School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला

Sunday, January 17, 2016

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का इतिहास

मीडिया/ नवीन जोशी

एक पत्रकार, कवि,लेखक एवं छायाकार

आदि-अनादि काल से वैदिक ऋचाओं की जन्मदात्री उर्वरा धरा रही देवभूमि उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का गौरवपूर्ण अतीत रहा है। कहते हैं कि यहीं ऋषि-मुनियों के अंतर्मन में सर्वप्रथम ज्ञानोदय हुआ था। बाद के वर्षों में आर्थिक रूप से पिछड़ने के बावजूद उत्तराखंड बौद्धिक सम्पदा के मामले में हमेशा समृद्ध रहा। शायद यही कारण हो कि आधुनिक दौर के जल्दी में लिखे जाने वाले साहित्य की विधा-पत्रकारिताका बीज देश में अंकुरित होने के साथ ही यहां के सुदूर गिरि-गह्वरों तक भी विरोध के स्वरों के रूप में पहुंच गया। कुमाउनी के आदि कवि गुमानी पंत (जन्म 1790-मृत्यु 1846, रचनाकाल 1810 ईसवी से) ने अंग्रेजों के यहां आने से पूर्व ही 1790 से 1815 तक सत्तासीन रहे महा दमनकारी गोरखों के खिलाफ कुमाउनी के साथ ही हिंदी की खड़ी बोली में कलम चलाकर एक तरह से पत्रकारिता का धर्म निभाना प्रारंभ कर दिया था। इस आधार पर उन्हें अनेक भाषाविदों के द्वारा उनके स्वर्गवास के चार वर्ष बाद उदित हुए आधुनिक हिन्दी के पहले रचनाकार’ भारतेंदु हरिश्चंद्र (जन्म 1850-मृत्यु 1885) से आधी सदी पहले का पहला व आदि हिंदी कवि भी कहा जाता है। हालांकि समाचार पत्रों का प्रकाशन यहां काफी देर में 1842 में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित द हिल्सनामक उत्तरी भारत के पहले समाचार पत्र के साथ शुरू हुआ, लेकिन 1868 में जब भारतेंदु हिंदी में लिखना प्रारंभ कर रहे थेनैनीताल से समय विनोदनामक पहले देशी (हिंदी-उर्दू) पाक्षिक पत्र ने प्रकाशित होकर एक तरह से हिंदी पत्रकारिता का छोर शुरू में ही पकड़ लिया। यह संयोग ही है कि आगे 1953 में उत्तराखंड का पहला हिंदी दैनिक अखबार पर्वतीयभी नैनीताल से ही प्रकाशित हुआ।
उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के विकास की प्रक्रिया भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की प्रक्रिया के समानान्तर किंतु एक बुनियादी फर्क के साथ रही। क्योंकि देश जब अंग्रेजी शासनकाल से त्रस्त था, तब 1815 में ईस्ट इंडिया कंपनी उत्तराखंड को गोरखों के क्रूर एवं अत्याचारी शासन का अंत कर सत्तासीन हो रही थी। अंग्रेजों को उत्तराखंड अपने घर इंग्लेंड व स्कॉटलेंड जैसा भी लगा था, इसलिए उन्होंने उत्तराखंड को शुरू में अपने घर की तरह माना। नैनीताल को तो उन्होंने छोटी बिलायतके रूप में ही बसाया। इसलिए शुरूआत में अंग्रेजों का यहां स्वागत हुआ। लेकिन धीरे-धीरे देश के पहले स्वाधीरता संग्राम यानी 1857 तक कंपनी के शासन के दौर में और इससे पूर्व गोरखा राज से ही उत्तराखण्ड के कवियों मौलाराम (1743-1833), गुमानी (1790-1846) एवं कृष्णा पाण्डे (1800-1850) आदि की कविताओं में असन्तोष के बीज मिलते हैं।
 ‘दिन-दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब-शिब, चूली में ना बाल एकै कैकागुमानी (गोरखा शासन के खिलाफ)
