School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला
Showing posts with label UOU. Show all posts
Showing posts with label UOU. Show all posts

Thursday, March 19, 2015

पत्रकारिता में निरंतर अध्ययन जरूरी

गोष्ठी रिपोर्ट/ राजेंद्र सिंह क्वीरा

उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ध्यन विद्याशाखा द्वारा पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसमें विशेषज्ञों द्वारा विद्यार्थियों को पत्रकारिता की बारीकियों से अवगत कराया गया। इस कार्यशाला में पत्रकारिता विभाग के निदेशक प्रो. गोविन्दसिंहआॅल रेडियो रामपुर के प्रोड्यूसर श्री सुरेन्द्र राजेश्वरीअमर उजाला के संपादक श्री सुनील शाहदैनिक जागरण के संपादक श्री चंद्रशेखर बेंजवाण व कुमाऊं विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के निदेशक डा. गिरीश रंजन तिवारी ने अपने.अपने व्याख्यान दिये।  

Tuesday, February 24, 2015

साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों की चिंता में डूबे दो दिन

संगोष्ठी/ राजेंद्र सिंह क्वीरा
साहित्य अकादमी व उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय संगोष्ठी में पहुंचे देश भर के साहित्यकार व पत्रकार
देश के वरिष्ठ साहित्यकारों व पत्रकारों ने पत्रकारिता से साहित्य को हाशिये पर धकेल दिए जाने को अफसोसनाक बताया। लेकिन उन्होने सोशल मीडिया को आशा की नई किरण बताया, साथ ही शंका भी जाहिर की कि इसमें भी साहित्य के बहस का स्तर गिर रहा है। सभी ने साहित्य का स्तर ऊंचा उठाने के लिए एकजुटता की बात की। हल्द्वानी में साहित्य अकादेमी और उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में देशभर से आये विद्वतजनों ने अपनी-अपनी राय जाहिर की। साहित्यकारों का कहना था कि विश्व स्तर पर मीडिया पर विज्ञापनों का दबाव बढ़ने के कारण साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर चली गयी है, जो कि देश और समाज के लिए बेहद निराशाजनक है। संगोष्ठी में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र का कहना था कि सारी दुनिया में साहित्य को जनता तक सरल रूप में पहुंचाने का काम पत्रकारिता ही करती रही है। साहित्य के दर्जनों नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं। हिन्दी में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली गद्य का विकास हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से ही किया। साथ ही दुनियाभर के मुद्दों से पाठकों को परिचित करवाया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तिलक और गांधी जी ने प्रतिरोध की पत्रकारिता की, जिसकी वजह से उन्हें जेल जाना पड़ा। उस समय पत्रकारिता ने ही सबसे पहले स्वदेशी और बंगाल विभाजन जैसे ज्वलंत मुद्दों को उठाया था। साहित्यिक पत्रकारिता ही उस समय मुख्य धारा की पत्रकारिता थी। लेकिन आज हालात एकदम बदल गये हैं। उन्होंने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता इतनी मजबूत बना दी थी कि लोग अखबार में लिखी गई खबर को झूठ मानने को तैयार ही नहीं होते थे। बाद के दौर में विज्ञापनों के दबाव के चलते साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर जाने लगी. दुर्भाग्य से किसी ने इसका विरोध नहीं किया। यही वजह है कि एक-एक कर हिंदी की नामी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो गईं।
उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति सुभाष धुलिया का कहना था कि भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद के आने के बाद से मीडिया में अपराध, सेक्स और दुर्घटनाओं की खबरों को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा है। इसका कारण यह है कि इसे साधारण पाठक भी सरलता से समझ लेता है, जबकि साहित्यिक पत्रकारिता को समझने में उसे कुछ मुश्किल आती है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि संपादकीय और साहित्यिक पृष्ठ पढ़नेवाले 10-12 प्रतिशत पाठक ही समाज का नेतृत्व करते हैं। इसलिए संचार माध्यमों में साहित्यिक और वैचारिक सामग्री को रोका नहीं जा सकता है. मुक्त अर्थव्यवस्था आने के बाद से मीडिया में संपादक की जगह ब्रांड मैनेजर लेने लगे। ये मैनेजर अखबार को ऐसा उत्पाद बनाने लगे जिसे विशाल जनसमूह खरीदें। इस वजह से साहित्यिक और सांस्कृतिक विमर्श हाशिए पर चले गए। पत्रकारिता सेवा से व्यापार में बदल गई। इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना बन गया। इसी वजह से समाचार उत्पाद बन कर रह गया। पत्रकारिता का उद्देश्य विवेकशील नागरिक बनाना न होकर ज्यादा क्रय शक्ति वाला उपभोक्ता बनाना हो गया। उन्होंने कहा कि न्यू मीडिया अब असंतोष और असहमति को अभिव्यक्ति देने का काम कर रहा है, लेकिन इंटरनेट जैसे माध्यम की पहुंच अभी जनसंचार के माध्यमों की तरह नहीं है।


