School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला

Thursday, January 14, 2016

मीडिया पर क्यों बढ़ते जा रहे हमले?

मृणाल पांडे हिन्दी की जानी-मानी लेखिका और पत्रकार हैं. वामा, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी और दैनिक हिंदुस्तान की सम्पादक रह चुकी मृणाल जी का यह लेख मौजूदा दौर की हिन्दी पत्रकारिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. नई दुनिया में प्रकाशित यह लेख हम यहाँ ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं: 
जैसे-जैसे पत्रकारिता का असर, तकनीकी दक्षता और पाठकीय दायरे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे इस धारणा को भी लगातार तूल दिया जा रहा है कि पत्रकारिता में गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी और महत्वपूर्णजनों के निजी जीवन में बेवजह ताकझांक के उदाहरण बढ़ रहे हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने मीडिया नमक-मिर्च लगाकर इस तरह की खबरों को छाप या दिखाकर राजकाज व सामाजिक समरसता दोनों को बाधित कर रहा है। इस पर साम-दाम-दंड की मदद से तुरंत रोक लगनी चाहिए। कुछ हद तक यह आक्षेप सही हैं, पर गए बरस पत्रकारिता पर लगाए गए या प्रस्तावित बंधनों और भारतीय पत्रकारों, लेखकों खासकर भारतीय भाषाओं में काम करने वाले बंधुओं पर हुए हमलों के मामले देखें तो साफ होता है कि स्वस्थ राज-समाज और पेशेवर पत्रकारिता के असली संकट दूसरे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार स्व. बी.जी. वर्गीज द्वारा स्थापित गैरसरकारी संगठन मीडिया फाउंडेशन के डिजिटल पत्र द हूट ने अभी गुजरे साल में अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े एक सर्वेक्षण की रपट जारी की है। रपट दिखाती है कि 2015 में लेखन या बयानों में सत्ता की ईमानदार आलोचना साहित्य से लेकर प्रिंट, सोशल या दृश्यगत मीडिया में जोखिम का सौदा बन रही है।
चूंकि 2015 के राष्ट्रीय अपराध प्रकोष्ठ के आंकड़े अभी जारी नहीं हुए, द हूट रपट में शोधकर्ताओं ने सार्वजनिक रपटों के हवाले से बताया है कि गए साल अभिव्यक्ति की आजादी के हनन पर सवाल उठाने और सांप्रदायिकता तथा अंधविश्वास के खिलाफ लिखने या फिल्में बनाने वालों व भ्रष्टाचार और सरकारी गड़बड़ियों के खिलाफ ठोस खबर देने वाले भाषाई पत्रकारों पर किस तरह मानहानि के आपराधिक मुकदमों और जानलेवा हमलों की एक बाढ़-सी आ गई।
प्रकाशित खबरों के अनुसार इनमें 8 पत्रकार तथा दो लेखकों की मौत हुई, 30 पर जानलेवा हमले और 3 की गिरफ्तारियां हुईं। मीडिया पर धमकाने के 27, देशद्रोह के 14, मानहानि के 48 मामले दायर किए गए। वहीं कई संस्थाओं की स्वायत्तता पर भी असर पड़ा। उदाहरण के लिए सरकार से मतभिन्न्ता के कारण सेंसर बोर्ड (जो अपने नए नाम नेशनल बोर्ड फॉर फिल्म सर्टिफिकेशन के अनुसार फिल्मों को सर्टिफिकेट देने वाली संस्था है, उनमें काटछांट करने वाली नहीं) की प्रमुख लीला सैमसन तथा 9 बोर्ड सदस्यों के इस्तीफे आए। फिर वहां पहलाज निहलानी की नियुक्ति हुई। उन्होंने जेम्स बांड की फिल्म पर कैंची चलवाकर नैतिकता की बहस को प्रतिगामी मोड़ दिया।
उच्च अध्ययन में भी हस्तक्षेप हुआ। जानी-मानी इतिहासविद् वेंडी डॉनिगर की हिंदू धर्म के खुलेपन की सराहना के साथ उस पर पठनीय और नए दृष्टिकोण से विचार करने वाली किताब को धमकियों तले प्रकाशक ने बाजार से हटा लिया। निर्भया कांड तथा बलात्कार मसले पर अपनी गंभीर नारीवादी डॉक्यूमेंट्री रिलीज करने की बीबीसी जैसी संस्था को न केवल अनुमति नहीं मिली, दबाव डलवाकर उसे यूट्यूब से भी हटवा दिया गया।