आगे गुमानी ने देश में अंग्रेजों के आगमन को देशी राजाओं की फूट और शिक्षा की कमी का नतीजा बताने के साथ ही उनकी शक्ति को भी स्वीकारा। खड़ी बोली-हिंदी में लिखी उनकी यह कविता उन्हें हिंदी का प्रथम कवि भी साबित करती है-
विद्या की जो बढ़ती होती, फूट न होती राजन में।
हिंदुस्तान असंभव होता बस करना लख बरसन में।
कहे गुमानी अंग्रेजन से कर लो चाहो जो मन में।
धरती में नहीं वीर, वीरता दिखाता तुम्हें जो रण में।
उत्तराखण्ड की पत्रकारिता का उद्भव एवं विकासः
उत्तराखंड में 1815 में अंग्रेजों के प्रादुर्भाव के उपरांत वास्तविक अर्थों में आधुनिक पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ। हम जानते हैं कि 29 जनवरी 1780 को जेम्स ऑगस्टस हिकी द्वारा हिकीज बंगाल गजट के रूप में देश में भारतीय पत्रकारिता की नींव रख दी गई थी, लेकिन इसके कई दशकों तक देश में पत्रकारिता बंगाल तथा समुद्र तटीय क्षेत्रों तक ही सीमित रही थी, और इसे थल मार्ग व खासकर पहाड़ चढ़ने में 62 वर्ष लग गए। 1842 में एक अंग्रेज व्यवसायी और समाजसेवी जान मेकिनन ने अंग्रेजी भाषा में द हिल्सनामक समाचार पत्र का प्रकाशन मसूरी के सेमेनरी स्कूल परिसर स्थित प्रिंटिंग प्रेस से शुरू किया, जिसे उत्तरी भारत के पहले समाचार पत्र की मान्यता है। यह पत्र अपने बेहतरीन प्रकाशन और प्रसार के लिए चर्चित रहा। बताया जाता है कि इस पत्र में इंग्लेंड और आयरलेंड के आपसी झगड़ों के बारे में खूब चर्चाएं होती थीं। करीब सात-आठ वर्ष चलने के बाद यह पत्र बंद हो गया। 1860 में डा. स्मिथ ने इसे एक बार पुर्नजीवित करने की कोशिश की, लेकिन 1865 तक चलने के बाद यह पत्र हमेशा के लिए बंद हो गया। अलबत्ता 1845 में प्रकाशित अखबार मेफिसलाइटअंग्रेजी भाषी होने के बावजूद अंग्रेजी शासन के खिलाफ लिखता था। इस पत्र के संपादक जॉन लेंग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के वकील रह चुके थे। वह लक्ष्मीबाई की शहादत के बाद मसूरी पहुंचे, और इस समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुए। लार्ड डलहौजी ने सात जून 1857 को हुई इंग्लिश मैन क्लब मसूरीकी बैठक में इसे अंग्रेजों का अखबार होते हुए साम्राज्यविरोधी अखबार करार दिया था। 1882-83 के आसपास लिडिल नाम के अंग्रेज इसके संपादक रहे। इस अखबार का ऐसा नाम था कि लगभग सवा सौ वर्षों के बाद वर्ष 2003 में जय प्रकाश उत्तराखंडीने हिंदी-अंग्रेजी में साप्ताहिक पत्र के रूप में इसका पुर्नप्रकाशन प्रारंभ किया।
इसके बाद 1870 में मसूरी से ही एक और अंग्रेजी अखबार मसूरी एक्सचेंजकुछ महीनों का जीवन लेकर मसूरी से ही प्रारंभ हुआ। 1872 में कोलमैन नाम के अंग्रेज ने जॉन नार्थन के सहयोग से पुनः मसूरी सीजननाम के अंग्रेजी अखबार को चलाने का प्रयास किया, परंतु यह अखबार भी करीब दो वर्ष तक ही जीवित रह पाया। इसी कड़ी में आगे 1875 में मसूरी क्रानिकलतथा आगे इसी दौरान बेकनऔर द ईगलनाम के अल्पजीवी अंग्रेजी समाचार पत्र भी शुरू हुए। इनकी उम्र काफी कम रही, लेकिन मसूरी 1880 के दौर तक उत्तरी भारत का समाचार पत्रों के मामले में प्रमुख केंद्र बना रहा, और यहां कई अंग्रेज पत्रकार और संपादक हुए। आगे 1900 में बाडीकाट ने द मसूरी टाइम्सका प्रकाशन शुरू किया, जिसका प्रबंधन बाद में भारतीयों के हाथ में रहा। बताते हैं कि इस पत्र के संवाददाता यूरोप में भी थे। करीब 30 वर्षों के बाद हुकुम सिंह पंवार ने इसे पुर्नजीवित किया। आगे 1970 के दशक में इस पत्र का हिंदी संस्करण प्रारंभ हुआ। इस बीच 11 फरवरी 1914 से देहरादून से देहरा-मसूरी एडवरटाइजरनाम का विज्ञापन पत्र भी प्रकाशित हुआ। 1924 में द हेरल्ड वीकलीनाम का एक और अंग्रेजी अखबार मसूरी से बनवारी लाल बेदमद्वारा प्रारंभ किया गया। इस पत्र में टिहरी की जन क्रांति की खबरें प्रमुखता से छपती थीं।
