कब-कब और कैसे बदली बीबीसी 13 मई 2015 बीबीसी के 75 सालों के ख़ास कार्यक्रमों की श्रृंखला में नज़र दौड़ा रहे हैं किस तरह बीबीसी की शुरुआत हुई और किस तरह समय की मांग के अनुसार बीबीसी हिंदी के कार्यक्रमों में बदलाव होते गए. आज नज़र दौड़ा रहे हैं 1940 से 1990 तक के सफ़र पर और आपसे मुख़ातिब हैं हमारे पुराने साथी और आपके चहेते कैलाश बुधवार और अचला शर्मा. सुनने के लिए नीचे लिखे लिंक पर क्लिक कीजिए.
एमजेएमसी, दूसरे
सेमेस्टर के छात्रों के लिए चौथे प्रश्न पत्र के रूप में व्यावहारिक मीडिया लेखन रखा गया है. यह
प्रश्नपत्र अब तक पढ़े गए पर्चों पर आधारित होगा. इसके लिए कोई अध्ययन सामग्री हम
नहीं दे रहे हैं. हालांकि इसके लिए हम अपने ब्लॉग में जरूर कुछ सामग्री दे रहे हैं.
जिसका लिंक नींचे दिया जा रहा है. इसमें असाइंमेंट भी नहीं बनाने हैं. इसके लिए
शिक्षार्थियों को चाहिए कि वे नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाएं पढ़ते रहें. और यह
देखें कि किस तरह से रिपोर्ट, लेख, फीचर आदि लिखे जाते हैं. साथ ही वे अपनी रूचि
के विभिन्न विषयों पर लिखना भी शुरू करें. और अखबारों और पत्रिकाओं में अपने लेख
आदि भी प्रकाशनार्थ भेजें. अपने अध्ययन केंद्र के काउंसेलर से मशविरा करें. मुक्त
विश्वविद्यालय स्थित मॉडल स्टडी सेंटर के छात्र प्रो. गोविन्द सिंह (Ph: 09410964787) या श्री राजेन्द्र क्वीरा (Ph: 09837326427) से राय-मशविरा करें.
प्रिंट मीडिया के
लिए लेखन की विधाएं. देखें यह लिंक:
महाराष्ट्र का पुणे शहर जिन ऐतिहासिक स्थलों के लिए जाना जाता है, उनमें से एक है आर्यभूषण छापाखाना.
ये वो जगह है जहां महात्मा गांधी का अख़बार 'हरिजन' छपता था.
लेकिन अब इस विरासत के भी व्यावसायिकता के हत्थे चढ़ जाने की आशंका व्यक्त की जा रही है.
महात्मा गांधी के राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के पड़पोते सुनील गोखले ने आरोप लगाया है कि आर्यभूषण छापाखाने के निदेशक मंडल ने इसे बेचने की योजना बनाई है और यहां मॉल और होटल बनाने की कोशिशें चल रही हैं.
वर्तमान इमारत
'हिंद सेवक समाज' (सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसायटी) की स्थापना के बाद गोखले ने 1906 में इस छापाखाने की स्थापना की थी.
पहले यह छापाखाना 'किबे वाडा' नामक इमारत में चलता था. उस समय इस छापाखाने में 200-250 लोग काम करते थे. लेकिन 1926 में किबे वाडा आग में ख़ाक़ हो गई.
इसके बाद यहां के कामगारों ने एक होकर अपने चंदे से वर्तमान इमारत बनाई. इस इमारत को 'हेरिटेज बिल्डिंग' का दर्जा प्राप्त है.
सुधारवादी क़दम!
ये छापाखाना अपनी आधुनिक मशीनों और सुधारवादी क़दमों के लिए जाना जाता था.
बूढ़ों और विकलांगों के लिए काम करने वाली कई संस्थाओं से जुड़े लोगों को यहां काम दिया जाता था.
साल 1932 में जब गांधी येरवडा जेल में बंद थे, तब उन्होंने 'हरिजन' साप्ताहिक शुरू किया. उसकी छपाई यहीं की जाती थी.
आला दर्जे की छपाई
इसके शुरुआती प्रबंधकों में से एक वामनराव पटवर्धन की जीवनी में लिखा है कि प्रेस की वक़्त की पाबंदी वाले काम और आला दर्जे की छपाई की ख़ुद गांधी ने प्रशंसा की थी.