चेन्नई में एक लोकगायक को मुख्यमंत्री के खिलाफ गाने रचकर गाने के अभियोग तले जेल में डाल दिया गया तथा एकाधिक मीडिया संस्थानों को मुख्यमंत्री की आलोचना करने पर अदालती कार्रवाई के नोटिस मिले। गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह से नए विवादास्पद निदेशक की नियुक्ति का विरोध कर चुके छात्रों का पूरा प्रखंड ही हटा दिया गया और संसद को सूचना दी गई कि देश या सरकार की आलोचना के आरोप पर 844 पेज सोशल मीडिया से हटवाए गए हैं!
हिंदी पट्टी का रिकॉर्ड भी चिंताजनक है। मध्यप्रदेश में व्यापमं घोटाले की जांच में लगे चैनल के एक पत्रकार की संदिग्ध मौत हुई, तो जबलपुर में खदान माफिया का पीछा कर रहे पत्रकार संदीप कोठारी को अगवा कर जला दिया गया। उत्तर प्रदेश में कन्नौज, चंदौली, बरेली में हिंदी पत्रकारों की गोली मारकर हत्या कर दी गई और पीलीभीत में भूमाफिया के खिलाफ रपट लिखने वाले पत्रकार को मोटरसाइकिल से बांधकर घसीटा गया।
बिहार चुनावों के दौरान सीतामढ़ी के पत्रकार अजय विद्रोही की हत्या हुई। महाराष्ट्र सरकार ने अपने (अगस्त में) जारी सर्कुलर में कड़ी चेतावनी दी कि राज्य के राजनेताओं या अफसरों के खिलाफ आलोचनापरक लेखन करने वालों से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के कड़े प्रावधानों सहित निबटा जाए। दिल्ली दरबार तो कई नाटकीय घटनाक्रमों का गवाह रहा ही, मीडिया में दिल्ली क्रिकेट बोर्ड में भ्रष्टाचार का मामला उठाया गया तो पारा इस कदर गर्म हुआ कि केंद्रीय वित्त मंत्री ने राज्य के मुख्यमंत्री पर मानहानि का दावा दायर कर दिया, जिसमें मुख्यमंत्री की तरफ से एक पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री जेठमलानी बचाव पक्ष के वकील हैं।
खबरें, खासकर भाषाई मीडिया की खबरें रेडीमेड तो अवतरित होती नहीं, अपने समय, समाज और राजनैतिक पक्ष-प्रतिपक्ष तथा बाबूशाही के पेचीदा गलियारों में मौजूद कई कार्यशालाओं की ठोंका-पीटी से ही आकार पाती और आगे बढ़ती हैं। अगर कई पत्रकार आज्ञाकारिता की कसौटी पर रखे जाते हैं तो कुछ हर संस्थान में इसलिए भी साग्रह पोसे जाते हैं कि वे जरूरत आने पर एक हाजिरजवाब गुप्तचर तथा मूर्तिभंजक लेखक बनने का जोखिम खुशी-खुशी उठा लेते हैं।
सच तो यह है कि अखबार तथा चैनल प्राय: उनकी ही रपटों-खुलासों से अधिक जाने जाते हैं। इस बात का दर्दनाक अहसास भी सबको है कि आज का भारत वयस्क होता लेकिन नाजुक लोकतंत्र है, जहां रंग-बिरंगे पत्थर-पंख जेब में जमा करने वाले बच्चे की तरह हर दल की सत्तारूढ़ सरकारें अपने लिए नित नए अधिकार जमा करती रहती हैं। उनमें से अधिकतर का उपयोग आलोचकों का मुंह बंद रखने के लिए किया जाता है और दुरुपयोग की कथाओं को उजागर करने वाला मीडिया कश्मीर से कन्याकुमारी और पटना से पटियाला तक सारी सरकारों के निशाने पर आ जाता है। सुकरात ने कहा था कि एक संतुष्ट सुअर के बजाय मैं एक असंतुष्ट आदमी होना बेहतर मानता हूं।
आज के खबर अन्वेषी मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी संशयात्मा है, जो रूटीन पत्रकारीय गोष्ठी में जारी सरकारी तथ्यों, स्पष्टीकरणों या सेंसरशिप लगाने की सफाई से संतुष्ट नहीं होता। वह उनके परे जाकर अन्य स्रोतों से भी तथ्यों की पड़ताल अवश्य करना चाहता है। इस प्रश्नाकुलता और असंतोष का अभिनंदन हम नागरिक क्यों न करें, जिसने लगातार घोटालों, भ्रष्टाचार, माफिया गठजोड़ों का पर्दाफाश कर देश के बिगड़े वातावरण को प्रदूषण से मुक्त कराया और आज की सरकार को विपक्षी रोल से मुक्त कर सत्तारूढ़ होने का नायाब मौका दिलाया। सरकारपरस्त और संस्कारी मीडिया के कब्रस्तान से तो मीडिया का विविधतामय मछलीबाजार कहीं स्वस्थ है और उसकी यही जागरूक जिंदादिली अन्य पत्रकारों के लिए कारगर रक्षाकवच भी बनेगी।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
(साभार: नईदुनिया)