समय विनोद:
हिंदी भाषा के समाचार पत्रों की बात करें तो 1868 में जब देश में हिंदी लेखन व पत्रकारिता के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु लिखना प्रारंभ कर रहे थे, अंग्रेजों के द्वारा केवल 27 वर्ष पूर्व 1841 में स्थापित हुए नैनीताल नगर से हिंदी पत्रकारिता का शुभारंभ हो गया। संपादक-अधिवक्ता जयदत्त जोशी ने नैनीताल प्रेस से समय विनोदनामक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया, जो उत्तराखंड से निकलने वाला पहला देशी (हिन्दी-उर्दू) पाक्षिक पत्र था। आगे यह 1871 तक उत्तराखंड का अकेला हिंदी भाषी पत्र भी रहा। पत्र ने सरकारपरस्त होने के बावजूद ब्रिटिश राज में चोरी की घटनाएं बढ़ने, भारतीयों के शोषण, बिना वजह उन्हें पीटने, उन पर अविश्वास करने पर अपने विविध अंकों में चिंता व्यक्त की थी। 1918 में यह पत्र अंग्रेज सरकार के खिलाफ आक्रामकता एवं सरकार विरोधी होने के आरोप में बंद हुआ। हालांकि इससे पूर्व ही 1893 में अल्मोड़ा से कुमाऊं समाचार, 1902-03 में देहरादून से गढ़वाल समाचार और 1905 में देहरादून से गढ़वाली पत्रों के बीज भी अंग्रेजी दमन को स्वर देने के लिए पड़ चुके थे।
अल्मोड़ा अखबारः
अल्मोड़ा अखबार 14 जुलाई 1884अल्मोड़ा अखबार. साप्ताहिक, 2 जुलाई 1917
उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के क्षेत्र में 1871 में अल्मोड़ा से प्रकाशित ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ का विशिष्ट स्थान है। प्रमुख अंग्रेजी पत्र ‘‘पायनियर’’ के समकालीन इस समाचार पत्र का सरकारी रजिस्ट्रेशन नंबर 10 था, यानी यह देश का 10वां पंजीकृत समाचार पत्र था। 1870 में स्थापित डिबेटिंग क्लबके प्रमुख बुद्धि बल्लभ पन्त ने इसका प्रकाशन प्रारंभ किया।
इसके 48 वर्ष के जीवनकाल में इसका संपादन क्रमशः बुद्धिबल्लभ पंत, मुंशी इम्तियाज अली, जीवानन्द जोशी, 1909 तक मुंशी सदानन्द सनवाल, 1909 से 1913 तक विष्णुदत्त जोशी तथा 1913 के बाद बद्रीदत्त पाण्डे ने किया। इसे उत्तराखंड में पत्रकारिता की पहली ईंट भी कहा गया है।
प्रारम्भिक तीन दशकों में ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ सरकारपरस्त था फिर भी इसने औपनिवेशिक शासकों का ध्यान स्थानीय समस्याओं के प्रति आकृष्ट करने में सफलता पाई। कभी पाक्षिक तो कभी साप्ताहिक रूप से निकलने वाले इस पत्र ने आखिर 1910 के आसपास से बंग-भंग की घटना के बाद अपने तेवर बदलकर अंग्रेजों के अत्याचारों से त्रस्त पर्वतीय जनता की मूकवाणी को अभिव्यक्ति देने का कार्य किया, और कुली बेगार, जंगल बंदोबस्त, बाल शिक्षा, मद्य निषेध, स्त्री अधिकार आदि पर प्रखर कलम चलाई।