लेकिन धीरे-धीरे छापाखाना पिछड़ता चला गया. हालात ऐसे हो गए कि 2011 में यहां 100 कर्मचारी थे जबकि अब केवल 15 कर्मचारी रह गए हैं.
गोखले कहते है, "संस्था को जानबूझकर अक्षम बनाया गया है. जिस ज़मीन पर यह छापाखाना खड़ा है, वह मूलतः 'हिंद सेवक समाज' की है.
गोखले के वारिस
गोपालकृष्ण गोखले के वारिस होने के नाते सुनील गोखले यह मुद्दा उठा रहे हैं.
उनका कहना है, "निदेशक मंडल ने जलगांव स्थित एक प्रकाशन संस्था को इस प्रेस के अहाते में 15 हज़ार वर्ग फ़ुट जगह पर निर्माण कार्य करने की अनुमति दी है. साथ ही मूल इमारत में भी तोड़फोड़ की जा रही है. इसके लिए सहकारिता विभाग और पुरातत्त्व विभाग की अनुमति नहीं ली गई है."
सुनील गोखले का संस्था से कोई संबंध नहीं है लेकिन गोपाल कृष्ण गोखले के वारिस होने के नाते वे इस मुद्दे को उठा रहे हैं.
राज्य के सहकारिता मंत्री और मुख्यमंत्री तक से उन्होंने इसकी शिकायत की है.
इधर संस्था के निदेशक अंकुश काकडे का कहना है कि इस इमारत को कोई आंच नहीं आएगी.
उन्होंने कहा, "यह इमारत ग्रेड-2 हेरिटेज इमारत है. यहां किसी तरह का निर्माण कार्य नहीं हो सकता. मशीनरी लाने के लिए कुछ मरम्मत का काम किया गया है लेकिन इस ढांचे को कोई नुक़सान नहीं होगा. हमने जलगांव की संस्था से अनुबंध किया है ताकि प्रेस चलती रहे. इससे संस्था को ही फ़ायदा होगा."
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार सुबह
इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए सूचना
प्रौद्योगिकी क़ानून (आईटी एक्ट) के अनुच्छेद 66A को असंवैधानिक क़रार दिया है.
अनुच्छेद 66A के तहत दूसरे को आपत्तिजनक लगने वाली कोई भी जानकारी कंप्यूटर या मोबाइल
फ़ोन से भेजना दंडनीय अपराध था.सुप्रीम कोर्ट में दायर कुछ
याचिकाओं में कहा गया था कि ये प्रावधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ हैं, जो हमारे संविधान के मुताबिक़ हर नागरिक का मौलिक अधिकार है. कोर्ट ने इन याचिकाओं पर फ़ैसला
सुनाते हुए कहा कि अनुच्छेद 66A नागरिकों की
ज़िंदगी को सीधे तौर पर प्रभावित करता है और उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के
संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है.
सरकार ने इस अनुच्छेद को सही ठहराते
हुए कोर्ट में कहा था कि ऐसा क़ानून ज़रूरी है ताकि लोगों को इंटरनेट पर आपत्तिजनक
बयान देने से रोका जा सके.सरकार का कहना था कि आम जनता को इंटरनेट पर ज़रूरत से ज़्यादा
आज़ादी देने से जनता में आक्रोश फैलने का ख़तरा है.
इस क़ानून के तहत साल 2012 में मुंबई में ग़िरफ़्तार की गई महिला रीनू श्रीनिवासन ने इस
फ़ैसले का स्वागत करते हुए कहा कि उन्होंने इंटरनेट पर अपने विचार व्यक्त कर कोई
जुर्म नहीं किया था. दरअसल उन्होंने साल 2012 में बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद मुंबई में सेवाएं ठप्प होने के बाद
फ़ेसबुक पर अपनी दोस्त शाहीन के उस पोस्ट को लाइक किया था जिसमें लिखा था 'हर दिन हज़ारों लोग मरते हैं लेकिन दुनिया फिर भी चलती है. लेकिन
एक राजनेता की मृत्यु से सभी लोग बौखला जाते हैं. आदर कमाया जाता है और किसी का
आदर करने के लिए लोगों के साथ ज़बर्दस्ती नहीं की जा सकती. मुंबई आज डर के मारे
बंद हुआ है, न कि आदर भाव से.' हालांकि शाहीन ने अपने फ़ेसबुक
पोस्ट में बाल ठाकरे का ज़िक्र नहीं किया था, लेकिन उन्हें और उनकी दोस्त को इसके लिए ग़िरफ़्तार कर लिया गया
था.