Wednesday, January 6, 2016

कैसा होगा भविष्य का मीडिया?



मीडिया/ क़मर वहीद नक़वी
qamarमुझे याद है कुछ साल पहले राजस्थान के किसी संग्रहालय में लगी एक पेंटिग, जिस में किसी इलाक़े के राजा विदेश से एक साइकिल ख़रीद कर लाये थे और इलाक़े की जनता को साइकिल चलाकर दिखा रहे थे !
तो कभी वह ज़माना था, जब राजा साइकिल चलाते हुए इतराते थे और आज वह ज़माना है कि साइकिल आम लोगों की सब से सस्ती सवारी है और देशों की बात तो अलग है, लेकिन हमारे यहां साइकिलया तो बच्चों की सवारी है या ग़रीब की!
सोचिए ज़रा कि साइकिल के आविष्कार ने कैसे दुनियाभर में लोगों की ज़िन्दगी बदली और साइकिल ही क्यों, सिलाई मशीन, छापा खाने या बिजली के बल्ब ने कैसे दुनिया के रहने-सहने, जीने और सोचने की तरीक़ा और सलीक़ा बदला!
तकनालॉजी सिर्फ़ पुरानी की जगह नयी मशीनों को ही नहीं बदलती, आदमी की ज़िन्दगी को भी बदलती है, समाज को बदलती है, मूल्यों और संस्कारों को भी बदलती है , यहां तक कि उसके खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, बोलने-चालने, सोने-जागने की आदतों तक को बदलती है, और जब यह सब बदलता है तो बाज़ार, अर्थव्यवस्था, देशों के कूटनीतिक सम्बन्ध और ख़ुद देशों का भविष्य भी बदलता है!
हो सकता है कि आज पत्रकारिता पढ़ रहे बहुत- से बच्चों को यह अविश्वसनीय लगे कि जब उनका जन्म हुआ होगा, उस समय देश में टीवी का प्राइम टाइम रात साढ़े नौ बजे ख़त्म हो जाता था और ज़्यादातर लोग रात दस बजे तक सोने चले जाते थे! आज टीवी का प्राइम टाइम कम से कम रात ग्यारह बजे तक तो है ही। काफ़ी घरों में तो टीवी बारह बजे रात तक भी चलता रहता है। यह बदलाव क्यों और कैसे आया? लोगों के सोने का समय आगे क्यों बढ़ गया? इस के पीछे आज बहुत- से और कारण गिनाये जा सकते हैं, लेकिन उस समय यानी आज से पन्द्रह-सत्रह बरस पहले सब से बड़ा कारण था टीवी, ख़ास कर प्राइवेट टीवी चैनलों का रोचक कंटेंट, जिन्हें देखने के लिए लोगों ने अपनी नींद आगे खिसकानी शुरू कर दी!
मुझे एक रोचक घटना याद आती है। 1995 में डीडी मेट्रो पर रात साढ़े नौ बजे 20 मिनट के बुलेटिन के तौर पर ‘आजतक’ की शुरुआत हुई। कार्यक्रम बड़ी तेज़ी से लोकप्रिय हुआ तो शायद साल भर बाद उसका प्रसारण समय साढ़े नौ से आधा घंटा आगे खिसकाकर रात दस बजे कर दिया गया। ‘आजतक’ में काम कर रहे हम सब बहुत चिन्तित हुए । लोग तो दस बजे सो जाते हैं। अब कौन देखेगा ‘आजतक?’ लेकिन हमें यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि ‘आजतक’ की दर्शक संख्या बिलकुल नहीं घटी। लोगों ने अपना सोने का समय आगे बढ़ा दिया!
हम अकसर ऐसे बदलावों से बहुत डरते हैं। मसलन, जब राजीव गांधी और सैम पित्रोदा की टीम देश में पीसीओ टेलीफ़ोन बूथों का नेटवर्क खड़ा कर रही थी और कम्प्यूटरों को लाने की बात कर रही थी, तो देश के सारे के सारे राजनीतिक दल न केवल उसका कड़ा विरोध कर रहे थे, बल्कि उनकी खिल्ली भी उड़ा रहे थे कि जिस देश की बहुत बड़ी आबादी इतनी ग़रीब है, वहां टेलीफ़ोन बूथ बना कर क्या हासिल होगा और कम्प्यूटर आने से तो सारे लोग बेरोज़गार ही हो जायेंगे। सोचिए अगर तब वह काम न हुआ होता तो आज हम कहां होते? और क्यों मार्क ज़ुकरबर्ग भारत के विशाल इंटरनेट बाज़ार को हथियाने के लिए ‘फ़्री-बेसिक’ के लिए इतना हाथ-पैर मार रहे होते?
टीवी ने लोगों के सोने का समय आगे बढ़ाया, और इंटरनेट ने जानकारी लेने-देने का तरीक़ा बदला, संवाद का तरीक़ा बदला, ‘इमोटीकॉन’ और ‘इमोजी’ और जाने क्या-क्या चीज़ें रोज़मर्रा की भाषा का हिस्सा बन गयीं, फ़ेसबुक जीवन का अनिवार्य अंग बन गया और ट्विटर पर ख़बरें ब्रेक की जाने लगीं। मोबाइल फ़ोन आये तो बात करने के लिए थे, लेकिन उसने हर एक को फ़ोटोग्राफ़र बना दिया। यही नहीं, एसएमएस ने हमारे देखते ही देखते पूरी की पूरी अंग्रेज़ी भाषा ही बदल दी! और शायद अगले कुछ ही सालों में मोबाइल फ़ोन क्रेडिट-डेबिट कार्ड को इतिहास की चीज़ बना देंगे और मुझे तो लगता है कि करेंसी नोट और सिक्कों का जीवन भी पांच-दस साल से ज़्यादा का नहीं है। सारा लेन-देन मोबाइल के ज़रिये ही होने लगेगा। जेब में पर्स रखने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी!
तकनालॉजी के बदलने की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि पता ही नहीं चलता कि कुछ नया कब आया और कब पुराना भी हो गया! इसीलिए समय अब पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ी से बदलता है। बदलाव की यही तेज़ रफ़्तार मीडिया में भी दिखती है और दिखेगी भी। आज हम डिजिटल दौर में हैं। मीडिया चाहे प्रिंट का हो, टीवी हो, रेडियो हो या फिर वेबसाइट, सबको वेब प्लेटफ़ार्म पर मौजूद होना ही है। जो अख़बार हैं, उन की वेबसाइट वीडियो कंटेंट दे ही रही है। कुछ अख़बारों के पोर्टलों पर तो उन के पत्रकार महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर ‘लाइव वीडियो विश्लेषण’ भी करने लगे हैं। उधर टीवी चैनलों की वेबसाइटों पर पत्रकारों, स्तम्भकारों के विश्लेषणात्मक आलेख छप रहे हैं। यानी अख़बार कुछ-कुछ टीवी बन रहे हैं और टीवी कुछ – कुछ अख़बार होने की कोशिश कर रहे हैं।