1913 में कुमाऊँ केसरीबद्री दत्त पांडे के ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ के संपादक बनने के बाद इस पत्र का सिर्फ स्वरूप ही नहीं बदला वरन् इसकी प्रसार संख्या भी 50-60 से बढकर 1500 तक हो गई। इसमें बेगार, जंगलात, स्वराज, स्थानीय नौकरशाही की निरंकुशता पर भी इस पत्र में आक्रामक लेख प्रकाशित होने लगे। बद्री दत्त पांडे द्वारा उपनिवेशवाद के खिलाफ लिखने पर अंग्रेजों ने इस पर जुर्माना लगाया। जुर्माना न दे पाने पर अखबार को बंद करने का हुक्म सुना दिया गया, जिस पर अल्मोड़ा अखबार अंततः 1918 में बंद हो गया।
अल्मोड़ा अखबार का ऐसा असर था कि इसके बंद होने की कथा भी दंतकथा बन गई। कहते हैं कि 1918 में अंग्रेज अधिकारी लोमस द्वारा शिकार करने के दौरान मुर्गी की जगह एक कुली की मौत हो गई। अल्मोड़ा अखबार ने इस समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया था। इस समाचार को प्रकाशित करने पर अल्मोड़ा अखबार को अंग्रेज सरकार द्वारा बंद करा दिया गया। इस बाबत गढ़वाल से प्रकाशित समाचार पत्र-गढ़वाली ने समाचार छापते हुए सुर्खी लगाई थी-एक गोली के तीन शिकार-मुर्गी, कुली और अल्मोड़ा अखबार।
शक्तिः
शक्ति 8 नवम्बर 1930शक्ति 15 अक्टूबर 1918
अल्मोड़ा अखबार के बंद होने की भरपाई अल्मोड़ा अखबार के ही संपादक रहे बद्री दत्त पाण्डे ने अल्मोड़ा में देशभक्त प्रेस की स्थापना कर 18 अक्टूबर 1918 को विजयादशमी के दिन ‘‘शक्ति’’ नाम से दूसरा अखबार निकालकर पूरी की। शक्ति पर शुरू से ही स्थानीय आक्रामकता और भारतीय राष्ट्रवाद दोनों का असाधारण असर था।
‘‘
शक्ति’’ ने न सिर्फ स्थानीय समस्याओं को उठाया वरन् इन समस्याओं के खिलाफ उठे आन्दोलनों को राष्ट्रीय आन्दोलन से एकाकार करने में भी उसका महत्वपूर्ण योगदान रहा। ‘‘शक्ति’’ की लेखन शैली का अन्दाज 27 जनवरी 1919 के अंक में प्रकाशित निम्न पंक्तियों से लगाया जा सकता है-
‘‘
आंदोलन और आलोचना का युग कभी बंद न होना चाहिए ताकि राष्ट्र हर वक्त चेतनावस्था में रहे अन्यथा जाति यदि सुप्तावस्था को प्राप्त हो जाती है तो नौकरशाही, जर्मनशाही या नादिरशाही की तूती बोलने लगती है।’’ शक्तिः 27 जनवरी 1919
शक्ति ने एक ओर बेगार, जंगलात, डोला-पालकी, नायक सुधार, अछूतोद्धार तथा गाड़ी-सड़क जैसे आन्दोलनों को इस पत्र ने मुखर अभिव्यक्ति दी तो दूसरी ओर असहयोग, स्वराज, सविनय अवज्ञा, व्यक्तिगत सत्याग्रह, भारत छोड़ो आन्दोलन जैसी अवधारणाओं को ग्रामीण जन मानस तक पहुॅचाने के लिए एक हथियार के रूप में प्रयास किया, साथ ही साहित्यिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को भी मंच प्रदान किया। इसका प्रत्येक संपादक राष्ट्रीय संग्रामी था। 10 जून 1942 को तत्कालीन संपादक मनोहर पंत को सरकार विरोधी लेख प्रकाशित करने के आरोप में डीआईआर एक्ट के तहत जेल भेज दिया गया, जिस कारण 1942 से 1945 तक शक्ति का प्रकाशन फिर से बंद रहा, और 1946 में पुनः प्रारंभ हुआ। उनके अलावा भी बद्रीदत्त पांडे, मोहन जोशी, दुर्गादत्त पाण्डे, राम सिंह धौनी, मथुरा दत्त त्रिवेदी, पूरन चन्द्र तिवाड़ी आदि में से एक-दो अपवादों को छोड़कर ‘‘शक्ति’’ के सभी सम्पादक या तो जेल गये थे या तत्कालीन प्रशासन की घृणा के पात्र बने और इस तरह यह अखबार उत्तराखंड में आजादी के आंदोलन में अग्रदूत व क्रांतिदूत की भूमिका में रहा।
