नहीं है। साभार: www.newswriters.in
-डॉ. महर उद्दीन खां लम्बे समय तक नवभारत टाइम्स से जुड़े रहे और इसमें उनका कॉलम बहुत लोकप्रिय था. हिंदी जर्नलिज्म में वे एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं संपर्क : 09312076949 email- maheruddin.                           

Monday, January 12, 2015

लेखन के विविध आयाम

वर्चुअल क्लास/ गोविन्द सिंह 
लेखन का संबंध मानव सभ्यता से जुड़ा है। जब आदमी के मन में अपने आप को अभिव्यक्त करने की ललक जगी होगी, तभी से लेखन की शुरुआत मानी जा सकती है। सवाल यह पैदा होता है कि हम क्यों लिखते हैं? कुछ लोग कहते हैं, अपने मन को हलका करने के लिए लिखते हैं, जैसा कि कविवर सुमित्रानंदन पंत ने कहा, ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान’। लेकिन ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं, कि हम तब लिखते हैं, जब दुखी होते हैं? या तब, जब जरूरत से ज्यादा खुश होते हैं? या तब, जब हम अपनी कोई ऐसी बात औरों के साथ बांटना चाहते हैं, जिसे और लोग नहीं जानते। लेखन की इन्हीं जरूरतों से साहित्य की भी उत्पत्ति होती है और पत्रकारिता की भी। इसलिए एक तरफ लेखन को नितांत वैयक्तिक क्षणों में आत्माभिव्यक्ति माना जाता है तो दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं, जो यह कहते हैं कि लेखन दूसरों को बताए-सुनाए बिना संभव ही नहीं है। एक अमेरिकी अखबार ने बीस अलग-अलग लेखकों से लेखन का अर्थ पूछा तो सबने अलग-अलग अर्थ बताया। हेनरी मिलर नामक उपन्यासकार ने कहा कि लेखन अपने आप में एक पुरस्कार है। तो महान उपन्यासकार फ्रेंज काफ्का का कहना था कि लेखन नितांत एकाकीपन है, अपने आपको तलाशने की कोशिश। एक और उपन्यासकार कार्लोस फ्यूंटेस कहते हैं, लेखन खामोशी के खिलाफ संघर्ष का नाम है। लेकिन ऐसे लेखक भी हैं, जिनका मानना है कि लेखन संचार है, आत्माभिव्यक्ति नहीं।
2. पत्रकारीय लेखन एवं सृजनात्मक लेखन
भाषा और साहित्य की पुस्तकों में आपने पढ़ा होगा कि साहित्य दो प्रकार का होता है:
ज्ञान का साहित्य
ऊर्जा का साहित्य
ज्ञान का साहित्य यानी वे तमाम विषय जिनसे हम कुछ कुछ सीखते हैं, जानकारी प्राप्त करते हैं। मसलन इतिहास, भूगोल और ज्ञान-विज्ञान की तमाम विधाएं। जिनका आधार सूचना या जानकारी या ज्ञान होता है। जबकि ऊर्जा का साहित्य हमारी सृजनात्मक ऊर्जा को जगाता है। हमें सृजनात्मक स्तर पर ऊर्जस्वित करता है। मसलन- कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि। सृजनात्मक साहित्य का संबंध हमारे संवेगों से होता है, हमारी जानकारियों या सूचनाओं से नहीं।
इससे यह बात निकलती है कि जहां तक सृजनात्मक साहित्य का संबंध है, उसमें आत्माभिव्यक्ति प्रमुख कारक है, जबकि ज्ञान के साहित्य में आपके पास जो ज्ञान या जानकारी है, उसे दूसरे तक पहुंचाना प्रमुख कारक है। तो सवाल यह है कि पत्रकारीय लेखन क्या है? पत्रकारिता में हम दोनों तरह के साहित्य को प्रकाशित करते हैं, और अनेक बार कोई सूचना या जानकारी कोरी जानकारी रह कर संवेगों में लिपट कर पाठक तक पहुंचती है, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि पत्रकारिता विशुद्ध रूप से किस तरह का साहित्य है? कभी वह एकदम जानकारी भर होता है तो कभी कविता-कहानी से भी ज्यादा सृजनात्मक। यदि हम अखबार के पन्नों पर छपने वाली सामग्री को भी इतिहास-भूगोल की किताबों की तरह से लिखेंगे तो शायद वह बेहद उबाऊ हो जाएगा। फिर हम अपने अखबारों में कविता-कहानी भी छापते हैं तो समसामयिक घटनाओं पर आधारित लेख और हर रोज घटने वाली घटनाओं का रोजनामचा भी। जो भी हो, जैसा कि हमारे संस्कृत ग्रंथ कहते हैं, साहित्य में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह है सह हित का भाव। इसके बिना सृजनात्मक लेखन संभव है और ही पत्रकारीय लेखन।
हम यहां सृजनात्मक लेखन की बारीकियों में जाकर पत्रकारीय लेखन तक ही अपने को सीमित रखेंगे। भलेही हम पत्रकारिता में हर तरह के साहित्य को प्रकाशित करते हैं, भलेही हम अपने रिपोर्ताज को, संस्मरणों को, रेखाचित्रों को सृजनात्मक बनाकर प्रकाशित करते हों, लेकिन वास्तव में वे हमारी जानकारी के परिक्षेत्र को ही बढ़ाते हैं। इसलिए उसे साहित्य नहीं, साहित्य का कच्चा माल कहा जाता है। अत: समग्रता में पत्रकारिता को ज्ञान का साहित्य ही माना जाएगा।