आप देखें, जो वेबसाइटें शुरू से न्यूज़ की रहीं, उस के बाद अख़बारों और न्यूज़ चैनलों की जो वेबसाइटें आयीं, उन तीनों में कोई ख़ास अन्तर नहीं दिखता। तीनों में टेक्सट में ख़बरें हैं, घटनाओं की वीडियो कवरेज है, कहीं-कहीं वीडियो टिप्पणियां भी हैं, ब्लॉग में सम्पादकीय और स्तम्भकारों के लेख हैं।
तो अभी हम जो न्यूज़ मीडिया के तीन प्रमुख प्लेटफ़ार्म प्रिंट, टीवी और वेब देख रहे हैं, क्या भविष्य में वह सब मिलकर एक हो जायेंगे? और अगर ऐसा होगा तो कब तक? क्या अख़बार ख़त्म हो जायेंगे? यह सवाल तो तभी से पूछा जा रहा है, जब से टीवी पर ख़बरों की शुरुआत हुई। लेकिन अख़बार कभी ख़त्म नहीं हुए, दुनिया में कहीं भी नहीं। पत्रिकाएं ज़रूर सिमटती और बन्द होती गयीं। इंटरनेट के आने के बाद यह सवाल फिर उठा। और जैसे -जैसे दुनिया के जिन देशों में तेज़ स्पीड के साथ मोबाइल पर सस्ता इंटरनेट उपलब्ध होने लगा, वहां अख़बारों के पाठक घटने लगे, ख़ास तौर पर युवा पाठक तो इंटरनेट पर ही ख़बरें पढ़ने लगे। भारत में ज़रूर मामला अलग है। अभी-अभी जारी हुई 59वीं वार्षिक प्रेस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में प्रिंट प्रकाशनों ने 5.8% की बढ़त दर्ज की है। यह इसलिए है कि देश में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या तो तेज़ी से बढ़ी है, लेकिन इंटरनेट और स्मार्टफ़ोन का फैलाव अभी उतनी तेज़ी से नहीं हुआ है। इसलिए बहुत- से इलाक़ों में ख़बरों और समाचार विश्लेषण के लिए लोग अख़बारों और टीवी पर ही निर्भर हैं।
दूसरी बात यह कि बड़े शहरों में भी मोबाइल सेवा की हालत ख़स्ता है। कॉल ड्रॉप आम बात है, मोबाइल पर इंटरनेट इतना धीमा है कि कई बार तो ईमेल तक डाउनलोड करना या भेजना मुश्किल हो जाता है। निजी लैपटॉप, टैबलेट और डेस्कटॉप बहुत कम ही लोगों के पास हैं। फिर अभी मोबाइल कम्पनियों के ‘डाटापैक’ बहुत महंगे पड़ते हैं। इसलिए ज़्यादातर लोग इंटरनेट का इस्तेमाल सोशल मीडिया, गूगल सर्च और ईमेल के लिए ही करते हैं, ख़बरों के लिए नहीं।
लेकिन यह स्थिति ज़्यादा दिन तक नहीं रहने वाली है। ज़्यादा दिन यही हाल रहा हो तो विकास की रफ़्तार में हम दुनिया में बहुत पिछड़ जायेंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ज़ोर भी ‘डिजिटल इंडिया’ पर है, इसलिए उम्मीद करनी चाहिए कि 2016 में सरकार इस पर ख़ास ध्यान देगी।
सस्ते इंटरनेट और सस्ते स्मार्टफ़ोन के विस्तार से तीन बड़ी बातें होंगी। पहली यह कि कम से कम जहां तक न्यूज़ मीडिया की बात है, अख़बार, टीवी और वेब मिलकर एक हो जायेंगे। इंटरनेट कनेक्शन अगर तेज़ और सस्ता मिलने लगे तो मोबाइल पर ख़बरें पढ़ने-देखने वालों की संख्या तेज़ी से बढ़ेगी और ख़बरें देने का तौर-तरीक़ा बदलेगा। ख़बरों को इस अन्दाज़ में देना पड़ेगा कि मोबाइल पर देखना सुविधाजनक हो। वीडियो को शूट करने और ग्राफ़िक बनाने तक के तरीक़े बदलने पड़ेंगे। सब को अपने पोर्टलों की डिज़ाइन और फ़ॉर्मेट भी मोबाइल के लिए बदलना ही पड़ेगा। तो अब मोबाइल न्यूज़ के लिए तैयार हो जाइए!
दूसरी बात यह होगी कि बहुत- से छोटे और स्वतंत्र न्यूज़ पोर्टल अस्तित्व में आयेंगे। वैसे अभी ही ऐसे कई पोर्टल चल रहे हैं, लेकिन उनकी भूमिका अभी प्रभावशाली नहीं है। उनकी संख्या, भूमिका और हस्तक्षेप आगे चलकर बहुत बढ़ेगा क्योंकि बहुत कम लागत से उन्हें शुरू किया जा सकेगा। बड़ी मीडिया कम्पनियों के एकाधिकार को इससे कड़ी चुनौती मिलेगी। यह चुनौती तो सोशल मीडिया और कई छोटे पोर्टलों के ज़रिये अभी से ही मिलने लगी है, आगे चलकर यह और बढ़ेगी।
तीसरी बात यह कि नयी तकनालॉजी ‘इंटरएक्टिविटी’ काफ़ी बढ़ायेगी और दर्शक-पाठक की भागीदारी अपने न्यूज़ मीडिया में काफी बढ़ेगी। यह अच्छा भी होगा और ख़राब भी। अच्छा इसलिए कि न्यूज़ मीडिया अपने दर्शकों-पाठकों की सतत ‘स्क्रूटनी’ में रहेगा और उसकी ग़लतियों पर तुरन्त उसे ‘फ़ीडबैक’ मिल जायेगा और ख़राब इसलिए किसी भावनात्मक मुद्दे पर मीडिया ‘जनदबाव’ के अनुसार अपनी कवरेज की दिशा तय करने लग सकता है। सोशल मीडिया के कारण यह अब भी हो रहा है, जैसा कि हमने अभी हाल में किशोर न्याय बिल पर देखा।
ज़ाहिर-सी बात है कि यह सब 2016 में नहीं होगा, लेकिन इस दिशा में बढ़ने की शुरुआत तो एकाध साल पहले से हो ही चुकी है। अगले पांच सालों में हम सब के सामने एक बिलकुल नया मीडिया होगा, जो मोबाइल पर पढ़ा, देखा और सुना जायेगा, इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं। और तब मोबाइल ही शायद मीडिया के उपभोग का सबसे बड़ा प्लेटफ़ार्म होगा क्योंकि तब तक मोबाइल एक ऐसी ‘ऑल इन वन डिवाइस’ में बदल चुका होगा, जो अलादीन के चिराग़ की तरह हर काम करेगा। अख़बार और टीवी शायद तब भी रहें, लेकिन फ़ुर्सत के समय के लिए!
तो नये पत्रकारों, मीडिया संस्थानों और मीडिया की पढ़ाई करा रहे संस्थानों को अपने आप को नये मोबाइल मीडिया के लिए तैयार करना चाहिए।
raagdesh.com से साभार 