उत्तराखंड मुक्त विवि में पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्या शाखा के निदेशक प्रो. गोविंद सिंह ने साहित्य पत्रकारिता के हो रहे ह्रास पर अपने विचार रखे। उनका कहना था कि बाजारवाद के हावी हाने के कारण ही आज साहित्यिक पत्रकारिता इस स्तर पर पहुंची है। उन्होंने यह भी कहा कि संगोष्ठी में कई ऐसे मुद्दे उठे जिन पर आगे शोध या संगोष्ठियां हो सकती हैं। जानेमाने पत्रकार एवं कवि मंगलेश डबराल का कहना था कि पत्रकारिता इतिहास का पहला ड्राफ्ट होती है और साहित्यिक रचना अंतिम ड्राफ्ट होती है। उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में हत्या, बलात्कार, आपदा और झगड़े की खबरें भी मनोरंजन बन गई हैं। हिंदी पत्रकारिता हिंदी साहित्य से ही निकली है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर रघुवीर सहाय तक साहित्यकारों ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया। हिन्दी के जाने-माने कवि लीलाधर जगूड़ी ने कहा कि केवल बाज़ार को कोसने से कुछ नहीं होगा। बाज़ार तो हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति का अंग रहा है. यह भी सच है कि वैश्विक बाजार से हमारे स्थानीय बाज़ार को पंख लगे हैं। इसलिए बाजार का नहीं, अनैतिक बाजार का विरोध होना चाहिए। उन्होंने कहा कि महान साहित्यकारों ने भी पत्रकारिता के जरिये ही साहित्य में कदम रखे. उन्होंने मार्खेज और अर्नेस्ट हेमिंग्वे का उदाहरण देते हुए बताया कि किस तरह से पत्रकारिता में उन्होंने साहित्य का पहला पाठ सीखा. वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार राजकिशोर का कहना था कि साहित्य, पत्रकारिता और मीडिया तीन पीढ़ियां हैं। उन्होंने कहा कि यह भ्रम है कि साहित्य मीडिया को नहीं समझ सकता है। साहित्य में मीडिया पर कई किताबें लिखी गई हैं। जब से खबर देना पेशा बना है, तब से ही खबर देनेवाला अपने हितों को साधने के लिए इसे इस्तेमाल करने लगा है। साहित्य कपड़ा, खिलौना या फिल्म उद्योग की तरह नहीं है। यह समस्या को समझने में मदद करता है, समाज की समझ बनाता है। साहित्य में मनोरंजन कम नहीं है। साहित्य अतुल्य है। पत्रकारिता में यदि साहित्य नहीं होगा तो सिर्फ मनोरंजन ही रह जाएगा।
साहित्यकार डॉ. प्रयाग जोशी ने कहा कि अखबार के बाद रेडियो ही आकर्षित करता है. क्योंकि वह हमारे कामकाज में व्यवधान नहीं डालता. आज भी उसमें बहुत अच्छे और शिक्षाप्रद कार्यक्रम आते हैं। लेकिन टेलीविजन और अन्य मीडिया इसे दबाए हुए हैं। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया का अपना अलग महत्व है। सबसे पहले इसी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 10 लाख के सूट का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि एक जमाना था जब साहित्य से पहला परिचय करवाने का काम पत्रकारिता ही करती थी, अब यह नहीं हो रहा. डॉ चन्द्र त्रिखा ने आतंकवाद के दौर में पंजाब की पत्रकारिता का उल्लेख करते हुए पत्रकारों की शहादत को याद किया। उन्होंने कहा कि इस दौर में बड़े अखबार समूहों ने घुटने टेक दिए थे। लेकिन छोटे अखबार और साहित्यिक पत्रिकाएं झुकी नहीं। उन्होंने कहा कि बाजार की चुनौती को हौवा नहीं बनाना चाहिए। प्रसार संख्या बढ़ाना इसका एक तोड़ हो सकता है। लाइव इंडिया वेबसाईट की सम्पादक गीताश्री ने मीडिया पर दोष मढने वाले साहित्यकारों को आडे हाथों लिया। उन्होंने मीडिया और साहित्य को दो अलग धाराएं बताया। उनका कहना था कि साहित्यकार साहित्यिक शुचितावाद को पकड़े हुए हैं। जबकि ज़माना आगे बढ़ गया है. पुराने मूल्यों के नष्ट होने पर ही नए मूल्य आएंगे।
वरिष्ठ पत्रकार एवं कवि पंकज सिंह ने कहा कि साहित्य लिखने वालों को पत्रकार नहीं माना जाता। साहित्यिक पत्रकारिता और राजनीतिक पत्रकारिता दोनों अलग-अलग चीजें हैं. अखबार में सभी वर्गों को जगह मिलनी चाहिए। अखबार सिर्फ साहित्य से नहीं भरा जा सकता है। पत्रकार एवं साहित्यकार रामकुमार कृषक ने समसामयिक साहित्यिक पत्रिकाओं की सीमाओं और संभावनाओं पर चर्चा की और कहा कि इन पत्रिकाओं को प्रकाशित करना साहस और संकल्प का छोटी पूंजी का बड़ा उद्यम है। जबकि वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय, साहित्य अकादमी के उप सचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी व पत्रकार एवं साहित्यकार श्याम कश्यप का कहना था कि पत्रिकाओं को प्रासंगिक होना चाहिए। जिस पत्रकारिता का अपना व्यक्तित्व होता है, वे ही प्रासंगिक बन सकती हैं। उन्होंने समाज में पढने की रूचि घटते जाने पर खेद प्रकट किया। हल्द्वानी में हुई यह संगोष्ठी मुक्त मंडी के इस दौर में भुला दिए गए साहित्य को नया जीवन देने में इसलिए भी कामयाब रही कि दोनों दिन बड़ी संख्या में कुमाऊँ भर से लोग श्रोता बन बैठे रहे.                                                