प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर ने एक बार रिपोर्ट और कहानी के फर्क को समझाने के लिए एक कहानी सुनाई। एक बार एक राजा को कोई असाध्य बीमारी हुई। देश भर से वैद्य बुलाए गए। सबसे बड़े राजवैद्य ने उपाय सुझाया कि मानसरोवर के हंसों का मांस खिला कर ही राजा को इस असाध्य बीमारी से बचाया जा सकता है। राजा के सिपाही मानसरोवर पहुंचे अपने तमाम लाव-लश्कर के साथ। फौजियों ने मोर्चा लिया और अपनी राइफलें ताने हुए सरोवर की तरफ निकले। उन्हें देखते ही हंस दूर भाग निकले। सिपाही रोज तैयार होकर सरोवर के पास जाते और हंस दूर भाग जाते। सिपाही निराश होकर अपने बेसकैंप में लौट आते। यहां तक वास्तविक कहानी है, जिसे रिपोर्ट बनाकर अखबार के पन्नों पर छापा जा सकता है कि मानसरोवर से फौजी बैरंग लौट आए। लेकिन कहानीकार यहीं चुप होकर नहीं बैठ जाता। वह अपनी कल्पना को दौड़ाता है। कहानी यों बनती है: लगातार सात दिन तक कदम-ताल करने के बाद जब फौजियों को सफलता नहीं मिली तो एक दिन एक सिपाही के दिमाग में एक विचार आया। और उसकी युक्ति काम कर गई। आठवें दिन फौजी हंसों का शिकार करने में कामयाब हो गए। कैसे? ऐसे कि आठवें दिन फौजी अपने पारंपरिक वेश में बंदूक ताने जाकर साधुओं के वेश में सरोवर के पास गए। और आज हंस उन्हें देख कर भागे नहीं, पास आकर दाना चुगने लगे। और मौका देखते ही फौजियों ने उन्हें दबोच लिया। यानी हंसों के विश्वास का हनन करके वे अपने राजा को बचाने में कामयाब हुए। यह कहानी है, जो हमें झकझोरती है, हमारे मर्म का स्पर्श करती है।   
3. पत्रकारीय लेखन के विविध रूप
पत्र-पत्रिकाओं में हम अनेक प्रकार की सामग्री प्रकाशित करते हैं. सबसे ज्यादा तो खबरें ही छपती हैं. जाहिर है की उन्हें लिखने का भी एक ख़ास तरीका होता है. उसमें हम आम तौर पर सीधे-सीधे, बिना किसी लाग-लपेट के लिख देते हैं. उसमें भाषा को चिकनी-चुपड़ी बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. फिर खबरे भी कई किस्म की होती हैं. अर्थात कुछ खबरे ऐसी भी होती हैं, जिन्हें मार्मिक भाषा में लिखना होता है. खैर यह सब हम रिपोर्टिंग वाले पर्चे में पढेंगे, यहाँ हम उन्हीं विधाओं को ले रहे हैं, जो रिपोर्ट के इतर हैं और जिन्हें रूढ़ अर्थों में लेखन के रूप में जानते हैं. यानी ये वे विधाएं हैं, जिन्हें अखबार में नौकरी किये बिना भी लिखा और छपवाया जा सकता है. इनमें से कुछ रूपों का हम यहाँ उल्लेख कर रहे हैं:
3.1. फीचर
3.1.1. फीचर क्या है
मोटे तौर पर समाचार पत्रों में खबर के इतर जो कुछ छपता है, वह फीचर की परिधि में आता है. या यह भी कहा जा सकता है कि समाचार पत्रों में जो बड़े आलेख छपते हैं, वे फीचर कहलाते हैं. लेकिन यहाँ हम विषय का कुछ और परिसीमन करते हुए, फीचर के उसी अर्थ को लेते हैं, जहां से उसकी शुरुआत हुई थी. 
एक और लेखक कहते हैं, मानव की भावनाओं तथा मन को उत्प्रेरित करने वाला लेख फीचर कहलाता है. एक और लेखक के शब्दों में, मनोरंजक ढंग से लिखे गए लेख को फीचर कहते हैं.
जेम्स लेविस के शब्दों में: फीचर समाचारों को नया आयाम देता है, उनका परीक्षण करता है, विश्लेषण करता है, तथा उन पर नए ढंग से प्रकाश डालता है. 
3.1.2. फीचर के रूप
फीचर के भी अनेक रूप होते हैं. उनके अलग से परिशिष्ट छपते हैं, रोज-ब-रोज अखबार के पन्नों में खबरों के बीच भी वे छपते हैं. कुछ स्थायी किस्म के फीचर होते हैं तो कोइ एकदम सामयिक किस्म के फीचर. यहाँ हम आपको तमाम किस्म के फीचरों की जानकारी दे रहे हैं:
3.1.2.1.सामान्य फीचर: लोकरूचि की कोई भी सूचना या विवरण इस श्रेणी में रखी जा सकती है. लेकिन उसे पढने- सुनाने में पाठकों की रूचि होनी चाहिए. उससे पाठको की जानकारी, संवेदना का दायरा बढना चाहिए. किसी व्यक्ति, स्थान के बारे में हो सकता है, किसी त्यौहार, उत्सव, महोत्सव, कार्यक्रम के बारे में भी फीचर हो सकता है. ऐसे समाजों, जनजातियों, रीति रिवाजों के बारे में भी फीचर बन सकता है, जिनके बारे में लोग नहीं जानते या जिनमें जनता की दिलचस्पी होती है. मसलन, बस्तर या संथाल परगना के आदिवासियों की जीवन शैली हमेशा ही फीचर का विषय बनती है. अंदमान की कुछ जातियां, जो शहरी समाज से दूर रहती हैं, सदैव ही लेखन का विषय बंटी हैं. इसी तरह यदि किसी देश का महोत्सव अपने देश में हो रहा है या अपने देश का महोत्सव उनके देश में हो रहा है, तो वह भी फीचर के रूप में कवर हो सकता है. यदि कोई व्यक्ति अचानक चर्चा में आ गया है, पुरस्कृत हो गया है, बीमार चल रहा है, देहांत हो गया है, तो उसके बारे में भी फीचर छपता है. इतिहास, पुरातत्व, भूगर्भशास्त्र, साहित्य-संस्कृति, कला-संगीत सब विषयों पर फीचर लिखे जा सकते हैं. इसी तरह पर्यटन, पर्यटन स्थलों, नदी-पहाड़ों, समुद्र, पर्यावरण, मौसम ये कुछ ऐसे विषय हैं, जिन पर हमेशा फीचर लिखे जा सकते हैं. सबसे स्थायी फीचर कैलेण्डर को देखकर लिखे जा सकते हैं, जब आप महीने पहले किस तीज-त्यौहार या दिवस के बारे में फीचर लिख सकते हैं. ये सारे फीचर सामान्य फीचर की श्रेणी में आते हैं.