वर्तमान में भी प्रकाशित इस समाचार पत्र को उत्तराखंड के सबसे पुराने व सर्वाधिक लंबे समय तक प्रकाशित हो रहे समाचार पत्र के रूप में भी जाना जाता है। 1922 में अल्मोड़ा से ही बसंत कुमार जोशी द्वारा प्रकाशित कुमाऊं कुमुद अखबार ने भी राष्ट्रीय विचारों की ज्वालो को शक्ति के साथ आगे बढ़ाया। इस समाचार पत्र ने लोकभाषा के रचनाकारों को भी काफी प्रोत्साहित किया।
गढ़वाल समाचार और गढ़वालीः
गढ़वाल समाचार, मासिक, फ़रवरी, मार्च, अप्रैल 1914
1902 से 1904 तक लैंसडाउन से गिरिजा दत्त नैथाणी द्वारा संपादित मासिक पत्र ‘‘गढ़वाल समाचार’’ गढ़वाल से निकालने वाला पहला हिंदी अखबार था। बाद में 1913 से 1915 तक इसे एक बार फिर श्री नैथाणी ने  दोगड्डा से निकला। इसे भी अपनी उदार और नरम नीति के बावजूद औपनिवेशिक शासन की गलत नीतियों का विरोध करते रहे थे।
गढ़वाली, मासिक, जून 1910
उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के विकास के क्रम में देहरादून से प्रकाशित गढ़वाली’ (1905-1952) गढ़वाल के शिक्षित वर्ग के सामूहिक प्रयासों द्वारा स्थापित एक सामाजिक संस्थान था। इसे वास्तविक अर्थों में उत्तराखंड के गढ़वाल अंचल में उद्देश्यपूर्ण पत्रकारिता की नींव की ईंट और गढ़वाल में पुनर्जागरण की लहरों को पहुँचाने वाला अखबार भी कहा जाता है। उदार सरकारपरस्त संगठन गढ़वाल यूनियन’ (स्थापित 1901) का पत्र माने जाने वाले गढ़वाली का पहला अंक मई 1905 को निकला जो कि मासिक था तथा इसके पहले सम्पादक होने का श्रेय गिरिजा दत्त नैथानी को जाता है। इसके संपादक को पत्रकारिता के उच्च आदर्शों का पालन करने के लिए जेल जाना पड़ा, जिसे देश के पत्रकारिता इतिहास की दूसरी घटना बताया जाता है। इस पत्र ने वर्तमान पत्रकारिता के छात्रों के लिहाज से टू-वे कम्युनिकेशन सिस्टमके लिहाज से अत्यधिक महत्वपूर्ण पाठकों के पत्र सम्पादक के नामकी शुरुआत भी की, तथा अंग्रेजों के अलावा टिहरी रियासत के खिलाफ भी पहली बार आवाज उठाने की हिम्मत की।
तारादत्त गैरोला गढ़वालीके दूसरे तथा विश्वम्भर दत्त चंदोला 1916 से 1952 तक तीसरे संपादक रहे, जिनकी इसे आगे बढ़ाने में महती भूमिका रही। 47 साल तक जिन्दा रहने वाले इस पत्र ने अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं से लेकर विविध राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रखरता के साथ लिखा तथा अनेक आन्दोलनों की पृष्ठभूमि तैयार की। कुली बर्दायश की कुप्रथा के खिलाफ गढ़वालीने इस तरह लेखनी चलाई-
कुली बर्दायश की वर्तमान प्रथा गुलामी से भी बुरी है और सभ्य गवरमैण्ट के योग्य नहीं, कतिपय सरकारी कर्मचारियों की दलील है, कि यह प्राचीन प्रथा अर्थात दस्तूर है, किंतु जब यह दस्तूर बुरा है तो चाहे प्राचीन भी हो, निन्दनीय है और फौरन बन्द होना चाहिए। क्या गुलामी, सती प्रथा प्राचीन नहीं थीं।
गढ़वाली ने गढ़वाल में कन्या विक्रय के विरूद्ध आंदोलन संचालित किया, कुली बेगार, जंगलात तथा गाड़ी सड़क के प्रश्न को प्रमुखता से उठाया, टिहरी रियासत में घटित रवांई कांड (मई 1930) के समय जनपक्ष का समर्थन कर उसकी आवाज बुलंद की, जिसकी कीमत उसके सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला को 1 वर्ष की जेल जाकर चुकानी पड़ी। गढ़वाल में वहां की संस्कृति एवं साहित्य का नया युग ‘‘गढ़वाली युग’’ आरम्भ करना ‘‘गढ़वाली’’ के जीवन के शानदार अध्याय हैं। बाद के दौर में गढ़वाली ने स्थानीय मुद्दों के साथ राष्ट्रीय मुद्दों की ओर भी कलम चलाई, और इसे क्रांति की नहीं ग्रांधीवाद की सत्याग्रही नीतिपर चलने वाला अखबार भी बताया गया।
