रेडियो एक ऐसा
माध्यम है, जिसकी पहुँच सबसे ज्यादा है. आज यह हमारे देश की ९७ प्रतिशत आबादी तक
पहुँच सकता है. एक ज़माना था, जब देश में रेडियो की धूम थी. अखबार बहुत कम लोगों तक
पहुँच पाते थे, टीवी तब था ही नहीं. सिर्फ रेडियो ही समाचार, शिक्षा और मनोरंजन का
जरिया हुआ करता था. अस्सी के दशक में जब टीवी ने मनोरंजन के माध्यम के रूप में
अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं, तब रेडियो की चमक कुछ फीकी पड़ने लगी. नब्बे के दशक में
उपग्रह चैनलों और विदेशी चैनलों के लिए जब देश के दरवाजे खुले तो रेडियो के लिए
स्थितियां कुछ और गड़बड़ाने लगीं. फिर दूरदर्शन के साथ ही अनेक निजी टीवी चैनल आने
लगे, जिनमें खबरें भी प्रसारित होने लगीं. ऐसा लगा कि रेडियो अब अतीत की बात हो
जाएगा. क्योंकि लोग रेडियो की जगह टीवी देखने लगे. दूरदर्शन और आकाशवाणी की सरकारी
खबरों की तुलना में निजी चैनलों की खबरें ज्यादा ताजातरीन लगने लगीं. इस बीच
अखबारों के विस्तार और प्रसार में भी बेतहाशा इजाफा हुआ. संचार और परिवहन साधनों के
बढ़ने से अखबार दूर-दूर तक पहुँचने लगे. इससे भी रेडियो का महत्व घटने लगा.
लेकिन नब्बे के ही
दशक में रेडियो में भी निजीकरण की शुरुआत हुई. एफएम यानी फ्रीक्वेंसी मोड्यूलेशन
वाले रेडियो की शुरुआत हुई, जिसमें आवाज एकदम साफ़ आने लगी. पुराने जमाने की कर्णकटु
आवाज की तुलना में एकदम मधुर और पारदर्शी-जैसी आवाज कानों में गयी तो एफएम के
प्रति एक नया जोश युवाओं में दिखने लगा. एफएम को लोगों ने, खासकर महानगरीय युवाओं
ने सर आँखों में बिठा दिया. लेकिन सरकार निजी रेडियो को खबरें और सामयिक कार्यक्रम
देने से डरती रही. एफएम निजीकरण के दो चरण बीत गए, लेकिन समाचारों को खोला नहीं
गया. अब सुनते हैं कि तीसरे चरण में खबरों के प्रसारण की अनुमति भी सरकार देने
वाली है. निश्चय ही, यदि ऐसा हो गया तो रेडियो में भी एक नयी क्रान्ति आयेगी.
इधर, हाल ही में
आकाशवाणी ने अपने मनोरंजन चैनल विविध भारती को भी रीलांच करने का फैसला किया है.
प्रधानमंत्री मोदी ने निश्चय ही रेडियो पर अपने मन की बात शुरू करके एक नई पहल
शुरू की है. यानी रेडियो एक बार फिर से फोकस में आ रहा है. श्रोताओं में भी नया
जोश दिखाई पड़ रहा है. हो भी क्यों न. रेडियो जितना सहज माध्यम है, उतना और कोई
नहीं है. यह आपको डिस्टर्ब नहीं करता. थोड़ा सा धन खर्च करने पर ही आप इसकी सेवा का
लाभ उठा सकते हैं. इसलिए यदि सरकार और हम रेडियो के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें तो
इसकी धाक फिर से जम सकती है. हम यहाँ अमर उजाला के रविवारीय अंक की आवरण कथा दे
रहे हैं, जिसमें विविध भारती की पूरी झलक प्रस्तुत की गयी है. आप भी पढ़िए: प्रो.
गोविन्द सिंह
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