Monday, December 21, 2015

क्या रिपोर्टिंग का अंत हो गया है?

मीडिया/ रवीश कुमार 
आपने न्यूज चैनलों पर रिपोर्टिंग कब देखी है? जिन चैनलों की पहचान कभी एक से एक रिपोर्टरों से होती थी, उनके रिपोर्टर कहां हैं? अब किसी खबर पर रिपोर्टर की छाप नहीं होती। रिपोर्टर का बनना एक लंबी प्रक्रिया है। कई साल में एक रिपोर्टर तैयार होता है जो आस पास की खबरों से आपको सूचित करता है। खोज कर लाईं गई खबरें गायब होती जा रही हैं। खबरों को लेकर रिपोर्टरों के बीच की प्रतिस्पर्धा समाप्त हो चुकी है। ब्रेकिंग न्यूज उसी प्रतिस्पर्धा का परिणाम था लेकिन अब सूचना की जगह बयान ब्रेकिंग न्यूज है। ट्वीट ब्रेकिंग न्यूज है। क्या एक दर्शक के नाते आप चैनलों की दुनिया से गायब होते रिपोर्टरों की कमी महसूस कर पाते हैं?
अगर रिपोर्टर नहीं हैं तो फिर आस पास की दुनिया के बारे में आपकी समझ कैसे बन रही है? या आपको समझ बनानी ही नहीं है? इससे नुकसान किसका हो रहा है? आपका या रिपोर्टर का? चैनल अब भी सर्वसुलभ जन संचार के माध्यम हैं। लेकिन इन पर क्या जन नजर आता है? क्या एक दर्शक के नाते आप देख पा रहे हैं कि आपके आसपास की दुनिया कितनी सिमट गई है? या आपको फर्क नहीं पड़ता है? खबरों को मार देने का लाभ क्या एक दर्शक को मिल रहा है? टीवी पर बहस ने खबरें लाने के कौशल को मार दिया है।
टीवी और ट्विटर में खास फर्क नहीं रहा। टीवी के स्क्रीन पर ट्विटर की फीड को लाइव कर देना चाहिए। तर्क के जवाब में तर्क हैं। फिर तर्क को लेकर समर्थन और विरोध है। फिर हर सवाल से जवाब गायब हो जाता है। तर्क और बोलने के कौशल ने रिपोर्टरों की खबरों को समाप्त कर दिया है।
जब कोई दूर दराज या अपने ही शहर के कोने कोने में नहीं जाएगा तो प्रशासन और सरकार की जवाबदेही कैसे तय होगी? क्या इन सब की मौज नहीं हो गई है? खबर आती नहीं कि बयान देकर उसे बहस में बदल दिया जा रहा है। फिर दर्शक समर्थक में तब्दील हो जाता है और पार्टी के हिसाब से बहस में शामिल हो जाता है। इस प्रक्रिया से सिस्टम की मार झेल रहे तबके में हताशा फैल रही है। सूचना देने वाला तंत्र कमजोर हो रहा है और कमजोर किया जा रहा है। सोशल मीडिया और चैनलों पर आकर फालतू सवालों से एक ऐसी वास्तविकता रची जा रही है जो वास्तविक है ही नहीं।
लोग धरने पर बैठे हैं। लाठियां खा रहे हैं। वो किससे बात करें। उनके लिए रिपोर्टर ही तो है जिसके जरिये वो सरकार और समाज से अपनी बात बताते हैं। इस कड़ी को आप खत्म कर दें और आपको फर्क ही न पड़े तो नुकसान किसका है? आपका है। आप जो दर्शक हैं। अगर आप दर्शक होने की जवाबदेही में लापरवाही बरतेंगे तो खुद को ही तो कमजोर करेंगे।
रोज रात को होने वाली बहसों पर आपने कुछ तो सोचा होगा । क्या दर्शक होने की नियति पार्टियों का समर्थक या विरोधी होना रह गया है? आप दर्शक हैं या कार्यकर्ता हैं? आप जो इन बहसों को अनंत जिज्ञासाओं से देख रहे हैं उससे हासिल क्या हो रहा है? बहसें होनी चाहिएं लेकिन क्या सार्थक बहस हो रही है? जवाब देने से पहले विरोधी की मजम्मत और सवाल पूछने से पहले पूछने वाले को विरोधी बता देना। इनसे भी लोकतंत्र समृद्ध होता ही होगा लेकिन क्या आप देख नहीं पा रहे हैं कि रोज एक मुद्दा कैसे आ जाता है? कैसे जब तक पिछले मुद्दे की जवाबदेही तय होती अगले दिन कोई और मुद्दा आ जाता है?