स्वाधीन प्रजाः
स्वाधीन प्रजा 12 फ़रवरी 1930
उत्तराखण्ड की पत्रकारिता के इतिहास में अल्मोड़ा से एक जनवरी 1930 से प्रकाशित ‘‘स्वाधीन प्रजा’’ भी अत्यंत महत्वपूर्ण पत्र है, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौर में प्रकाशित हुआ, तथा बीच में बंद होने के बाद वर्तमान में भी अपनी यात्रा जारी रखे हुए है। इसके सम्पादक प्रखर राष्ट्रवादी नेता विक्टर मोहन जोशी थे। यह पत्र शुरुआत से अत्यधिक आक्रामक रहा। पत्र ने अपने पहले अंक में ही लिखा-
भारत की स्वाधीनता भारतीय प्रजा के हाथ में हैं। जिस दिन प्रजा तड़प उठेगी, स्वाधीनता की मस्ती तुझे चढ़ जाएगी, ग्राम-ग्राम, नगर-नगर देश प्रेम के सोते उमड़ पड़ेंगे तो बिना प्रस्ताव, बिना बमबाजी या हिंसा के क्षण भर में देश स्वाधीन हो जाएगा। प्रजा के हाथ में ही स्वाधीनता की कुंजी है।
यह लगातार अंग्रेजी सरकार के खिलाफ अपने शब्दों को धार देता रहा। इसने भगत सिंह को फांसी देने की घटना को सरकार का गुंडापनकरार दिया। इसके शब्दों की ऐसी ठसक का ही असर रहा कि प्रकाशन के पांच माह के भीतर ही इस पर आक्रामक लेखन के लिए 10 मई 1930 को उस दौर के सर्वाधिक छह हजार रुपए का जुर्माना थोपा गया। जुर्माने की राशि का इंतजाम न हो पाने की वजह से अखबार के 19वें अंक के दो पृष्ठ छपे बिना ही रह गए, और अखबार बंद हो गया। अक्टूबर 1930 में संपादक कृष्णानंद शास्त्री ने इसे पुनः शुरू करवाया, जिसके बाद 1932 में यह पुनः छपना बंद हो गया। 35 वर्षों के बाद 1967 में पूर्ण चंद्र अग्निहोत्री ने इसका प्रकाशन पुनः शुरू कराया, और तब से यह निरंतर प्रकाशित हो रहा है। प्रकाश पांडे इसके संपादक हैं।
स्वतंत्रता पूर्व की अन्य पत्र-पत्रिकाएंः
पत्रकारिता के इसी क्रम मे वर्ष 1893-1894 में अल्मोड़ा से ‘‘कूर्मांचल समाचार’’ और  पौड़ी से सदानन्द कुकरेती ने 1913 में विशाल कीर्तिका प्रकाशन किया।
आगे 1917 में (कहीं 1918 भी अंकित) गढ़वाल समाचारतथा गढ़वालीके सम्पादक रहे गिरिजा दत्त नैथाणी ने दोगड्डा-लैंसडाउन से पुरूषार्थ’ (1917-1921) का प्रकाशन किया। इस पत्र ने भी स्थानीय समस्याओं को आक्रामकता के साथ उठाया। इस पत्र ने राष्ट्रीय आन्दोलन के तीव्र विकास को गढ़वाल के दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँचाने का कार्य किया। इसने प्रेस एक्ट व रौलेट एक्ट से लेकर सभी स्तरों पर ब्रिटिश सरकारों की आलोचना की।जिला समाचार-
स्थानीय राष्ट्रीय आन्दोलन के संग्रामी तथा उत्तराखण्ड के प्रथम बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने जुलाई 1922 में लैंसडाउन से तरूण कुमाऊॅ’ (1922-1923) का प्रकाशन कर राष्ट्रीय तथा स्थानीय मुद्दों को साथ-साथ अपने पत्र में देने की कोशिश की। इसी क्रम में 1922 में अल्मोड़ा से बसन्त कुमार जोशी के संपादकत्व में पाक्षिक पत्र जिला समाचार’ (District Gazette) निकला और 1925 में अल्मोड़ा से कुमाऊॅ कुमुदपाक्षिक का प्रकाशन हुआ। इसका सम्पादन प्रेम बल्लभ जोशी, बसन्त कुमार जोशी, देवेन्द्र प्रताप जोशी आदि ने किया। शुरू में इसकी छवि राष्ट्रवादी पत्र की अपेक्षा साहित्यिक अधिक थी।