Wednesday, February 11, 2015

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

आमंत्रण
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता पर आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में आप सादर आमंत्रित हैं.
प्रो. गोविन्द सिंह


Saturday, January 17, 2015

सफल जनसंपर्क अधिकारी कैसे बनें?

कैरियर काउंसिलिंग/ राजेन्द्र सिंह क्वीरा
आज हर क्षेत्र में विशिष्टीकरण हो रहा है. इसी के चलते रोजगार के क्षेत्र में अनेक नवीन संभावनाएं बढ़ रही हैं, चाहे वह संपर्क स्थापित करने जैसा कार्य ही क्यों न हो! प्रत्येक संस्थान को अपने कार्य को पूर्ण कुशलता के साथ करने के लिए एक ऐसे माध्यम की आवश्यकता हो रही है जो संस्थान की आवश्यकताओं को विभिन्न संपर्कों के माध्यम से पूरा कर सके। इस कार्य को करने वाले को आज जनसम्पर्क अधिकारी यानी पीआरओ का नाम दिया गया है। वास्तव में अगर हम देखें तो यह पद किसी भी संस्थान के लिए कठिन समय में प्राणवायु का काम करता है। अर्थात सरकारी हो या निजी संस्थान, जनसंपर्क अधिकारी के माध्यम से हर विभाग अपनी साख बनाने का काम करता है।
पीआरओ के गुण 
आज हर क्षेत्र में पीआरओ की आवश्यकता महसूस की जा रही है, चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र हो अथवा फिर निजी। जनसंपर्क अधिकारी प्रबंधन एवं कर्मचारी वर्ग के मध्य सेतु की भूमिका अदा करता है। जिससे हित संघर्ष जैसी अनेक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। साथ ही एक पीआरओ एक संस्थान से दूसरे संस्थान व आम जनता में जनसंपर्क स्थापित करने का कार्य करता है। इस प्रकार पीआरओ दो कड़ियों के बीच एक सेतु का कार्य करता है। जनसंपर्क अधिकारी (पब्लिक रिलेशन ऑफिसर) किसी भी संस्था के लिए सूचना सहायक के रूप में भी कार्य करता है। वह प्रेस रिलीज आदि प्रचार सामग्री को विकसित करने का कार्य करता हैं। जनसंपर्क अधिकारी के माध्यम से कोई भी व्यक्ति संस्था संबंधी जानकारी प्राप्त कर सकता है। साथ ही तमाम संचार माध्यमों और संस्थान के बीच की कड़ी भी होता है. जब किसी पत्रकार को किसी संस्थान के बारे में सूचना चाहिए होती है, तब वह सबसे पहले पीआरओ के पास ही जाता है.
इस पद के बढ़ते महत्व के कारण ही युवा वर्ग का ध्यान इस ओर तेजी से आकर्षित हुआ है। जनसंपर्क अधिकारी सरकारी व गैर सरकारी दोनों प्रकार के विभागों से निरंतर संपर्क में रहता है। पहले जनसंपर्क अधिकारी के लिए कुछ विशेष योग्यता नहीं हुआ करती थी, किन्तु अब कंपनियां अपनी छवि को उजागर करने के लिए कल्पनाशील, चतुर, निपुण व तेजतर्रार लोगों का चयन करती हैं, जिन्हें पत्रकारिता का भी ज्ञान हो. इसलिए अक्सर व्यवहार कुशल, हंसमुख व जागरूक लोग ही इस पद पर सफल हो पाते हैं।