3.1.2.2.भेंटवार्ता, साक्षात्कार या इंटरव्यू: किसी व्यक्ति के साथ किसी विशेष मकसद के साथ की गयी बातचीत भेंटवार्ता कहलाती है. इसमें व्यक्ति प्रमुख होता है. वह ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो महत्वपूर्ण हो. जिसके बारे में जानने-सुनने की दिलचस्पी पाठकों में होनी चाहिए. भेंटवार्ता भी मुख्यतः दो प्रकार की होती है:
क.       ऐसे व्यक्ति के साथ वार्ता, जो बहुत महत्वपूर्ण हो. जिसके बारे में लोग यों ही जानना चाहते हैं. उस व्यक्ति के साथ किसी अवसर पर भी वार्ता हो सकती है, और बिना अवसर के भी. ऐसा व्यक्ति अपने क्षेत्र में बहुत नामी होता है. जैसे आप मुंबई गए, और आपको वहाँ दिलीप कुमार मिल गए तो आपने उनका बड़ा सा  इंटरव्यू लिया. या आप पाकिस्तान गए, वहाँ के बड़े कहानीकार इंतिजार हुसैन से मिल आये, यह इंटरव्यू कहीं भी छप जाएगा. या किसी व्यक्ति को नोबेल पुरस्कार मिल गया, भारत रत्ना मिल गया, ऐसे व्यक्ति का इंटरव्यू कोइ भी छापना चाहेगा.
ख.      घटना-प्रधान इंटरव्यू: जब भी कोई बड़ी घटना घटती है, हम उसके बारे में आलेख छापते हैं, समाचार विश्लेषण छापते हैं, ताकि पाठक को यह समझा सकें की वह घटना क्यों घटी, कैसे घटी या उसका क्या प्रभाव भविष्य में पड़ सकता है? ऐसे समय पर हम साप्ताहिक पत्रिकाओं की आवरण कथाएं भी छापते हैं. तब हमें ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है, जो उस घना से सम्बंधित हो, या उस विषय का विशेषज्ञ हो. ऐसे लोगों के इंटरव्यू भी हम छापते हैं. लेकिन जरूरी नहीं कि ऐसे इंटरव्यू हमेशा प्रश्नोत्तर शैली में ही हों. लेकिन ऐसे व्यक्ति का इंटरव्यू छपने से पहले उनका संक्षिप्त परिचय या पदनाम देना जरूरी होता है. ऐसा इंटरव्यू एक-दो पेज का भी हो सकता है और एक बॉक्स में भी.
3.1.2.3.रिपोर्ताज: इसे आप रिपोर्ट की बड़ी बहन भी कह सकते हैं. जब आप किसी इलाके, घटना या प्रवृत्ति की गहन छानबीन करते हैं, तमाम तरह के तथ्य एकत्रित करते हैं, उन्हें सुन्दर शब्दों में पिरो कर एक सुन्दर शब्द-चित्र प्रस्तुत करते हैं तो इसे रिपोर्ताज कहते हैं. यह अंग्रेज़ी के Reportage का हिन्दी प्रतिरूप है. बाढ़, सूखा, प्राकृतिक आपदा, युद्ध, दंगा या  किसी तरह के संकट से प्रभावित इलाके का समग्र चित्र प्रस्तुत करने वाली रिपोर्ट को रिपोर्ताज कहते हैं. जरूरी नहीं कि इलाका संकटग्रस्त ही हो, संकट की जगह कोई सकारात्मक बात भी हो सकती है. जाहिर है इसका आकार सामान्य रिपोर्ट से बड़ा होता है. यदि गंभीरता से लिखा जाए यह साहित्य की कोटि में आ सकता है. १९७४ के बिहार आन्दोलन पर  कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखे गए रिपोर्ताज, रेणु द्वारा ही नेपाल की क्रान्ति पर लिखे गए रिपोर्ताज अपने आप में दुर्लभ हैं. धर्मवीर भारती द्वारा बांग्लादेश युद्ध के दौरान रणभूमि से लिखे गए रिपोर्ताज आज सृजनात्मक साहित्य की धरोहर हैं. इसके साथ ही विशेष रिपोर्ट, गहरी छानबीन परक रिपोर्ट या खोजबीन परक रिपोर्ट भी अखबारों में छपती हैं, जिनमें समाचार-विश्लेषण, फीचर और लेख के गुण समाहित होते हैं. इन्हें लिखने के लिए भी एक अलग तरह के भाषिक सौष्ठव की जरूरत होती है.
3.1.2.4.संस्मरण: साहित्यिक पत्रकारिता में संस्मरण एक अत्यंत लोकप्रिय विधा है. पत्रिकाओं में अक्सर पुराने दिनों के बारे में, पुराने साहित्यकारों के बारे में संस्मरण छपा करते हैं. संस्मरण का लेखक एक दर्शक, साक्षी होता है. किसी अन्य व्यक्ति, उससे सम्बंधित किसी रोचक, आकर्षक और प्रेरक घटना को पूरी आत्मीयता के साथ याद करता है. संस्मरण में लेखक अपनी भावना और संवेदना के सूक्ष्म और गहरे स्टारों पर औरों से सम्बंधित अपने अनुभव तथा अनुभूति को भी अभिव्यक्ति देता है. संस्मरण का सम्बन्ध अतीत से होता है और अतीत, चाहे कितना ही दुखदायी क्यों न हो, सुनने में अच्छा लगता है. इसलिए संस्मरण हमेशा ही प्रासंगिक रहेगा और इसकी मांग भी बनी रहेगी. संस्मरण के भी दो रूप हैं: 1- Reminiscences- जब व्यक्ति अपनी स्मृति द्वारा चुने गए जीवन-प्रसंगों में स्वयं अपने ही बारे में बात करता है तो उन्हें रिमिनिसेंसिज कहा जाता है.  2- Memoirs- जब लेखक किसी अन्य व्यक्ति को अपनी भावनापूर्ण अभिव्यक्ति  का आधार बनता है तो इन्हें मेम्वायर्स कहा जाता है. हिन्दी में दोनों के लिए संस्मरण ही कहा जाता है. साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर संस्मरण छपते हैं. यदि सृजनात्मक तरीके से लिखे जाएँ तो ये भी स्थायी  तौर पर साहित्य की धरोहर बन जाते हैं. बंगला और मराठी में संस्मरण का काफी महत्व है. वहाँ दुर्गा पूजा और गणपति के अवसर पर निकलने वाले विशेषांकों में बड़ी तादाद में संस्मरण छपते हैं. हिन्दी में भी १९९१ से पहले की पत्र-पत्रिकाओं में संस्मरण काफी छपते थे.