हम लगातार मुद्दों के पीछे भाग रहे हैं। उन मुद्दों के पीछे जिनमें आपके पार्टीकरण की संभावना ज्यादा है। इन मुद्दों को ध्यान से तो देखिये। तंत्र आसानी से रोज एक नए मुद्दे को रचता है। फेंकता है। अगले दिन का मुद्दा दर्शक को याद रहता है न एंकर को। हर दिन मुद्दे की बहस में कोई एक हारता है तो कोई एक जीतता है। इन बहसों के जाल में आपको फंसा कर आपके पीछे क्या हो रहा है? क्या आपको पता है? क्या आप जानना चाहते हैं? हर खेमे के लोग फिक्स हैं। हर बात पर अपने तर्कों के कौशल से पहले पार्टीकरण करते हैं फिर हैशटैग करते हैं और फिर ट्रेंड करने लगता है। ट्विटर और टीवी एक दूसरे के अनुपूरक हो गए हैं। इस प्रक्रिया से कमजोर तबका गायब कर दिया गया है। उसकी आवाज कुचली जा रही है। बहसों से जनमत बनाने के नाम पर जनमत की मौत हो रही है। ऐसे चैनलों की संभावना खत्म नहीं होगी। जब तक लोकतंत्र में लोगों को मुर्दा बने रहने के लिए जिंदा होने का भ्रम भाता रहेगा बहस की दुकान चलेगी। टीवी के जरिये तंत्र अपना विस्तार कर रहा है। वो आपको अपने जैसा ओर अपने लिए बना रहा है।
चैनल तो चल ही रहे हैं। चलेंगे। हम भी वही कर रहे हैं जो सब कर रहे हैं। किसी की नैतिकता किसी से महान नहीं है बल्कि मैं आप दर्शकों से प्रसन्न हूं कि आपके लिए नैतिकता का कोई मतलब नहीं है। वो एक जरूरत का हथियार है जो आप अपने विरोधी को लतियाने गरियाने के काम में लाते हैं। कुछ लोगों का देश और समाज के विमर्श पर कब्जा हो गया है। एक नया तंत्र बन गया है। इस कॉन्प्लेक्स में दर्शकों के बड़े हिस्से को शामिल कर लिया गया है । मैं इसे बदल नहीं सकता और न क्षमता है लेकिन जो हो रहा है उसे अपनी समझ सीमा के दायरे से कहने का प्रयास कर रहा हूं।
जो कमजोर हैं वो इस खतरे को कभी समझ नहीं पायेंगे। वो एयरपोर्ट या मॉल में अचानक टकरा गए एंकर को रिपोर्टर समझ कर अपना हाल बताने लगते हैं। ईमेल लेकर खुश हो जाते हैं। न्यूज चैनलों को मोटी मोटी चिट्ठियां लिख कर खुश हो लेते हैं । शायद इंतज़ार भी करते होंगे । तीन तीन घंटे बहस चलती है । आप देख रहे हैं । कभी रिपोर्टर भी ढूँढ लीजिये । कभी कोई चैनल रिपोर्टर से बनता था अब एंकर से हो गया है । एंकर सेलिब्रेटी है। एंकर राष्ट्रवादी है। सांप्रदायिक टोन में भाषण दे रहा है। उसके साथ आपकी सेल्फी है।
जमीन की खबरें गायब हैं। कहीं जयंती तो कहीं पुण्यतिथि के नाम पर खबरों की रिसायक्लिंग हो रही है। फालतू का स्मरण हो रहा है। स्मरण अब दैनिक कर्तव्य बन गया है। नेता भी ट्वीट कर स्मरण कर लेते हैं। याद किया जाना एक रोग हो गया है। सेल्फी की तरह हो गया है रोज किसी दिवंगत को राष्ट्रपुरुष बताना। ट्विटर पर रोज सुबह किसी की मूर्तियां लग जाती हैं। सब गुजरे हुए महापुरुष को याद कर महापुरुष बन रहे हैं। टीवी और ट्विटर पर पॉलिटिकल जन्मदिन की बाढ़ आ गई है। याद करना काम हो गया है। याद करना उसे नए सिरे से भुलाने का नया तरीका है।
मैंने प्राय: न्यूज चैनल देखना बंद कर दिया है। कह सकते हैं कि बहुत कम कर दिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी आस्था इस माध्यम में नहीं है या इस माध्यम की उपयोगिता कम हो गई है। अगर ये सिर्फ बहस तक सिमट कर रह जाएगा तो आप उन प्रवक्ताओं की समझ का विस्तार बनकर रह जायेंगे जो इन दिनों उसी गूगल का रिसर्च लेकर आ जाते हैं जो एंकर लेकर आता है। गूगल रिसर्च की भी मौत हो गई है। लिहाजा जवाबदेही से बचने का रास्ता आसान हो गया है।
मुझे इस बात का कोई दुख नहीं है कि रिपोर्टर समाप्त हो रहे हैं। खुशी इस बात की है कि रिपोर्टर को इस बात का दुख नहीं है। उससे भी ज्यादा खुशी इस बात की है कि आप दर्शक दुखी नहीं है। जागरूकता की वर्चुअल रियालिटी में आप रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। मौज कीजिये। बहस देखिये। कांव कांव कीजिये। झांव-झांव कीजिये। जनता का हित इसमें है कि वो अपने नेता के हित के लिए किसी से लड़ जाए। नेता का हित किसमें है? उसका हित इसी में है कि जब भी आप बहस करें सिर्फ उसके हित के लिए करें!
(साभार: रवीश कुमार के ब्लॉग 'नई सड़क' से)