आज देश के कई सरकारी व निजी संस्थान इससे संबंधित पाठ्यक्रम संचालित कर रहे हैं। इन पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए योग्यता प्रायः स्नातक होती है। जनसंपर्क अधिकारी बनने के लिए सामान्य ज्ञान तथा भाषा पर पकड़ होना आवश्यक है, ताकि बदलते परिवेश की प्रत्येक जानकारी को नजर में रखा जा सके। इस पद की बढ़ती मांग को देखते हुए कई सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों द्वारा जनसंपर्क अधिकारी संबंधी पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे है, जहां उन्हें एक अच्छे व कुशल जनसंपर्क अधिकारी बनने के गुर सिखाये जाते हैं तथा उनकी भाषा शैली व व्यक्तित्व का विकास किया जाता है। कई संस्थानों में जनसंपर्क को ही एक पृथक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है तो कुछ संस्थान इसे विज्ञापन और विपणन (मार्केटिंग) के साथ पढ़ाते हैं।
जन संपर्क विभाग की संरचना 
इस क्षेत्र में जनसंचार (मास कम्युनिकेशन), पत्रकारिता, कानून, शिक्षण, मनोविज्ञान तथा एमबीए आदि से जुड़े लोग भी आने लगे हैं। अब बड़े-बड़े निजी शिक्षण संस्थान भी यह पाठ्यक्रम करवाने लगे हैं। जनसंपर्क की शिक्षा डिप्लोमा या डिग्री के रूप में दी जाती है। निजी व सरकारी दोनों प्रकार के संस्थान छात्रों को कुछ समय के लिए विभिन्न उपक्रमों व कंपनियों में ट्रेनिंग के तौर पर भी भेजते हैं। कुछ प्रशिक्षण संस्थानों ने अपने प्लेसमेंट सेल भी खोले हैं, ताकि शिक्षण-प्रशिक्षण के पश्चात छात्रों को रोजगार भी दिलाया जा सके। जनसंपर्क अधिकारी के लिए प्रायः लिखित परीक्षा ली जाती है, जिसमें भाषा, सामान्य ज्ञान और विषय से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं। कहीं-कहीं सीधे साक्षात्कार के लिए ही बुलाया जाता है। नौकरी के अलावा यदि छात्र चाहें तो अपनी जनसंपर्क एजेंसी या उच्च शिक्षा प्राप्त करके शैक्षिक क्षेत्र में भी जा सकते हैं।

वर्तमान में उत्तराखंड में अलग से जनसंपर्क का पीजी डिप्लोमा अकेले उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी में करवाया जा रहा है. हाँ, पत्रकारिता एवं जनसंचार की पढाई  कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, हेमवतीनंद बहुगुणा केंद्रीय विष्वविद्यालय, श्रीनगर गढ़वाल और दूं विश्वविद्यालय में होती है. इसके अलावा भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली, माखनलाल चतुर्व्रेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय आदि में भी यह पाठ्यक्रम चलाया जा रहा है।