3.1.2.5.व्यक्ति चित्र/ शब्द चित्र/ रेखाचित्र: व्यक्ति, स्थान या प्राणी के चरित पर आधारित रचना को रेखाचित्र या प्रोफाइल कहते हैं. यह शब्द चित्रकला से आया है. वहाँ किसी व्यक्ति, वस्तु या दृश्य का पेन, पेन्सिल या कूची  से रेखांकन किया जाता है. जबकि साहित्यिक पत्रकारिता में यह काम शब्दों के जरिये होता है. इसीलिए इसे शब्द-चित्र भी कहा जाता है. अखबारों के साप्ताहिक परिशिष्टों में चर्चित व्यक्तियों के चरित-चित्रण की परंपरा अब भी है लेकिन उनमें वह साहित्यिक पुट नजर नहीं आता. जबकि यदि आप महादेवी वर्मा के अपने जीव-जंतुओं के बारे में लिखे गए रेखाचित्र पढ़ें तो उनमें एक शाश्वत सौन्दर्य दिखाई पड़ता है. इसीलिए साहित्य की पुस्तकों में उनकी जगह सुरक्षित है. रेखाचित्र में विषय का कोई बंधन नहीं होता लेकिन यह अमूमन एक ही विषय पर केन्द्रित होता है. अनेक बार रेखाचित्र भी संस्मरण पर आधारित होते हैं लेकिन अखबारी प्रोफाइल तथ्यों पर ज्यादा आधारित होते हैं और उन्हें सामयिक जरूरत के हिसाब से लिखा जाता है. यदि भाषा सुन्दर हो और चित्रण खूबसूरत तो रेखाचित्र को साहित्य में आने से कोई रोक नहीं सकता.
3.1.2.6. मृत्यूपरांत जीवनी: अंग्रेज़ी में इसे ओबिचुअरी या ओबिट कहते हैं. आप अक्सर देखते होंगे कि जब भी किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का देहांत होता है, तत्काल उसकी जीवनी छाप जाती है. यही ओबिचुअरी है. जाहिर है, इसके लिए सम्पादकीय विभाग को पहले से ही तैय्यारी करके रखनी पड़ती है. पेशेवर पत्र-प्रतिष्ठानों में सन्दर्भ या रीसर्च विभाग होते हैं, जहां  इसकी तैयारी चलती रहती है. हरेक सेलिब्रिटी या महत्वपूर्ण व्यक्ति के बारे में छपने वाली सूचनाओं या खबरों या फीचरों की एक फ़ाइल बनाई जाती है. उसमें स तरह की जानकारियाँ जमा होती रहती हैं. जब भी कोइ महत्वपूर्ण बात घटित होती है, इस फ़ाइल में रखी गयी क्लिपिंग्स काम आती हैं. जब कोई व्यक्ति बीमार चल रहा होता है, या वयोवृद्ध है, तो उसकी जीवनी या प्रोफाइल तैयार कर ली जाती है और जरूरत पड़ने पर काम आती है.
3.1.2.7.   यात्रा वृत्तान्त: पत्र-पत्रिकाओं में यात्रा वृत्तान्त भी खूब छापते हैं. व्यक्ति के भीतर उन जगहों, व्यक्तियों के बारे में जानने की हमेश इच्छा होती है जिन्हें वे नहीं मिले हैं या जहां वे नहीं गए हैं. यदि आप किसी जगह गए हैं या किन्हीं व्यक्तियों से मिले हैं तो उनके बारे पढने की भी आपके मन में उत्कंठा होती है. अपनी यात्रा को हम तुरंत किसी और के यात्रा संस्मरण से मिलान करके देखना चाहते हैं. इसलिए संस्मरण की ही तरह यात्रा वृत्तान्त का महत्व भी हमेशा ही बना रहेगा. यात्रा वृत्तान्त में भी स्थायी साहित्य में जगह बनाने की प्रबल सम्भावनाएँ होती हैं, बशर्ते कि वह अच्छी तरह से लिखा जाए. लेकिन गर्मियों में हिल स्टेशनों के बारे में छपने वाले वृत्तान्त बहुत सामान्य श्रेणी के वृत्तान्त होते हैं, जिनका साहित्यिक महत्व नहीं होता है. फिर भी यदि आप सामान्य स्तर का यात्रा विवरण लिखना भी जानते हैं तो उससे अखबार की जरूरत पूरी होती है. भारतीय भाषाओं के साहित्य में, खासकर बांगला में यात्रा वृत्तान्त की समृद्ध परम्परा है. हिन्दी में भी पत्र-पत्रिकाएन यात्रा साहित्य से भरी रहती हैं. यात्रा वृत्तान्त की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि आप किस हद तक किसी स्थान या स्थानों का हू-ब-हू चित्रण कर पाते हैं. इसलिए किसी भी यात्रा लेखक को अपने साथ डायरी जरूर रख लेनी चाहिए और उसमें स्थानों के बारे में जरूरी सूचनाएं, जगहों के ठीक-ठीक नाम और वहाँ की विशेषताएं जरूर लिख लेनी चाहिए. स्थानीय लोगों से बातचीत करनी चाहिए, उनके विचारों को भी नोट कर लेना चाहिए. ताकि लिखते समय आप उसे समेकित रूप से प्रस्तुत कर सकें.