Tuesday, November 17, 2015

पत्रकारिता एवं जनसंचार के छात्रों के लिए जरूरी सूचना

MJMC-IV, PGDJMC-II, PGDBJNM-II और PGDAPR-II के जो छात्र देहरादून और हल्द्वानी में अक्टूबर में संपन्न मौखिक परीक्षा नहीं दे पाए, उनसे अनुरोध है कि वे शीघ्रातिशीघ्र अधोहस्ताक्षरी से संपर्क करें, ताकि बचे हुए छात्रों की मौखिकी (रु. 500/- विलम्ब शुल्क के साथ) हल्द्वानी में एक बार फिर से करवाई जा सके. जो परीक्षार्थी इस बार भी मौखिक परीक्षा नहीं दे पायेंगे, उन्हें अगले वर्ष तक इंतज़ार करना होगा.

प्रो. गोविन्द सिंह
निदेशक, पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्याशाखा
फोन: 9410964787 , E-mail: govindsingh@uou.ac.in
- See more at: http://www.uou.ac.in/announcement/2015/11/9129#sthash.r1AwTrFC.dpuf

Sunday, November 1, 2015

ब्लॉग बनाना सीखें

प्यारे साथियो,
अपने आप को व्यक्त करने का सबसे अच्छा साधन है डायरी. यदि आप नियमित रूप से डायरी लिखना शुरू कर दें तो आपकी भाषा, अभिव्यक्ति और शैली काफी सुधर सकती है.
आज के जमाने में डायरी का दूसरा रूप है- ब्लॉग. यानी कम्प्यूटर और इंटरनेट के जमाने की डायरी. आप किसी भी समस्या पर, अच्छी-बुरी बातों पर, खट्टे-मीठे अनुभवों पर इंटरनेट पर अपनी डायरी लिखिए और साथ ही अपने दोस्तों को बताइए, उनकी प्रतिक्रिया, आलोचना, प्रशंसा से अपने आप को सुधारिए.
हम आपको यहाँ यूट्यूब के एक पाठ से रू-ब-रू करवाते हैं, जिसमें सिखाया गया है कि ब्लॉग किस तरह से बनाया जाता है.


https://www.youtube.com/watch?v=cL9sYxJtM1c

Friday, October 9, 2015

पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विभाग: मौखिक परीक्षा की सूचना

पीजीडीजेएमसी, एपीआर, बीजेएनएम- द्वितीय समेस्टर और एमजेएमसी-चतुर्थ समेस्टर, के समस्त छात्रों को सूचित किया जाता है कि उनकी मौखिक परीक्षा (वाइवा) हल्द्वानी और देहरादून में निम्न कार्यक्रमानुसार होनी निश्चित हुई हैं.

सभी परीक्षार्थी अपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट/ लघु शोध प्रबंध इन तिथियों से पहले-पहल विश्वविद्यालय के परीक्षा विभाग में अवश्य जमा करवा दें. पोर्टफोलियो और अन्य प्रायोगिक कार्यों की फाइल मौखिकी के दिन परीक्षा केन्द्र पर ले आयें।
गढ़वाल अंचल के छात्रों के लिए: 20 अक्टूबर, 2015 सवेरे 11 बजे से. स्थान: यूओयू कैंपस, टी-27, अजबपुर कलां, निकट बंगाली कोठी चौक, टीएचडीसी कॉलोनी, देहरादून.
कुमाऊँ अंचल की छात्रों के लिए: 26 अक्टूबर, 2014 को सवेरे 11 बजे से. स्थान: विश्वविद्यालय मुख्यालय, तीनपानी बायपास, हल्द्वानी. 
संपर्क:
प्रो गोविन्द सिंह
निदेशक पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्याशाखा.
उत्तराखंड मुक्त विवि, हल्द्वानी
Phone: 09410964787

श्री भूपेन सिंह, सहायक प्राध्यापक, पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्याशाखा
Ph: 09456324236
श्री राजेंद्र सिंह क्वीरा, अकादमिक एसोशिएट, हल्द्वानी
PH: 09837326427           
देहरादून कैम्पस: श्री सुभाष रमोला; फ़ोन: 9410593690