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर अपनी
प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा, "मैं बहुत ख़ुश हूं कि आज हमें दो साल बाद न्याय मिला है. लोगों में
एक डर बैठ गया था कि वो सोशल मीडिया पर अपने विचार अगर खुल कर व्यक्त करेंगे तो
उऩ्हें ग़िरफ़्तार किया जा सकता है. लेकिन अब अनुच्छेद 66A के हटाए जाने के बाद लोगों में विश्वास फिर से जगेगा और वो आज़ाद
महसूस कर सकेंगे. लेकिन लोगों को ख़ुद पर संयम बरतना भी सीखना होगा कि इंटरनेट पर
मर्यादा बनाए रखें."
कोर्ट ने अपने फ़ैसले में इस
अनुच्छेद को अस्पष्ट बताया और कहा कि 'एक इंसान के लिए जो आपत्तिजनक हो, वो दूसरे इंसान के लिए शायद
आपत्तिजनक न हो'.
उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ध्यन विद्याशाखा द्वारा पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसमें विशेषज्ञों द्वारा विद्यार्थियों को पत्रकारिता की बारीकियों से अवगत कराया गया। इस कार्यशाला में पत्रकारिता विभाग के निदेशक प्रो. गोविन्दसिंह] आॅल रेडियो रामपुर के प्रोड्यूसर श्री सुरेन्द्र राजेश्वरी] अमर उजाला के संपादक श्री सुनील शाह] दैनिक जागरण के संपादक श्री चंद्रशेखर बेंजवाण व कुमाऊं विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के निदेशक डा. गिरीश रंजन तिवारी ने अपने.अपने व्याख्यान दिये।
हम यहाँ कुछ महत्वपूर्ण लिंक दे रहे हैं. ये कन्सोर्शियम फॉर एज्यूकेशनल कम्युनिकेशन की साईट पर पत्रकारिता और जनसंचार से सम्बंधित वीडियो लेक्चर्स के लिंक हैं. बहुत छोटे-छोटे क्लिप्स के जरिये जन संचार की बड़ी-बड़ी गुत्थियों को सुलझाया गया है. यदि आप इन्हें ध्यान से देखने-सुनने का कष्ट करेंगे तो मुझे यकीन है कि आप पत्रकारिता की बहुत-सी बातें जान जायेंगे. आशा है कि ये आपको पसंद आयेंगे. कोई समस्या हो तो हमें जरूर मेल कीजिये. (सीईसी के सौजन्य से)
आपका,
प्रो. गोविन्द सिंह
govindsingh@uou.ac.in
साहित्य
अकादमी व उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय संगोष्ठी में पहुंचे देश भर
के साहित्यकार व पत्रकार
देश के वरिष्ठ साहित्यकारों व पत्रकारों
ने पत्रकारिता से साहित्य को हाशिये पर धकेल दिए जाने को अफसोसनाक बताया। लेकिन
उन्होने सोशल मीडिया को आशा की नई किरण बताया, साथ
ही शंका भी जाहिर की कि इसमें भी साहित्य के बहस का स्तर गिर रहा है। सभी ने
साहित्य का स्तर ऊंचा उठाने के लिए एकजुटता की बात की। हल्द्वानी में साहित्य अकादेमी
और उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता पर आयोजित
दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में देशभर से आये विद्वतजनों ने अपनी-अपनी राय जाहिर
की। साहित्यकारों का कहना था कि विश्व स्तर पर मीडिया पर विज्ञापनों का दबाव बढ़ने
के कारण साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर चली गयी है, जो कि देश और समाज के लिए बेहद निराशाजनक है। संगोष्ठी में माखनलाल
चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र का कहना था
कि सारी दुनिया में साहित्य को जनता तक सरल रूप में पहुंचाने का काम पत्रकारिता ही
करती रही है। साहित्य के दर्जनों नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार पत्रकारिता से
जुड़े रहे हैं। हिन्दी में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली गद्य का विकास हिंदी
पत्रकारिता के माध्यम से ही किया। साथ ही दुनियाभर के मुद्दों से पाठकों को परिचित