3.1.2.8.समीक्षा: हर अखबार-पत्रिका में कई तरह की समीक्षाएं छपा करती हैं. फिल्म समीक्षा, कला समीक्षा, नृत्य समीक्षा, संगीत समीक्षा, नाटक समीक्षा, मंडी समीक्षा, शेयर बाजार समीक्षा, टीवी समीक्षा, रेडियो समीक्षा आदि. जो भी चीज चर्चा में हो, उसकी समीक्षा हो सकती है. या जिसमें लोगों को दिलचस्पी हो, जिसमें लोगों को सलाह-मशविरे की जरूरत हो, उसकी समीक्षा होती है. मसलन कोई नई किताब प्रकाशित होती है, पाठकों को क्या पता की किताब कैसी है. ऐसे में यदि किसी अखबार में समीक्षा छपती है और उसमें किताब की तारीफ लिखी होती है तो लोग तुरंत उसे खरीदते हैं. बहुत से लोग केवल समीक्षा पढ़कर ही किसी किताब के बारे में जानकारी ले लेते हैं. बहुत से लोग समीक्षा पढ़कर ही फिल्म देखने जाते हैं. समीक्षा का मतलब है, किसी चीज को अच्छी तरह से देखना. उसके गुण-दोषों के साथ देखना. यह तभी संभव हो सकता है, जबकि आप उस विषय के जानकार हों, विशेषज्ञ हों. आप खुद ही विषय के जानकार नहीं है और पाठकों को अच्छे-बुरे की सलाह दे रहे हैं, तो बात कैसे बनेगी? इसलिए किसी भी समीक्षक के लिए अपने विषय की गहरी जानकारी होनी जरूरी है. यदि आप नाटक या संगीत के समीक्षक बनाना चाहते हैं तो आपको इन कलाओं की बारीक पकड़ तो होनी ही चाहिए. तभी आपकी बात में प्रामाणिकता भी आ पायेगी.
3.1.2.9.फोटो फीचर: फीचर का एक रूप फोटो फीचर भी है, जिसमें फीचर अपने असली रूप में प्रकट होता है. यहाँ शब्द कम होते हैं, उनकी जगह सुन्दर छायाचित्र होते हैं. लेकिन चित्रों को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त भी करना होता है. जहां हम फीचर से यह अपेक्षा करते हैं कि उसमें शब्दों के जरिये किसी व्यक्ति, स्थान या परिस्थिति का चित्रण किया गया हो, वहीं फोटो फीचर में चित्र पहले से ही उपलब्ध होते हैं. जो रिक्त स्थान रह जाते हैं, उन्हें ही शब्दों के जरिये भरना होता है. इसलिए यहाँ अत्यंत सुन्दर और प्रासंगिक शब्दों की जरूरत होती है. यहाँ हमारे पास शब्दों के लिए जगह बहुत ही कम होती है. कई बार कैप्शन या चित्र परिचय की तरह से विवरण प्रस्तुत करना होता है. इसलिए यहाँ भाषा-शैली की विशेष महत्ता है. सुन्दर चित्रों के बीच असुंदर शब्द नहीं चल सकते.
3.1.2.10.                       इतर विधाएं: इनके अतिरिक्त और भी अनेक विधाएं फीचर के अंतर्गत आती हैं. हास्य-व्यंग्य के कालम, कार्टून कथाएं, फिल्मी या राजनीतिक गॉसिप, फीचर परिशिष्टों में छपने वाले परामर्शदाताओं के प्रश्नोत्तर के कॉलम, धर्म से सम्बंधित सामग्री और ज्योतिष के कॉलम, कविता के कॉलम और साहित्यिक रचनाएं भी छपती हैं. इन विधाओं का अपना महत्व है. इनमें से बहुत सी भलेही पत्रकारीय रचनाएं न हों लेकिन उनके बिना अखबार नहीं चलता. वे अखबार की जरूरत होते हैं. उनका वही महत्व है, जो भोजन के साथ अचार का होता है.        
3.1.3.     फीचर के स्रोत: सवाल यह है की आखिर फीचर  के विषय कहाँ से आते हैं. जहां तक खबरों का सवाल है, उन्हें किसी का इन्तजार नहीं करना पड़ता. वे खुद आसमान से टपक पड़ती हैं, इसलिए आपको उन्हें कवर करना ही पड़ता है. इसी तरह लेखादि भी खबरों से ही जुड़े होते हैं. उन्हें आपको तलाशना नहीं पड़ता. आपको उपलब्ध घटनाओं में से सिर्फ चयन करना होता है. लेकिन फीचर के लिए आपको विषय तलाशने होते हैं. तो कहाँ से तलाशें विषय? यहाँ हम कुछ सूत्र दे रहे हैं: १- खबरें अर्थात अखबार, पत्रिकाएं, टीवी, रेडियो या इन्टरनेट, जहां भी खबरें मिलें, उन्हें ध्यान से देखी, सुनिए, आपको जरूर फीचर के लायक विषय मिलेंगे. कोई नया मेहमान शहर में आया हो तो आप उनका इंटरव्यू ले सकते हैं. किसी व्यक्ति के बारे में रेखाचित्र लिख सकते हैं. या कुछ भी. २- लोग-बाग़: लोग भी फीचरों के महत्वपूर्ण स्रोत हैं. उनसे आपको तरह-तरह की जानकारियाँ मिलती हैं. कई बार लोग स्वयं भी फीचर के विषय होते हैं, बस जरूरत इस बात की है कि आप उन्हें पहचानें. ऐसे छुपे रुस्तम आपको अपने आसपास मिल जायेंगे, जिन्होंने अपने जीवन में संघर्ष किया हो, जिन्होंने सिर्फ अपने संघर्ष की बदौलत जीवन का कोइ बड़ा मुकाम हासिल किया हो. इसी तरह लोगों की सफलता की कहानियां भी अच्छा फीचर बनती हैं. ३- स्थान: जगहें भी फीचर के बेहतर स्रोत हैं. किसी इलाके में कोई आपदा आयी हो, कोइ आन्दोलन चल रहा हो या किसी नई बीमारी का संक्रमण फैला हो, उस जगह के बारे में आसानी से फीचर लिखा जाता है. आदिवासी इलाके, पर्यटक स्थल, पुरातात्विक महत्व के स्थल हमेशा फीचर के विषय बनते हैं. इसलिए जब भी कहीं घूमने-फिरने जाएँ, जरूर उस इलाके के बारे में जानकारियाँ एकत्र करें. ४- जीव-जंतु: जीव जंतु भी आपको लेख लिखने के लिए आकर्षित करते हैं. कोई गाय ज्यादा दूध दे रही हो, किसी इलाके में अचानक कोई दुर्लभ जीव दिखाई पड़े, किसी इलाके में मवेशियों को कोई  बीमारी हो जाए, तो वे फीचर का विषय बनते  हैं. ५- पुस्तकें: पुस्तकें हमें नई-नई जानकारियाँ देती हैं. जब कोई घटना घटती है, तो उससे सम्बंधित पुस्तक से हमें उसकी तह तक जाने में सुविधा होती है. यों भी पुस्तकें अपने आप में फीचर का विषय बनती हैं. ६- अनुसंधान: नए-नए अनुसंधानों के बारे में पाठकों को जानकारी देना भी पत्रकारिता का काम होता है. क्योंकि उनके ऊपर लोगों की नजरें लगी रहती हैं. उनसे मानव जाति को क्या-क्या फायदे होंगे और किस तरह से दुनिया बदल जायेगी, यह जानने की इच्छा सबकी रहती है. अनुसंधान केवल बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में ही नहीं होते, वे सामान्य लोगों के द्वारा भी होते हैं. खेत-खलिहानों में, छोटी-छोटी कर्मशालाओं में भी नई-नई चीजें खोजी जाती हैं, उन्हें प्रकाश में लाना भी फीचर लेखकों का काम होता है. ७- प्रकृति: प्रकृति के बदलते रंग अर्थात अलग-अलग मौसमों की छाता तो अपने आप में फीचर बनती ही हैं साथ ही प्राकृतिक आपदा, उसका बदलता व्यवहार, पर्यावरण, और मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते हमेशा से अध्ययन के विषय रहे हैं. इनके अलावा भी अनेक स्रोत हो सकते हैं फीचर के विषय जानने के लिए. बस जरूरत इतनी सी है कि आप अपने कान और आँख खुली रखें.