Thursday, October 8, 2015

जर्नलिस्ट को एक्टिविस्ट नहीं बनना चाहिए: सिद्धार्थ वरदराजन

मीडिया/ अभिषेक मेहरोत्रा
द हिंदू के पूर्व एडिटर और हाल ही में द वायर (The Wire) नाम से डिजिटल पोर्टल लॉन्च करने वाले वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन का कहना है कि वे इस बात से सहमत नहीं है कि पत्रकारों को एक्टिविस्ट के तौर पर काम करना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक्टिविस्ट अपनी एक धारण को लेकर प्रतिबद्ध होते हैं, जबकि पत्रकार को हमेशा संतुलित रहकर रिपोर्ट फाइल करनी चाहिए। उन्होने कहा कि पत्रकार के अंदर काम के प्रति पैशन होना अत्यंत आवश्यक है।
दिल्ली के इंडियन हैबिटेट सेंटर में नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया (एनएफआई) द्वारा आयोजित चाइल्ड सर्वाइवल मीडिया अवॉर्ड्स के दौरान पत्रकारो को संबोधित करते हुए सिद्धार्थ ने कहा कि जिसे आप लोग डेवलपमेंट जर्नलिज्म कह रहे हैं, मैं उसी ही रियल जर्नलिज्म कहता हूं। उन्होंने कहा कि जिस तरह के विषय पर फेलोशिप पाने वाले पत्रकारों ने काम किया है, वे बहुत अहम है पर उनकी चर्चा न्यूजरूम में नहीं होती है। इन मुद्दों पर जो स्टोरीज लिखी गई है, वे वास्तविक तौर पर दिखाती है कि कैसे आमजन अपने जिंदगी जी रहा है।
उन्होंने कहा कि भारत में मीडिया का बहुत विशाल स्वरूप है। बड़ी संख्या में अखबार, के साथ-साथ चौबीस घंटे चलने वाले सैकड़ों चैनल्स हैं, पर इनमे से नब्बी फीसदी चैनल्स नुकसान मे ही है। जिन समूहो के बाद एंटरटेनमेंट चैनल है, वे ही रेवेन्यू बना पाते हैं। उन्होंने कहा कि अब मीडिया विज्ञापन का बिजनेस बन गई है। एक बड़े अंग्रेजी अखबार के मैनेजिंग डायरेक्टर का तो खुले तौर पर कहना है कि हम ऐडवर्टाइजिंग वर्ल्ड में काम करते हैं। सिद्धार्थ ने कहा कि आज विज्ञापनों के आधिपत्य के चलते रियल ग्राउंड रिपोर्टिंग के जरिए लिखी गई खबरों को भी सही स्पेस नहीं मिल पाता है। उन्होंने कहा कि आजकल सब कुछ इतना इकॉमिक ड्रिवन और पॉलिटिकली ड्रिवन हो गया है कि बड़े मीडिया हाउस छत्तीसगढ़ में नसबंदी के दौरान हुई महिलाओं की मौत पर खबर करने के लिए पत्रकार नहीं भेजते हैं, पर मैडिसन स्क्वायर पर पीएम की स्पीच कवर करने के लिए सभी के संवादादाता वहां मौजूद रहते हैं।
पर असली पत्रकार वही है जो इन तमाम मुश्किलों के बावजूद सही खबर प्रकाशित करने के लिए रास्त निकालता है। उन्होंने कहा कि पाक के मुकाबले भारत में अखबारों की पहुंच बहुत अधिक है, क्योंकि यहां उनकी कीमत काफी कम है।
उन्होंने कहा कि अच्छी खबर अब रुकती नहीं है। ऑनलाइन मीडिया जर्नलिज्म का एक नया रूप है, जहां अच्छी खबरें बहुत तेजी से वायरल हो जाती है। सिद्धार्थ ने कहा कि एक जर्नलिस्ट के तौर पर आप अपने संस्थान की नीति नहीं तय कर सकते हैं, पर खबर की क्वॉलिटी अच्छी करना आपके हाथ में होता है। उन्होंने कहा कि एक रिपोर्टर को कभी भी आंकड़ो से डरना नहीं चाहिए, उसे आंकड़ों की अच्छी समझ विकसित करनी चाहिए। मेरे साथ करीब 100 रिपोर्टरों ने काम किया है, पर ऐसे रिपोर्टर उंगुली पर गिन सकता हूं तो आंकड़ों की समझ रखते हैं और उसके आधार पर स्टोरी बना लेते हैं।
सिद्धार्थ बोले कि एक पत्रकार के लिए बेहद जरूरी है कि उसे स्टोरी टेलिंग की आर्ट आती हूं। अहम विषयों पर कई स्टोरीज इसलिए नहीं पढ़ी जाती है क्योंकि पत्रकार उसे बोरिंग और घिसे-पिटे तरीके से लिखते हैं। कोई भी स्टोरी तभी ज्यादा पढ़ी जाती है, जब वो क्रिएटिव तरीके से लिखी गई हो। साथ ही उन्होंने कहा कि हमेशा एक पत्रकार को याद रखना चाहिए कि वे स्टोरी किसके लिए लिख रहा है। अपने सोर्स को खुश करने के लिए स्टोरी न लिखें, हमेशा पाठक को ध्यान में रखने हुए लिखिए, तभी आप पत्रकारिता कर पाएंगे। एक पत्रकार के लिए सोर्स जरूरी होती है पर किसी एक सोर्स के दिए फैक्ट्स और फिगर्स को हमेशा क्रॉसचेक करना चाहिए ताकि आप किसी के द्वारा उसके तरीके से यूज नहीं हो सकें।
उन्होंने कहा कि हरेक पत्रकार को चाहिए कि वे किसी एक या दो क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करें। उन्होंने कहा कि पत्रकारों के लिए आरटीआई बड़ा टूल है पर पत्रकार इसका सही प्रयोग करना नहीं जानते हैं। वे इसके जरिए ऐसे सवाल पूछते हैं, जिनका जवाब अधिकारी आसानी से टाल देते हैं। (साभार)

http://www.samachar4media.com/journalists-should-not-be-activist-says-senior-journalist-siddharth-varadarajan