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पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला
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Friday, February 6, 2015

सोशल मीडिया में पत्रकारिता पर बहस

मित्रो, आजकल दिल्ली विधान सभा के चुनाव से माहौल गर्म है. चुनाव में अक्सर पेड न्यूज का मामला बहस के केंद्र में आ जाता है. पेड न्यूज का सम्बन्ध मीडिया-मालिकों से रहता है, लेकिन चुनावों के वक्त अकसर पत्रकार भी सवालों के घेरे में आ जाते हैं. कोई धन के लालच में आकर तो कोई वैचारिक पूर्वाग्रहों के चलते निष्पक्ष नहीं रह पाता. यहाँ हम फेसबुक पर चल रही बहस के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे संकलित किया है जनसत्ता एक्सप्रेस वेबसाईट ने.
प्रमोद जोशी: पाठक और दर्शक चाहता है कि पत्रकार निर्भीक, स्वंतंत्र, निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीके से काम करे। यह पत्रकार और उनकी संस्था को तय करना है कि उसका संरक्षक कौन है, पाठक-दर्शक, मीडिया मालिक, राजनीति या पूँजी?
राजीव रंजन झा:  पाठक चाहता है कि पत्रकार निर्भीक हो, स्वतंत्र हो, निष्पक्ष हो, वस्तुनिष्ठ हो, और हवा खाये पानी पीये, क्योंकि 20-30 रुपये में छपने वाला अखबार उसे 2-3 रुपये में ही चाहिए!
प्रमोद जोशी: पाठक सस्ता मीडिया चाहता है तो उसे या तो 'सस्ता' या फिर किसी स्वार्थ से प्रेरित पत्रकार मिलेगा।
मजीठिया मंच: यह आम आदमी और समाज के सहयेाग के बिना संभव नहीं है। अगर निष्‍पक्ष और वस्‍तुनिष्‍ठ होने की सारी जिम्‍मेदारी और ठीकेदारी पत्रकारों और उनके मालिकों को दे दी जाएगी तो हम यहां चर्चा भर करते रह जाएंगे। इसलिए जब लगे कि कोई अपने अधिकारों और कर्तव्‍यों के हिसाब से काम नहीं कर रहा है तो समाज और आम आदमी को दखल देना चाहिए। अब यह दखल कैसा और कैसे हो, यह तय करना आम आदमी और समाज को करना चाहिए।
राजेंद्र तिवारी:  राजीव आपने सोलह आने सच बात कही। पत्रकारिता निर्भीक, स्वंतंत्र, निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीके से समाज के लिए तभी काम कर पायेगी जब उसकी फंडिंग समाज करेगा।
मनोज भट्ट:  यह बात ख़ाली पत्रकारिता ही नहीं, हर प्रोफ़ेशन पर लागू होती है.
प्रभात गोपाल झा:  लेकिन राजेंद्र तिवारी सर, सवाल का जवाब तो हमें ही खोजना होगा कि समाज किस तरह फंडिंग करेगा. कॉरपोरेट जमाने में समाज और उसकी नीतियों को दरकिनार किया जा रहा है. जो पत्रकार हैं, वह खुद आज नौकरी और आर्थिक नीतियों को लेकर जूझ रहे हैं. कोई सुरक्षा की गारंटी नहीं.... हमेशा जद्दोजहद की स्थिति. कहने का मतलब जो स्थापित पत्रकार हैं, वही समाज के साथ तालमेल बैठाते हुए सही राह तय कर सकते हैं. नहीं तो यह सिर्फ भाषणबाजी तक ही सीमित रह जायेगी.
प्रमोद जोशी: दुनियाभर में इस बात को पहचाना गया है कि मीडिया ओनरशिप और मीडिया कारोबार के बारे में अलग से भी सोचना चाहिए। हमारे देश में पिछले साल टीआरएआई ने पहल की है। हाल में रीडर सपोर्टेड न्यूज की अवधारणा भी सामने आई है।
मजीठिया मंच: राजेंद्र तिवारी प्रभात खबर के कारपोरेट संपादक हैं , प्रमोद जोशी भी हिन्‍दुस्‍तान में संपादक थे और राजीव रंजन झा भी बड़े मीडिया संस्‍थान में हैं । उन्‍हें अखबार और मीडिया के अर्थ शास्‍त्र के बारे में पूरा पता है। हम बस इतना जाना चाहते हैं कि मालिक रोज नई कोठियां कैसे पीट रहे हैं , बड़ी बड़ी गाडि़यों में कैसे घूम रहे हैं, मार्केटिंग और सर्कुलेशन वाले फाइव स्‍टा होटलों में कैसे दावतें उठा रहे हैं क्‍या यह सब पत्रकारिता को बलि चढ़ाकर नहीं किया जा रहा। सभी अखबार वाले दिल्‍ली में अपनी अखबारी दुकान समेट नोएडा चले गए। वहां भी उन्‍हें सस्‍ती जमीन चाहिए और दिल्‍ली में मोटा किराया। जब देना हो तो पत्रकारिता कर रहे होते हैं और जब लेना हो तो प्रोडक्‍ट बन जाते हैं। इस बात से समाज और आम लोगों को कौन अवगत कराएगा।