3.1.4.         फीचर की संरचना
फीचर की संरचना खबर से एकदम भिन्न होती है. खबर की संरचना के लिए यदि हम उलटा पिरामिड का उदाहरण देते हैं तो फीचर की संरचना इसके विपरीत चलती है. फीचर के मुख्यतः निम्न हिस्से होते हैं: १- शीर्षक २- इंट्रो यानी आमुख ३- विषय वस्तु या कहानी और ५- उपसंहार. इसका शीर्षक जहां अत्यधिक आकर्षक होता है, दूर से ही पाठक की संवेदनाओं को पकड़ लेता है, वहीं इंट्रो भी एकदम नया होता है. जरूरी नहीं की खबर की तरह सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ही शुरू में हों, असल बात यह है कि जो भी बात लिखी जाए, वह पाठक को पकड़ ले. कहानी की तरह वह अपरिहार्य होना चाहिए. खबर के शीर्षक की तरह वह १० मरे, २० घायल शैली का नहीं होना चाहिए. वह पाठक के दिल को छू ले, ऐसी कोशिश होनी चाहिए. इसी तरह फीचर का इंट्रो उत्सुकता जगाने वाला होना चाहिए. इसके बाद आती है फीचर की कहानी. वह बीच में टूटनी नहीं चाहिए. लघु कथा की तरह कसी होनी चाहिए. लगातार उत्सुकता बनी रहनी चाहिए. उसमें तथ्य भी होते हैं, उसमें लोगों के कथन भी होते हैं और सीख भी. फिर भी वह उबाऊ नहीं होता. और फिर आता है उपसंहार. जो पाठक को सोचने को मजबूर करे, वही सही उपसंहार है. वह कहीं न कहीं लगना चाहिए. वह बेकार न जाए. कभी-कभी ऐसे भी फीचर छापते हैं, जिन्हें पढ़कर आंसू आ जाते हैं. इसी में फीचर की कामयाबी है.
3.1.5.         फीचर-लेखन प्रक्रिया:
फीचर लिखने के लिए यह जरूरी है कि आप तथ्यों का संकलन ठीक से करें. डायरी रखें, एक-एक चीज नोट करें, हो सके तो टेप रिकॉर्डर रखें, कैमरा रखें. लोगों के संवाद उनकी अपनी भाषा में रिकॉर्ड करें. पहले घटना या विषय को पूरी तरह से आत्मसात करें और तब शब्दों में ढालें. लिखते समय कोशिश करें कि अपने विचार थोपने की जगह ज्यों का त्यों चित्र प्रस्तुत करें. दृश्य को शब्द दें. ऐसे दृश्य खींचें जो मार्मिक हों, जो पूरी कहानी का प्रतिनिधित्व करें. आमुख में जगी जिज्ञासाओं को विस्तार दें. तथ्यों और जानकारियों को कहानी की तरह पिरोयें. जबरदस्ती का कथन न ठूसें. कोई भी अप्रासंगिक सूचना न हो. वह नदी की तरह बहती हुई हो. उसमें भाषा का प्रवाह हो और भावनाएं बहती हों, तभी फीचर सफल होता है. कुल मिलाकर फीचर का केन्द्रीय तत्व भावना है. मानवीय रूचि न हो तो फीचर सफल नहीं हो सकता.   
3.2. लेख
दैनिक अखबार में फीचर के बाद सबसे ज्यादा छपने वाली विधा है लेख या आलेख. हर रोज सम्पादकीय पेज पर लेख छापा जाता है. लेख किसी भी अखबार की विचार शक्ति है. इसके न होने पर अखबार से बौद्धिक लोग नहीं जुड़ते. इसलिए अखबार के बौद्धिक कलेवर के लिए अच्छे व विचारोत्तेजक लेखों का छपना अनिवार्य होता है. सम्पादकीय पेज में आम तौर पर सम्पादकीय या अग्रलेख होते हैं. इनकी संख्या अलग-अलग हो सकती है. कुछ अखबार एक सम्पादकीय छापते हैं तो कुछ दो और कुछ तीन भी छापते हैं. सम्पादकीय के विषय अमूमन सुबह होने वाली संपादक-मंडल की बैठक में तय होते हैं. वे अक्सर सामयिक घटनाओं, मुद्दों और बहस के विषयों पर होते हैं. ऐसी घटनाएं जिन पर पाठक अपने प्रिय अखबार से यह अपेक्षा करे कि वह उस पेचीदा विषय पर उसका मार्गदर्शन करेगा. कोशिश होती है कि बहस के मुद्दों पर आपस में सहमति बन जाए. या फिर अखबार की सम्पादकीय नीति के अनुसार पक्ष लिया जाए. ऐसे मुद्दे अक्सर समाज में उछलते रहते हैं, जिन पर विभिन्न वर्गों में विवाद-बहस की स्थिति हो. इसलिए इस पृष्ठ को विचारपूर्ण होना ही चाहिए. सम्पादकीय पेज पर अक्सर दो-तीन लेख, टिप्पणियाँ, स्तंभ और सामयिक व्यंग्य भी छपते हैं. विदेशी अखबारों में आम तौर पर ये लेख स्टाफ के लेखक ही लिखते हैं. वहाँ बाहरी लेखकों के लेख ओप-एड पेज यानी सम्पादकीय पेज के सामने वाले पेज में छपते हैं, लेकिन भारत में, खासकर हिन्दी में ओप-एड बहुत ही कम अखबारों में हैं. इसलिए सम्पादकीय पेज में ही बाहरी लोगों के लेख भी छपा करते हैं. ये लेख भी अक्सर सामयिक विषयों पर होते हैं.