इसी क्रम में 1930 में विजय, 1937 में उत्थान व इंडिपेंडेंट इंडिया और 1939 में पीताम्बर पाण्डे ने हल्द्वानी से जागृत जनताका प्रकाशन किया। अपने आक्रामक तेवरों के कारण 1940 में इसके सम्पादक को सजा तथा 300 रुपए जुर्माना किया गया।
कर्मभूमि, साप्ताहिक, लैंसडाउन, 15 अक्टूबर 1947
गढ़वाल के तत्कालीन प्रमुख कांग्रेसी नेता भक्तदर्शन तथा भैरव दत्त धूलिया द्वारा लैंसडाउन से 1939 से आजादी के बाद तक प्रकाशित ‘‘कर्मभूमि’’ पत्र ने ब्रिटिश गढ़वाल तथा टिहरी रियासत दोनों में राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक चेतना फैलाने का कार्य किया। अन्य कांग्रेसी नेता कमल सिंह नेगी, कुन्दन सिंह गुसांई, टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष में शहीद हुए और अमर शहीदके रूप में विख्यात श्रीदेव सुमन, ललिता प्रसाद नैथाणी और नारायण दत्त बहुगुणा इसके सम्पादक मण्डल से जुड़े थे। ‘‘कर्मभूमि’’ को समय-समय पर ब्रिटिश सरकार तथा टिहरी रियासत दोनों के दमन का सामना करना पड़ा। 1942 में इसके संपादक भैरव दत्त धूलिया को चार वर्ष की नजरबंदी की सजा दी गयी। इनके अलावा उत्तराखंड में 1940 में सन्देश व हिमालय केसरी, 1945 में रियासत नाम के पत्र भी शुरू हुए।
उत्तराखंड का पहला हिंदी दैनिक अखबार होने का गौरव नैनीताल से प्रकाशित दैनिक पर्वतीय को जाता है। 1953 में शुरू हुए इस समाचार पत्र के संपादक विष्णु दत्त उनियाल थे। आगे 1977 में उत्तर उजाला दैनिक पत्र हल्द्वानी से प्रारंभ हुआ।
उत्तराखंड के प्रमुख पत्रकार/संपादकः
इस दौर में भैरव दत्त धूलिया-कर्मभूमि, बद्री दत्त पांडे-शक्ति, विश्वंभर दत्त चंदोला-गढ़वाली, राज महेंद्र प्रताप-निर्बल सेवक, स्वामी विचारानंद सरस्वती-अभय, विक्टर मोहन जोशी-स्वाधीन प्रजा, बैरिस्टर बुलाकी राम-कास्मोपोलिटन, बैरिस्टर मुकुंदी लाल-तरुण कुमाऊं, कृपा राम मनहर’-गढ़देश व संदेश, अमीर चंद्र बम्बवाल-फ्रंटियर मेल, कॉमरेड पीतांबर पांडे-जागृत जनता, हरिराम मिश्र चंचल’-संदेश, महेशानंद थपलियाल-उत्तर भारत व नव प्रभात तथा ज्योति प्रसाद माहेश्वरी-उत्थान आदि संपादकों एवं पत्रों ने भी देश की स्वाधीनता के यज्ञ में अपना बड़ा योगदान दिया। इनके अलावा भी टिहरी जनक्रांति के महानायक अमर शहीद श्रीदेव सुमन, भक्तदर्शन, हुलास वर्मा, चंद्रमणि विद्यालंकार’, गोविंद प्रसाद नौटियाल, राधाकृष्ण वैष्णव, श्याम चंद्र नेगी, गिरिजा दत्त नैथानी, बुद्धि बल्लभ पंत, मनोरथ पंत, मुंशी सदानंद सनवाल, मुंशी हरिप्रसाद टम्टा, मुंशी इम्तियाज अली खां, कृष्णानंद शास्त्री, विष्णु दत्त जोशी, रुद्र दत्त भट्ट, कृष्णानंद जोशी, दुर्गा दत्त पांडे, राम सिंह धौनी, श्यामा चरण काला, दुर्गा चरण काला, रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी’, इला चंद्र जोशी, हेम चंद्र जोशी सहित अनेक नामी व अनाम संपादकों, पत्रकारों का भी अविस्मरणीय योगदान रहा है।
उत्तराखंड में लोक भाषाई पत्रकारिताः
कुमगढ़ पत्रिका, मई-जून 2015
उत्तराखंड में कुमाउनी एवं गढ़वाली लोक भाषाओं की पत्रिकाओं का भी अपना अलग महत्व है। 1938 में जीवन जोशी द्वारा प्रकाशित अचल’ (मासिक) को कुमाउनी के साथ ही प्रदेश की लोकभाषाओं की पहली पत्रिका, 1946 में जय कृष्ण उनियाल द्वारा प्रकाशित फ्योंली (मासिक) को गढ़वाली की पहली पत्रिका व एस वासु के गढ़ ऐना (1987) को गढ़वाली में पहले दैनिक समाचार पत्र होने का गौरव प्राप्त है। 1954 में ठाकुर चंदन सिंह के संपादकत्व में देहरादून से नेपाली भाषा के अखबार गोरखा संसार की शुरुआत भी हुई। बी मोहन नेगी व बहादुर बोरा श्रीबंधुद्वारा प्रकाशित हिंदी पत्रिका प्रयासका एक अंक कुमाउनी-गढ़वाली को समर्पित रहा था। आगे देहरादून से गढ़वालै धै, रन्त-रैबार, चिट्ठी, जग्वाल और पौड़ी से उत्तराखंड खबर सार, अल्मोड़ा से अधिवक्ता बालम सिंह जनौटी द्वारा प्रकाशित तराण, दीपक कार्की व अनिल भोज द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित फोल्डर स्वरूप ब्याण तार (मासिक), रामनगर से मथुरा दत्त मठपाल के संपादकत्व में दुदबोलि, नैनीताल से अनिल भोज की आशल-कुशल, अल्मोड़ा से डा. सुधीर साह की हस्तलिखित पत्रिकाएं-बास से कफुवा, धार में दिन व रत्तै-ब्याल तथा अल्मोड़ा से प्रकाशित हो रही डा. हयात सिंह रावत की पत्रिका पहरू प्रमुख रही हैं। इससे पूर्व अल्मोड़ा अखबार, शक्ति, स्वाधीन प्रजा, पर्वत पीयूष, हिलांस, उत्तरायण, पुरवासी, कत्यूरी मानसरोवर, धाद, शैलसुता, पहाड़, जनजागर, शैलवाणी, खबर सार, पर्वतीय टाइम्स, अरुणोदय, युगवाणी, लोकगंगा, बाल प्रहरी, उत्तरांचल पत्रिका, डांडी-कांठी, कूर्मांचल अखबार, उत्तराखंड उद्घोष, नैनीताल की श्रीराम सेवक सभा स्मारिका व शरदोत्सव स्मारिका-शरदनंदा, उत्तर उजाला, तथा नवल आदि पत्र-पत्रिकाएं भी कुमाउनी-गढ़वाली रचनाओं को लगातार स्थान देती हैं। इस कड़ी में लखनऊ से आकाशवाणी के उत्तरायण कार्यक्रम के प्रस्तोता रहे बंशीधर पाठक जिज्ञासुद्वारा जनवरी 1993 से शुरू की गई प्रवासी पत्रिका आंखरका नाम सर्वप्रथम लिया जाना उचित होगा, जिन्होंने आधुनिक दौर में लोक भाषाओं की पत्रिकाओं को प्रकाशित करने का मार्ग दिखाया। प्रवासी पत्रिकाओं में जयपुर राजस्थान से ठाकुर नारायण सिंह रावत द्वारा प्रकाशित निराला उत्तराखंड, दिल्ली से देवभूमि दर्पण और देहरादून-दिल्ली से प्रकाशित देवभूमि की पुकार जैसी कई प्रवासी पत्रिकाएं भी कुमाउनी-गढ़वाली लोक भाषाओं की रचनाओं को स्थान देती हैं। इधर हल्द्वानी से संपादक दामोदर जोशी देवांशुद्वारा प्रकाशित की जा रही पत्रिका कुमगढ़उत्तराखंड की सभी लोकभाषाओं को एक मंच पर लाने का नए सिरे से और अपनी तरह का पहला सराहनीय प्रयास कर रही है। डा. उमा भट्ट द्वारा महिलाओं की पत्रिका उत्तराका प्रकाशन किया जाता है, जो उत्तराखंड की गिनी-चुनी महिलाओं की पत्रिकाओं में शामिल है।
उत्तराखण्ड में दलित पत्रकारिताः
उत्तराखण्ड में दलित पत्रकारिता का उदय 1935 में अल्मोड़ा से प्रकाशित ‘‘समता’’ (1935 से लगातार) पत्र से हुआ। इसके संपादक हरिप्रसाद टम्टा थे। यह पत्र राष्ट्रीय आन्दोलन के युग में दलित जागृति का पर्याय बना। इसके संपादक सक्रिय समाज सुधारक थे। इस कड़ी में समता की महिला सम्पादक लक्ष्मी टम्टा व वीरोंखाल के सुशील कुमार निरंजनके नाम भी दलित संपादकों में उल्लेखनीय हैं। श्रीमती टम्टा को उत्तराखंड की प्रथम महिला एवं दलित पत्रकार तथा प्रथम दलित महिला स्नातक होने का गौरव भी प्राप्त है। Saabhaar.

No comments:

Post a Comment