मनोज भट्ट:  बिज़नेस है. घाटा खाने के लिये कोई पूँजी नहीं लगायेगा . मीडिया मालिकों से अपेक्षा रखना व्यर्थ है. सही पत्रकारिता करनी है तो ईकानामिस्ट पत्रिका का माडल देखा जा सकता है.
प्रमोद जोशी: पत्रकार की भूमिका में अंतर्विरोध है। वह पाठक के सामने उसके हितों की रक्षा का दावा करता है। उसके मालिक के अपने हित हैं। ये हित कई बार कारोबारी हैं और कई बार दूसरे हितों की रक्षा करने वाले, रसूख बनाने वगैरह से जुड़े हैं। यह उस पूँजी की कीमत है जो व्यापार में लगाई गई है। मोटे तौर पर लगता है कि भारत की पत्रकारिता अमेरिका की पत्रकारिता के मुकाबले कमजोर है। इसकी एक वजह यह है कि वहाँ का पाठक हमारे पाठक के मुकाबले आर्थिक रूप से मजबूत है। वह साख की बेहतर कीमत देने को तैयार है। औसत अमेरिकी अखबार की रिसर्च टीम भारत के सर्वश्रेष्ठ अखबार की टीम के मुकाबले बेहतर होती है। पर इतना ही काफी नहीं है। अमेरिकी अखबार अपनी राजनीतिक व्यवस्था के पोषक और पक्षधर हैं। उन्होंने पिछले कई वर्षों में पाठक की कंसेंट बनाने में व्यवस्था की मदद की है। अमेरिका में ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट जैसे आंदोलन शुरू हुए हैं, जिनके पीछे गहरी विचारधारा नहीं है, पर जनता के एक तबके का रोष है। मैकलुहान के अनुसार मीडिया पहला औद्योगिक उत्पाद है। साथ ही मीडिया के बदलते रूप के अनुसार ही मैसेज बदलता है। यानी हमें मीडिया के रूपांतरण पर भी नजर रखनी चाहिए। अलबत्ता मेरा इतना अनुभव है कि अखबारी मीडिया के प्रबंधकों की कोशिश सम्पादकीय विभाग को ज्यादा से ज्यादा कंट्रोल में रखने की होती है। मनोज भट्ट:  निष्पक्षता, विश्वसनीयता और वस्तुनिष्ठता अभी भी आपको एजेंसी में दिख जायेगी. Bloomberg और Reuters की क्रेडीबिलटी बहुत ज़्यादा है.
http://jansattaexpress.in/print/9735.html