3.2.1. लेख क्या है?
लेख पत्रकारीय लेखन का सबसे पुराना रूप है. एक ज़माना था, जब राजनेता, विद्वान्, अध्यात्मिक संत, अकादमिक व्यक्ति या कलाकार अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन और प्रचार के लिए लेख लिखा करते थे. गांधी जी के विचार पहले पहल अखबारों में लेख के जरिये ही बाहर आये. लेख का सम्बन्ध अपने समय की बड़ी और जटिल समस्या से होता है. इस प्रकार किसी भी सामयिक विषय का विश्लेषणात्मक अध्ययन लेख है. फीचर की आत्मा जहां भावनाओं में बसती है, वहीं लेख की आत्मा बुद्धि में वास करती है. हालांकि लेख का जन्म भी भावना में हो सकता है लेकिन उसका पालन-पोषण बुद्धि के सहारे ही होना चाहिए. एक लेख का लेखक किसी वकील की तरह अपने मुद्दे पर तर्कों के साथ बहस करता है और पाठक को किसी नतीजे तक पहुंचाता है. यह समाचार-विश्लेषण और सम्पादकीय टिप्पणी का अग्रज है, क्योंकि इसका लेखक अपने विषय की पूरी छानबीन करते हुए पक्ष-विपक्ष के जरिये अपने उपसंहार तक आता है. यानी जिस अंत तक वह पाठक को ले जाता है, उसके तमाम पहलुओं से वाकिफ करवाता चलता है. इसकी भाषा तार्किक होती है. यह विशेष रिपोर्ट और फीचर से इस मायने में भिन्न होता है कि उसमें लेखक के विचारों को पर्याप्त प्रमुखता डी जाती है. ये विचार तथ्यों और सूचनाओं पर आधारित होते हैं, और लेखक इनके विश्लेषण और अपने तर्कों के जरिये अपनी राय प्रस्तुत करता है. लेख लिखने के लिए पर्याप्त तैयारी जरूरी होती है. विषय से सम्बंधित तमाम तथ्यों और सूचनाओं की जानकारी तो होनी ही चाहिए साथ ही उसकी पृष्ठभूमि का भी लेखक को पता होना चाहिए.
 3.2.2. लेखों के चयन का आधार
हर अखबार में लेख के चयन का आधार अलग-अलग होता है. कोई समसामयिकता के आधार पर लेख लिखवाता है, और कोई सेलिब्रिटी लेखकों को ढूँढता है. को कंटेंट पर ध्यान देता है, कोई बड़े नाम देखता है. फिर हर अखबार की अपनी सम्पादकीय नीति भी होती है. पुराने जमाने में लेखक लेख भेजते थे, और संपादक उनमें से चुनता था. अब ऐसा नहीं है. टीवी के आ जाने से तत्काल लेख देने की जरूरत होती है. इसलिए हर अखबार के लेखकों का अपना पैनल होता है. इसलिए उन्हीं में से लेख लिखवा लिया जाता है. दैनिक अखबार के सम्पादकीय पेज के लिए अमूमन सामयिक विषयों को तरजीह दी जाती है. कभी-कभार गंभीर और वैचारिक विषयों पर भी लेख दिए आते हैं. पर अब यह परम्परा क्षीण होती जा रही है.
लेख के चयन में जहां अच्छे विषय और लेखन शैली को वरीयता डी जाती है, वहीं अब सेलिब्रिटी को भी देखा जाता है. आज की व्यावसायिक पत्रकारिता में नाम का भी काफी महत्व है. पूंजीवाद व्यक्ति को काफी महत्व देता है. इसलिए यह भी देखा जाता है कि बात को उठाने वाला कौन है? किसके नाम से लेख पढ़ा जाएगा. हालांकि यह को अच्छा ट्रेंड नहीं है, लेकिन वक्त का तकाजा यही है.
3.2.3. लेख के विषय: आम तौर पर लेख के विषय हम रोज-ब-रोज की घटनाओं से ही खोजते हैं. यों, राजनीति, अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम, समाज और संस्कृति के मुद्दों से लेख के विषय मिलते हैं. लेख लिखने के विषय-क्षेत्र इस प्रकार हैं: राजनीति, अर्थ-व्यापार, खेल, विज्ञान-टेक्नोलोजी, कृषि, विदेश, कूटनीति, समर नीति, रक्षा, पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थय, फिल्म-मनोरंजन, अपराध, सामाजिक मुद्दे, क़ानून आदि.
3.2.4. लेख कैसे लिखें?
सबसे पहले विषय का चयन करें. बेहतर हो की अखबार के सम्पादक, या जहां आप उसे छपवाना चाहते हों, उससे सलाह-मशविरा कर लें. विषय से सम्बंधित सभी तथ्य संकलित कर लें. विषय का अध्ययन इतना गहरा हो कि उस पर आपका अपना कोई दृष्टिकोण जरूर हो. अपने पक्ष के विरुद्ध विचारों को भी जरूर समझ लें और अपनी अकाट्य दलीलों के सहारे उनका जवाब दें. तब जाकर अपने उपसंहार तक पहुंचें.