करवाया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तिलक और गांधी जी ने प्रतिरोध की पत्रकारिता की,
जिसकी वजह से उन्हें जेल जाना पड़ा। उस समय पत्रकारिता ने ही सबसे पहले स्वदेशी और
बंगाल विभाजन जैसे ज्वलंत मुद्दों को उठाया था। साहित्यिक पत्रकारिता ही उस समय
मुख्य धारा की पत्रकारिता थी। लेकिन आज हालात एकदम बदल गये हैं। उन्होंने कहा कि
साहित्यिक पत्रकारिता ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता इतनी मजबूत बना दी थी कि लोग
अखबार में लिखी गई खबर को झूठ मानने को तैयार ही नहीं होते थे। बाद के दौर में
विज्ञापनों के दबाव के चलते साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर जाने लगी. दुर्भाग्य से
किसी ने इसका विरोध नहीं किया। यही वजह है कि एक-एक कर हिंदी की नामी साहित्यिक
पत्रिकाएं बंद हो गईं।
उत्तराखंड
मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति सुभाष धुलिया का कहना था कि भूमंडलीकरण और
उपभोक्तावाद के आने के बाद से मीडिया में अपराध, सेक्स और दुर्घटनाओं की खबरों को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा है।
इसका कारण यह है कि इसे साधारण पाठक भी सरलता से समझ लेता है, जबकि साहित्यिक पत्रकारिता को समझने
में उसे कुछ मुश्किल आती है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि संपादकीय और साहित्यिक
पृष्ठ पढ़नेवाले 10-12 प्रतिशत पाठक ही समाज का नेतृत्व करते
हैं। इसलिए संचार माध्यमों में साहित्यिक और वैचारिक सामग्री को रोका नहीं जा सकता
है. मुक्त अर्थव्यवस्था आने के बाद से मीडिया में संपादक की जगह ब्रांड मैनेजर
लेने लगे। ये मैनेजर अखबार को ऐसा उत्पाद बनाने लगे जिसे विशाल जनसमूह खरीदें। इस
वजह से साहित्यिक और सांस्कृतिक विमर्श हाशिए पर चले गए। पत्रकारिता सेवा से
व्यापार में बदल गई। इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना बन गया। इसी वजह से समाचार उत्पाद
बन कर रह गया। पत्रकारिता का उद्देश्य विवेकशील नागरिक बनाना न होकर ज्यादा क्रय
शक्ति वाला उपभोक्ता बनाना हो गया। उन्होंने कहा कि न्यू मीडिया अब असंतोष और
असहमति को अभिव्यक्ति देने का काम कर रहा है, लेकिन
इंटरनेट जैसे माध्यम की पहुंच अभी जनसंचार के माध्यमों की तरह नहीं है।
उत्तराखंड
मुक्त विवि में पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्या शाखा के निदेशक
प्रो. गोविंद सिंह ने साहित्य पत्रकारिता के हो रहे ह्रास पर अपने विचार रखे। उनका
कहना था कि बाजारवाद के हावी हाने के कारण ही आज साहित्यिक पत्रकारिता इस स्तर पर
पहुंची है। उन्होंने यह भी कहा कि संगोष्ठी में कई ऐसे मुद्दे उठे जिन पर आगे शोध
या संगोष्ठियां हो सकती हैं। जानेमाने पत्रकार एवं कवि मंगलेश डबराल का कहना था कि
पत्रकारिता इतिहास का पहला ड्राफ्ट होती है और साहित्यिक रचना अंतिम ड्राफ्ट होती
है। उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में हत्या, बलात्कार, आपदा और झगड़े की खबरें भी मनोरंजन बन गई हैं। हिंदी
पत्रकारिता हिंदी साहित्य से ही निकली है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर रघुवीर सहाय
तक साहित्यकारों ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया। हिन्दी के जाने-माने कवि लीलाधर
जगूड़ी ने कहा कि केवल बाज़ार को कोसने से कुछ नहीं होगा। बाज़ार तो हजारों वर्षों से
हमारी संस्कृति का अंग रहा है. यह भी सच है कि वैश्विक बाजार से हमारे स्थानीय
बाज़ार को पंख लगे हैं। इसलिए बाजार का नहीं, अनैतिक
बाजार का विरोध होना चाहिए। उन्होंने कहा कि महान साहित्यकारों ने भी पत्रकारिता के
जरिये ही साहित्य में कदम रखे. उन्होंने मार्खेज और अर्नेस्ट हेमिंग्वे का उदाहरण
देते हुए बताया कि किस तरह से पत्रकारिता में उन्होंने साहित्य का पहला पाठ सीखा. वरिष्ठ
पत्रकार एवं साहित्यकार राजकिशोर का कहना था कि साहित्य, पत्रकारिता और मीडिया तीन
पीढ़ियां हैं। उन्होंने कहा कि यह भ्रम है कि साहित्य मीडिया को नहीं समझ सकता है।
साहित्य में मीडिया पर कई किताबें लिखी गई हैं। जब से खबर देना पेशा बना है, तब से
ही खबर देनेवाला अपने हितों को साधने के लिए इसे इस्तेमाल करने लगा है। साहित्य
कपड़ा, खिलौना या फिल्म उद्योग की तरह नहीं
है। यह समस्या को समझने में मदद करता है, समाज की समझ बनाता है। साहित्य में मनोरंजन कम नहीं है।
साहित्य अतुल्य है। पत्रकारिता में यदि साहित्य नहीं होगा तो सिर्फ मनोरंजन ही रह
जाएगा।
साहित्यकार
डॉ. प्रयाग जोशी ने कहा कि अखबार के बाद रेडियो ही आकर्षित करता है. क्योंकि वह
हमारे कामकाज में व्यवधान नहीं डालता. आज भी उसमें बहुत अच्छे और शिक्षाप्रद कार्यक्रम
आते हैं। लेकिन टेलीविजन और अन्य मीडिया इसे दबाए हुए हैं। उन्होंने कहा कि सोशल
मीडिया का अपना अलग महत्व है। सबसे पहले इसी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 10 लाख के सूट का मुद्दा उठाया। उन्होंने
कहा कि एक जमाना था जब साहित्य से पहला परिचय करवाने का काम पत्रकारिता ही करती
थी, अब यह नहीं हो रहा. डॉ चन्द्र त्रिखा ने आतंकवाद के दौर में पंजाब की
पत्रकारिता का उल्लेख करते हुए पत्रकारों की शहादत को याद किया। उन्होंने कहा कि
इस दौर में बड़े अखबार समूहों ने घुटने टेक दिए थे। लेकिन छोटे अखबार और साहित्यिक
पत्रिकाएं झुकी नहीं। उन्होंने कहा कि बाजार की चुनौती को हौवा नहीं बनाना चाहिए।
प्रसार संख्या बढ़ाना इसका एक तोड़ हो सकता है। लाइव इंडिया वेबसाईट की सम्पादक
गीताश्री ने मीडिया पर दोष मढने वाले साहित्यकारों को आडे हाथों लिया। उन्होंने
मीडिया और साहित्य को दो अलग धाराएं बताया। उनका कहना था कि साहित्यकार साहित्यिक
शुचितावाद को पकड़े हुए हैं। जबकि ज़माना आगे बढ़ गया है. पुराने मूल्यों के नष्ट
होने पर ही नए मूल्य आएंगे।
वरिष्ठ
पत्रकार एवं कवि पंकज सिंह ने कहा कि साहित्य लिखने वालों को पत्रकार नहीं माना
जाता। साहित्यिक पत्रकारिता और राजनीतिक पत्रकारिता दोनों अलग-अलग चीजें हैं. अखबार
में सभी वर्गों को जगह मिलनी चाहिए। अखबार सिर्फ साहित्य से नहीं भरा जा सकता है।
पत्रकार एवं साहित्यकार रामकुमार कृषक ने समसामयिक साहित्यिक पत्रिकाओं की सीमाओं
और संभावनाओं पर चर्चा की और कहा कि इन पत्रिकाओं को प्रकाशित करना साहस और संकल्प
का छोटी पूंजी का बड़ा उद्यम है। जबकि वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय, साहित्य अकादमी के उप सचिव ब्रजेन्द्र
त्रिपाठी व पत्रकार एवं साहित्यकार श्याम कश्यप का कहना था कि पत्रिकाओं को
प्रासंगिक होना चाहिए। जिस पत्रकारिता का अपना व्यक्तित्व होता है, वे ही
प्रासंगिक बन सकती हैं। उन्होंने समाज में पढने की रूचि घटते जाने पर खेद प्रकट
किया। हल्द्वानी में हुई यह संगोष्ठी मुक्त मंडी के इस दौर में भुला दिए गए
साहित्य को नया जीवन देने में इसलिए भी कामयाब रही कि दोनों दिन बड़ी संख्या में
कुमाऊँ भर से लोग श्रोता बन बैठे रहे.