3.3 सम्पादकीय
लेख की ही तरह अखबार में सम्पादकीय भी अखबार के विचार पक्ष का द्योतक होता है. सम्पादकीय पेज में आम तौर पर सम्पादकीय या अग्रलेख होते हैं. इनकी संख्या अलग-अलग हो सकती है. कुछ अखबार एक सम्पादकीय छापते हैं तो कुछ दो और कुछ तीन भी छापते हैं. सम्पादकीय के विषय अमूमन सुबह होने वाली संपादक-मंडल की बैठक में तय होते हैं. वे अक्सर सामयिक घटनाओं, मुद्दों और बहस के विषयों पर होते हैं. ऐसी घटनाएं जिन पर पाठक अपने प्रिय अखबार से यह अपेक्षा करे कि वह उस पेचीदा विषय पर उसका मार्गदर्शन करेगा. कोशिश होती है कि बहस के मुद्दों पर आपस में सहमति बन जाए. या फिर अखबार की सम्पादकीय नीति के अनुसार पक्ष लिया जाए. ऐसे मुद्दे अक्सर समाज में उछलते रहते हैं, जिन पर विभिन्न वर्गों में विवाद-बहस की स्थिति हो. इसलिए इस पृष्ठ को विचारपूर्ण होना ही चाहिए. सम्पादकीय को आम तौर पर सम्पादक का विचार माना जाता है. लेकिन जरूरी नहीं की उसे सम्पादक ही लिखेगा. सम्पादकीय पेज पर काम करने वाले सहयोगी सम्पादक इस काम को अंजाम देते हैं. ये सम्पादकीय-लेखक एक तरह से संपादक की आत्मा में प्रवेश करके सम्पादकीय लिखता है. लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि इन दोनों के विचारों में कोई मतभेद हो ही नहीं सकता. अनेक मौके ऐसे भी आते हैं, जब मतभेद दिखाई पड़ते हैं लेकिन दोनों एक-दूसरे के विचारों के आदान-प्रदान के साथ इस गुत्थी को सुलझा लेते हैं. जिस अखबार में मतभेद की जितनी ज्यादा गुंजाइश हो, उसकी सम्पादकीय नीति उतनी ही उदार होती है. यदि हम सम्पादकीय लेखन की पृष्ठभूमि में जाएँ तो पता चलता है कि पत्रकारिता के शुरुआती दिनों से ही सम्पादकीय लेखन की शुरुआत हो गयी थी. बल्कि समाचार से ज्यादा विचारों की अभिव्यक्ति के लिए आरंभिक दौर के पत्र निकले. सोसाइटी फॉर प्रोफेशनल जर्नलिस्ट्स, अमेरिका के अनुसार, ‘सम्पादकीय लेखक पाठकों को सूचना देते हैं, जागरूक करते हैं, उनका पथ-प्रदर्शन करते हैं, उनकी तरफ से लड़ते हैं और चुनौती देते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि वे पाठक को अपने साथ जोड़े रखते हैं. साथ ही वे पाठकों को अपने-अपने समुदाय, अपनी सरकार, अपने संगठनों और अपनी दुनिया में भी सक्रिय रहने को प्रेरित करते हैं. इसके लिए पत्रकारिता में उनका महत्व अक्षुण्ण रहेगा.’ वेबस्टर डिक्शनरी के मुताबिक़, ‘सम्पादकीय किसी समाचार पत्र या पत्रिका में छपने वाला वह लेख है, जो प्रकाशक, संपादक या संपादकों के अभिमत का परिचायक है.’
3.4 स्तम्भ: स्तम्भ भी एक तरह की सम्पादकीय टिप्पणी ही है. बस सिर्फ अंतर यह है की स्तम्भ में इसके लेखक का नाम छपता है, जबकि सम्पादकीय बिना नाम के छपता है. इसके अलावा स्तम्भ की एक निश्चित अवधी होती है. अर्थात हर सप्ताह या हर पखवाड़े स्तम्भ छपता है. इसलिए इसे लिखने वाला एक मंजा हुआ लेखक होता है. वक कतई उबाऊ नहीं होना चाहिए. यही वजह है की खुशवंत सिंह का साप्ताहिक कॉलम ९५ वर्ष की उम्र में भी नियमित रूप से छाप रहा है. इसकी विषय वस्तु भिन्न-भिन्न हो सकती है. इसकी असली विशेषता यह है कि वह आवधिक हो.
4-पत्रकारीय लेखन के लिए ध्यान देने योग्य बातें:

१- लेखन में भाषा, व्याकरण, वर्तनी और शैली का ध्यान रखना जरूरी होता है. भाषा आसान रखें एकदम बोलचाल की. फीचर में जरूर कभी-कभार साहित्यिक भाषा का भी इस्तेमाल हो सकता है.

२- समय-सीमा और आवंटित जगह के अनुशासन का पालन करें. यानी यदि आपको शनिवार तक लेख देना है तो आपके लिए यह जरूरी है की आप उससे पहले ही लेख दे दें. इसी तरह आपको १००० शब्द लिखने को कहा गया है तो आप २००० या ५०० शब्द का लेख नहीं दे सकते. हद से हद १०० शब्द ऊपर-नीचे हो सकते हैं.

३-   अशुद्धियाँ कम से कम हों. कृपया लेख छपने से पहले दो बार पढ़ लें. ताकि किसी तरह की गलती न हो.

४- लेखन प्रवाहपूर्ण होना चाहिए. तारतम्यता जरूरी है. वरना वह उबाऊ हो जाएगा.

५- वाक्य छोटे और आसान रखें.
5-अभ्यास के लिए गतिविधि:
१- कृपया ऊपर लिखी गयी विधाओं को अखबारों में खोजिए और उनकी कतरनों के एक फ़ाइल बनाइए.
२- अपने मोहल्ले के किसी बुजुर्ग का साक्षात्कार लीजिए और उनसे उनके जमाने और आज के जमाने में अंतर पूछिए.
३- आपके शहर के किसी साहित्यकार का प्रोफाइल या व्यक्ति-चित्र इखिए.
४- अपने शहर के दो अखबारों के सम्पादकीयों की तुलना प्रस्तुत कीजिए.
५- अपने शहर के किसी लेखक से उनकी रचना-प्रक्रिया के बारे में पूछिए.
6-सन्दर्भ – पुस्तकें:
१- आलोक तोमर; लिखि कागद कोरे, प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली.
२- मनोहरश्याम जोशी; बातों-बातों में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली.
३- धर्मवीर भारती; यात्रा चक्र, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
४- प्रेमनाथ चतुर्वेदी, फीचर लेखन, प्रकाशन विभाग, दिल्ली.
५- एन सी पन्त; मीडिया लेखन के सिद्धांत; तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली.
६- डॉ. हर्षदेव; मीडिया शब्दकोश; सामयिक प्रकाशन, दिल्ली.
७- डॉ मनोहर प्रभाकर; फीचर लेखन: स्वरुप और शिल्प; माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल