School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला

Tuesday, April 19, 2016

पत्रकारिता की दिशा और दशा

सम्पादक समागम में उठे सवाल:
ग्वालियर। आईटीएम यूनिवर्सिटी ग्वालियर में आयोजित एडिटर्स कॉन्क्लेव (संपादक समागम) में शनिवार को पत्रकारिता की दशा और दिशा पर देशभर से आए दिग्गज संपादकों और पत्रकारों के बीच विचारोत्तेजक बहस हुई। इस दौरान संपादकों की यह चिंता उभरकर आई कि आज मीडिया बाजार की जकड़ में आ गया है, जिससे वह मिशन से व्यापार बन गया है। ऐसी स्थिति में मीडिया के सामने साख का, उसके अस्तित्व को बचाए रखने का बड़ा संकट खड़ा हो गया है। वक्ताओं ने कहा कि अखबार में, न्यूज चैनलों में सब कुछ बाजार के हिसाब से तय होना पत्रकारिता के भविष्य के लिए चिंता का विषय है।
इस एडिटर्स कॉन्क्लेव का आयोजन दो सत्रों में हुआ। पहले सत्र में संसदीय लोकतंत्र और मीडिया की भूमिका विषय पर विचार विमर्श हुआ। पहले सत्र की अध्यक्षता प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने की। दूसरे सत्र में मीडिया: चुनौतियां और संभावनाएं विषय पर विचार विमर्श हुआ, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने की। पहले सत्र में कार्यक्रम का संचालन और आभार प्रदर्शन डेटलाइन इंडिया के प्रधान संपादक डॉ.राकेश पाठक ने और दूसरे सत्र का संचालन श्वेता सिंह ने किया। कार्यक्रम के दोनों सत्र में यूनिवर्सिटी के छात्र-छात्राओं ने मंचासीन संपादकों, पत्रकारों से सवाल पूछकर पत्रकारिता के संबंध में अपनी जिज्ञासाओं को शांत किया। प्रतिष्ठित न्यूज़ पोर्टल 'डेटलाइन इंडिया' इस कॉनक्लेव के डिजिटल मीडिया पार्टनर और '91.9 रेडियो लेमन' रेडियो पार्टनर रहे।

टीआरपी का मसला बंद होना चाहिए: नकवी

पहले सत्र में संसदीय लोकतंत्र और मीडिया की भूमिका विषय पर बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी ने कहा कि आज पत्रकारिता जनभावनाओं के साथ चलने की कोशिश कर रही है। उन्होंने पाकिस्तान की जेल में बंद भारतीय कैदी सरबजीत को बचाने और अन्ना हजारे के आंदोलन का उदाहरण देते हुए कहा कि जनता उसे देखना चाहती थी इसलिए हम उसका कवरेज कम नहीं कर सकते थे। उन्होंने कहा कि हमें टीआरपी के साथ चलना पड़ता है। उन्होंने कहा कि एक समय यह लगा कि यह टीआरपी का मसला बंद होना चाहिए। इसके लिए चैनलों के संपादकों और मालिकों ने प्रस्ताव पास कि टीआरपी बंद हो, या फिर महीने में एक बार हो, लेकिन विज्ञापन दाताओं ने इस प्रस्ताव को नहीं माना। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता का एजेंडा है तो पत्रकार न्याय के पक्ष में और शोषण के खिलाफ खड़ा होगा। उन्होंने कहा कि पत्रकार का काम प्रकाश डालना है, गरमाना नहीं।

मीडिया को अपनी भूमिका पर विचार करना होगा: श्रीधर

माधवराव सप्रे संग्रहालय भोपाल के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर ने कहा कि लोकतंत्र और मीडिया दोनों को बाजार का हिस्सा नहीं होना चाहिए। उन्होंने दो लघुकथाएं सुनाई और उनके जरिए यह सवाल उठाया कि क्या कलम चलाने वालों के पास समाज के लिए संवेदना बाकी है। उन्होंने कहा कि मीडिया को अपनी भूमिका पर विचार करना होगा। उन्होंने कहा कि मीडिया हो या राजनीति दोनों में आत्मावलोकन का जो मंच होना चाहिए उसका नितांत अभाव है। आज बाजार हमारा स्वामी बन गया है, और उसके हिसाब से सब तय हो रहा है।

मीडिया को बाजार ने जकड़ लिया है: बादल

राज्यसभा टीवी के संपादक राजेश बादल ने कहा कि मीडिया को आज बाजार ने जकड़ लिया है। बाजार के दबाव का ही नतीजा है कि 2016 में चैनल इंडस्ट्री का 10 लाख करोड़ का कारोबार है। उन्होंने कहा कि हम पैसे से मुंह नहीं मोड़ सकते। उन्होंने कहा कि 80 से 90 तक कार्यकाल पत्रकारिता का स्वर्ण युग था। उन्होंने राजेन्द्र माथुर और सुरेन्द्र प्रताप सिंह को याद करते हुए कहा कि उस समय ऐसे लोगों की वजह से पत्रकारिता ने ऊंचाई छूईं। उन्होंने यह भी कहा कि आज राजेन्द्र माथुर और सुरेन्द्र प्रताप सिंह जैसे लोग होते तो आज की व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने कहा कि पिछले 15 साल में जिस तेजी से क्रांतिकारी बदलाव हुए उसके लिए हम तैयार नहीं थे।

संपादक अब न्यूजरूम का मैनेजर है: त्यागी

बीबीसी हिन्दी के संपादक निधीश त्यागी ने संपादक की सत्ता पर बात करते हुए कहा कि आज संपादक न्यूज रूम का मैनेजर हो गया है, उससे पत्रकारिता की उम्मीद कितनी की जाए। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता और मीडिया इंडस्ट्री को एक करके देखा जाना ठीक नहीं है, दोनों अलग-अलग हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया के लिए आज सबसे ज्यादा आत्मावलोकन का समय है।

मीडिया का महत्व बढ़ा, लेकिन साख घटी: अग्निहोत्री

वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक विनोद अग्निहोत्री ने मीडिया के अंदर के लोकतंत्र पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि अखबार के अंदर कितना लोकतंत्र है, पत्रकार को कितनी आजादी है, संपादक से बात करने की कितनी स्वतंत्रता है, इस पर भी विचार करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि आज सब मार्केट के हिसाब से तय होता है, उसमें पूंजी लगती है। उन्होंने कि हम पत्रकार से ईमानदारी के अपेक्षा करते हैं, लेकिन न उसकी नौकरी की सुरक्षा है, न उसकी सामाजिक सुरक्षा है, न संपादकीय स्वायत्तता है। उन्होंने कहा कि मीडिया का महत्व बढ़ा है, लेकिन उसकी साख लगातार घट रही है।

मीडिया में एक्टिविजम जरूरी: मोहन

संपादक अरविंद मोहन ने कहा कि आज मीडिया का महत्व बढ़ा है। लेकिन, जो बदलाव हो रहा है उसे समझना ज्यादा मुश्किल होता जा रहा है। उन्होंने कि पूंजी और टेक्नोलॉजी के बिना मीडिया को नहीं देख सकते। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र चलाना है तो मीडिया की आजादी और लोकतंत्र की आजादी जरूरी है। उन्होंने कहा कि मीडिया में भी एक्टिविजम जरूरी है। हमें अपने अंदर के एक्टिविस्ट को जिंदा रखना होगा, इसके बगैर काम नहीं चलेगा।

लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं: अग्रवाल

पहले सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं है, यह संस्थाओं और मर्यादाओं से जुड़ी चीज है। उन्होंने कहा कि हम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो हैं, लेकिन क्या हम लोकतांत्रिक समाज भी हैं, यह सोचने की बात है। उन्होंने कहा कि मीडिया का काम लोकतंत्र में हिस्टीरिया का प्रभाव कम करना होता है, लेकिन अब मीडिया भावनाओं को भड़काने और उत्तेजना पैदा करने का काम कर रहा है।

मतदाता अब देश के प्रति चिंतित: रमाशंकर सिंह

कार्यक्रम के प्रारंभ में कार्यक्रम के प्रारंभ में आयोजन की भावभूमि प्रस्तुत करते हुए आईटीएम यूनिवर्सिटी ग्वालियर के चांसलर रमाशंकर सिंह ने कहा कि भारत के नागरिक का दो बार संवाद होता है। एक बार चुनाव के समय संवाद करता अपने मतदान के रूप में। पिछले पांच वर्षों में मतदाता की सहभागिता का प्रतिशत बहुत बढ़ा है। पहल यह 45 से 55 प्रतिशत तक ही रहता था, लेकिन अब यह 60 से 75 प्रतिशत तक होने लगा है। जो मतदाता अब मतदान करने निकल रहा है वो देश के प्रति चिंतित है। दूसरा संवाद प्रतिदिन अखबारों और टीवी चैनलों के माध्यम से होता है, जो नागरिक सजक करते हैं, जिससे वाह अपना मन बनाता है।

एडिटर्स कॉन्क्लेव के दूसरे सत्र में 'मीडिया: चुनौतियां एवं संभावनाएं' विषय पर बोलते हुए संपादकों ने कहा कि मीडिया अब उद्योग बन गया है। पत्रकारिता में अब कॉर्पोरेट, विज्ञापन बाजार की चुनौतियां हैं।

खबरों की मैन्यूफैक्चरिंग हो रही है: उर्मिलेश

दूसरे सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने कहा कि वर्तमान में खबरों की मैन्यूफैक्चरिंग हो रही है। एक संस्था शोध के मुताबिक अखबारों में गांव की खबरों का प्रतिशत 2.4 ही है। शेष खबरें शहरी क्षेत्रों की ही होती हैं। ग्लोबलाईजेशन के दौर में खबरों का लोकलाईजेशन हो रहा है। मीडिया व्यापार बन गया है। एक बड़े चैनल और समाचार पत्र के मालिक ने अमेरिका के इंटरव्यू में कहा कि 'हम न्यूज के धंधे में नहीं हैं हम विज्ञापन के धंधे में हैं।'

एडिटर के बगल में बैठा है ब्रांड मैनेजर: पाठक

द्वितीय सत्र में सहारा समाचार पत्र के संपादक हरीश पाठक ने संपादक की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि अतीत में संपादक की भूमिका एक आदमकद और अक्षुण्ण हुआ करती थी, अखबार के मालिकों की भूमिका संपादकों के कार्य को प्रभावित नहीं करती थी। हरीश पाठक ने पत्रकारिता के अनुभव और महात्मा गांधी से जुड़े हुए संस्मरण सुनाए और कहा कि वर्तमान में अखबार के मालिकों ने दफ्तरों में एक संपादक के बगल में ब्रांड मैनेजर बैठा दिया है, जो यह तय करता है कि कौन सी खबर किस पेज पर और कहां जाना चाहिए।

पहले मीडिया को खुद का नजरिया देखना होगा: कर्णिक

न्यूज पोर्टल वेबदुनिया के संपादक जयदीप कार्णिक ने कहा कि मीडिया ही एक ऐसा प्रोफेशन है जिसकी संगोष्ठियों में पत्रकार और संवाददाता अपने कार्यों और प्रणालियों पर मंथन करते हैं। पत्रकारों और मीडिया को पहले खुद का नजरिया साफ करना होगा। कार्णिक ने कहा कि डिफेंस और जजों की भी संगोष्ठियां होती हैं लेकिन उनमें कहीं ऐसा नहीं होता। उन्होंने कहा कि वर्तमान में अखबारों में कॉर्पोरेट का पलीता लग गया है। पहले अखबारों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देखी जाती थी लेकिन अब कॉर्पोरेट जगत यह समझ गया की अखबारों का उपयाेग किस तरह किया जा सकता है।

कॉर्पोरेट प्रोपेगेंडा का मीडिया पर हमला हुआ है: आरफा

राज्यसभा टीवी की एंकर आरफा खानम ने मीडिया की सामने चुनौतियों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि वर्तमान में मीडिया पर कॉर्पोरेट प्रोपेगेंडा का हमला हुआ है। समय के साथ मीडिया के न्यूज रूम को भी बदलना होगा। पब्लिक इंटरेस्ट के साथ मीडिया को चलना होगा। उन्होंन पश्चिमी देशों में मीडिया की भूमिका पर प्रकाश डाला।

खबरों में देश का बोलना जरूरी है: प्रधान

संपादक डॉ आनंद प्रधान ने कहा कि आज अखबारों और चैनलाें में देश का बोलना जरूरी है। अब खबरों में देश नहीं बोल रहा होता है, केवल एक समुदाय बोल रहा होता है। खबरों में देश का सभी वर्ग और समुदाय का शामिल होना जरूरी है। डॉ प्रधान ने कहा कि वर्तमान में हमारे सामने कई सूचना स्त्रोत मौजद हैं जो मीडिया को भी प्रभावित करते हैं। कार्यक्रम में कवियत्री सुमन केसरी, कवि पवन करण, महिला बाल विकास विभाग में संचालक सुरेश तोमर, वरिष्ठ पत्रकार लोकेन्द्र पाराशर, भाजपा नेता राज चड्ढाठ, जनसपर्क विभाग के संयुक्त संचालक शाक्यवार, सुभाष अरोरा, शहर के पत्रकारगण, बुद्धिजीवी आदि उपस्थित रहे।    (साभार- डेटलाइन इंडिया)

Friday, April 15, 2016

खबरों का खेल बनाम एजेंडा सेटिंग

संचार के सिद्धांत/ विनीत उत्पल 


मालूम हो कि एजेंडा सेटिंग तीन तरीके से होता है, मीडिया एजेंडा, जो मीडिया बहस करता है। दूसरा पब्लिक एजेंडा जिसे व्यक्तिगत तौर पर लोग बातचीत करते हैं और तीसरा पॉलिसी एजेंडा जिसे लेकर पॉलिसी बनाने वाले विचार करते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राजनीति काफी हद तक मीडिया को प्रभावित करती है। ऐसे में मीडिया कौन-सी खबरों को तवज्जो देता है, किस खबर का न्यूज वेल्यू किस तरह आंकता है और ऑडियंस की रुचि कैसी खबरों में है, आदि बातें मायने रखती हैं और फिर खबरों के प्रसारण के बाद उन्हीं बातों पर आम लोग अपनी राय कायम करते हैं।(मैक्सवेल)

खबरों के शतरंजी खेल में कौन राजाहै और कौन प्यादा”, दर्शकों और पाठकों के लिए इसे समझना काफी मुश्किल है। हालांकि वे अपनी राय खबरिया चैनलों पर दिखाई जा रही खबरों और अखबारों में छपे मोटे-मोटे अक्षरों के हेडलाइंस को पढ़कर ही बनाती है और लगातार उन मुद्दों पर विचार-विमर्श भी करती है। यही वह विंदु होता है जहां से मीडिया की एजेंडा सेटिंग का प्रभाव पड़ना शुरू होता है। मीडिया की एजेंडा सेटिंग थ्योरी कहती है कि मीडिया कुछ घटनाओं या मुद्दों को कमोबेश कवरेज देकर राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक बहसों या चर्चाओं का एजेंडा तय करता है। आज खबरिया चैनलों पर प्राइम टाइम की खबरें देंखें तो यह एजेंडा सेटिंग पूरी तरह साफ-साफ समझ में आती है। इस प्राइम टाइम पर सिर्फ खबरें ही नहीं दिखाई जाती बल्कि जोरदार चर्चा के साथ बहस भी की जाती है। चाहे ईपीएफ पर कर लगाने की बात हो या फिर जेएनयू के छात्रों पर मुकदमा दर्ज करने का मामला।
अन्ना आंदोलन के दौरान लोकपाल मामले में संसद में बहस के दौरान शरद यादव ने युवा सांसदों से सवाल किया था कि आप लोग बुद्धू बक्से में बहस के लिए क्यों जाते हैं। वह पिछले दस सालों से वहां बहस करने के लिए नहीं जाते हैं। तो उन्होंने जाने-अनजाने जिस मुद्दे की ओर पूरा देश का ध्यान आकर्षित किया था, उसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। उन्होंने इसी मीडिया एजेंडा थ्योरी की ओर ही ध्यान आकर्षित कराया था। इस थ्योरी को सरकार के साथ-साथ राजनीतिक दल और कॉरपोरेट समूह बखूबी समझते हैं क्योंकि इसका आकलन इस बात से किया जा सकता है कि जब भर किसी गंभीर मसला सामने आता है तो विभिन्न राजनीतिक पार्टियां, सरकार और कॉरपोरेट समूह के तेजतर्रार प्रवक्ता इस पर चर्चा कर रहे होते हैं और अपने हिसाब से एजेंडे का मुंह मोड़ते रहते हैं।
आज पाठक या दर्शक ही मीडिया का प्रोडक्ट हो चुका है। जाहिर-सी बात है कि हर प्रोडक्ट को एक बाजार की जरूरत होती है और मीडिया का बाजार और खरीदार का रास्ता विज्ञापन से होकर विज्ञापन तक जाता है। यानी मीडिया का बाजार उसका विज्ञापनदाता है। इस मसले को अमेरिका के संदर्भ में नोम चोमस्की अच्छी तरह समझाते हैं। वे लिखते हैं कि वास्तविक मास मीडिया लोगों को डायवर्ट कर रही है। वे प्रोफेशनल स्पोट्र्स, सेक्स स्कैंडल या फिर बड़े लोगों के व्यक्तिगत बातों को जमकर सामने रखती हैं। क्या इससे इतर और कोई गंभीर मामले ही नहीं होते। जितने बड़े मीडिया घराने हैं वे एजेंडे को सेट करने में लगे हुए हैं। अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स और सीबीएस ऐसे मामलों के बादशाह हैं। उनका कहना है कि अधिकतर मीडिया इसी सिस्टम से जुड़े हुए हैं। संस्थानिक ढांचा भी कमोबेश उसी तरह का है। न्यूयार्क टाइम्स एक कॉरपोरेशन है और वह अपने प्रोडक्ट को बेचता है। उसका प्रोडक्ट ऑडियंस है। वे अखबार बेचकर पैसे नहीं बनाते। वे वेबसाइट के जरिए खबरें पेश करके खुश हैं। वास्तव में जब आप उनके अखबार खरीदते हैं तो वे पैसे खर्च कर रहे होते हैं। लेकिन चूंकि ऑडियंस एक प्रोडक्ट है, इसलिए लोगों के लिए उन लोगों से लिखाया जाता है तो समाज के टॉप लेवल नियतिनियंता हैं। आपको अपने उत्पाद को बेचने के लिए बाजार चाहिए और बाजार आपका विज्ञापनदाता है। चाहे टेलीविजन हो या अखबार या और कुछ आप ऑडियंस को बेच रहे होते हैं। (नोम चोमस्की)
यही कारण है कि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर जब टाइममैग्जीन ने कवर स्टोरी छापी और वाशिंगटन पोस्टने लिखा तो भारत सरकार की नींद हराम हो गई। यह मीडिया एजेंडा का ही प्रभाव था कि वैश्विक स्तर पर अपनी साख को बचाने के लिए भारत की कांग्रेस सरकार ने आनन-फानन में कई फैसले लिए। क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि 1990 के दशक में जब मनमोहन सिंह भारत के वित्तमंत्री थे तो उन्होंने आर्थिक उदारीकरण का दौर लाया था और भारत अमेरिका सहित दुनिया के आर्थिक संपन्न देशों की नजरों में छा गया। यही वह समय था जब मनमोहन सिंह उस दुनिया के चहेते बन गए लेकिन आज जब पश्चिमी मीडिया ने खिचार्इं की तो फिर उन्हें कड़े कदम उठाने के लिए मजबूर हो गए।
आज के दौर में चाहे सरकार हो या विपक्ष या फिर सिविल सोसाइटी के सदस्य, हर कोई एजेंडा सेट करने में लगा है। देशद्रोह, जेएनयू, अख़लाक़, कन्हैया, रोहित बेमुला, लोकपाल, भ्रष्टाचार, आंदोलन, चुनाव, विदेशी मीडिया, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टूजी एस्पेक्ट्रम मामला, कोयला आवंटन मामले आदि ऐसे मामले हैं जिनके जरिए विभिन्न रूपों में एजेंडे तय किए गए। क्योंकि हर मामले में चाहे न्यूज चैनल हो या फिर अखबार, हर जगहों पर जमकर बहस हुई और मीडिया की नई भूमिका लोगों ने देखा कि किस तरह आरोपी और आरोप लगाने वाले एक ही मंच पर अपनी-अपनी सफाई दे रहे हैं।
यहीं से मामला गंभीर होता जाता है कि क्या मीडिया की भूमिका एजेंडा सेट करने के लिए होती है। अभी अधिक समय नहीं बीता जब पेड न्यूजको लेकर संसद तक में हंगामा मचा था। मीडिया के पर्दे के पीछे पेड न्यूज ने किस तरह का खेल खेल रही थी, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। लेकिन मीडिया एजेंडा सेटिंग की ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो। यह मामला पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के समय में सामने आया और इस थ्योरी को लेकर पहली बार मैक्सवेल मैकॉम्ब और डोनाल्ड शॉ ने लिखा। 1922 में पहली बार वाल्टर लिप्पमेन ने इस मामले में अपनी बात सामने रखी थी। उनके मुताबिक लोग किसी भी मामले में सीधे तौर पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं देते बल्कि वे स्यूडो वातावरण में रहते हैं। ऐसे में मीडिया उनके लिए काफी मायने रखता है क्योंकि यह उनके विचारों को प्रभावित करता है। (वाल्टर लिप्पमेन) मालूम हो कि मैक्सवेल मैकॉम्ब और शॉ के द्वारा एजेंडा सेटिंग थ्योरी सामने रखने के बाद इस मामले पर करीब सवा चार सौ अध्ययन हो जुके हैं। वैश्विक तौर पर भौगोलिक और एतिहासिक स्तर पर यह एजेंडा कई स्वरूपों में सामने आया बावजूद इसके दुनिया में तमाम तरह के मसले हैं और तमाम तरह की खबरें भी हैं।
अभी तक एजेंडा सेटिंग के गिरफ्त में विदेशी चैनलों और अखबारों के शामिल होने की खबरें सामने आती थीं लेकिन अब भारतीय मीडिया पूरी तरह इसकी चपेट में है। अखबारों की हेडलाइंस के आकार, खबरों का आकार और प्लेसमेंट मीडिया एजेंडा का कारक होता है तो वहीं टीवी चैनलों में खबरों के पोजिशन और लंबाई उसकी प्राथमिकता और महत्ता को तय करती है। इस मामले में आनंद प्रधान लिखते हैं कि कहने को इन दैनिक चर्चाओं में उस दिन के सबसे महत्वपूर्ण खबर या घटनाक्रम पर चर्चा होती है लेकिन आमतौर पर यह चैनल की पसंद होती है कि वह किस विषय पर प्राइम टाइम चर्चा करना चाहता है। वह कहते हैं कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतंत्र में ये चर्चाएं कई कारणों से महत्वपूर्ण होती हैं। ये चर्चाएं न सिर्फ दर्शकों को घटनाओं व मुद्दों के बारे में जागरूक करती हैं और जनमत तैयार करती हैं बल्कि लोकतंत्र में वाद-संवाद और विचार-विमर्श के लिए मंच मुहैया कराती हैं। वह आगे लिखते हैं कि न्यूज मीडिया इन चर्चाओं और बहसों के जरिये ही कुछ घटनाओं और मुद्दों को आगे बढ़ाते हैं और उन्हें राष्ट्रीय/क्षेत्रीय एजेंडे पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं।(आनंद प्रधान) हालांकि एजेंडे का प्रभाव तत्काल दिखाई नहीं देता, इसका प्रभाव दूरगामी भी होता है। वालग्रेव और वॉन एलिस्ट कहते हैं कि एजेंडा सेटिंग का यह मतलब नहीं होता है कि उसके प्रभाव स्पष्ट दीखने लगें बल्कि यह टॉपिक, मीडिया के प्रकार आैर इसके विस्तार के सही समुच्चय के तौर पर सामने आता है। (वालग्रेव एंड वॉन एलिस्ट, 2006)
वर्तमान में भारतीय न्यूज़ चैनलों की खबरों का विश्लेषण करें तो मैक्सवेल ई मैकॉम्ब और डोनाल्ड शॉ द्वारा जनसंचार के एजेंडा सेटिंग थ्योरी के निष्कर्ष साफ दिखाई देंगे। पिछले कुछ समय से जो खबरें प्रसारित की जा रही हैं उनके जरिए न्यायपालिका से लेकर संसदीय प्रक्रिया तक के एजेंडे तय हुए हैं। सबसे ताजातरीन मामला आरुषि हत्याकांड का है। आज के दौर में ऐसा लगता है हमारा पूरा का पूरा मीडिया एजेंडा सेटिंग के सिद्धांत में उलझकर रह गया है। ट्रायल और ट्रीब्यूनल्स को किस तरह भारतीय मीडिया पेश करते हैं, यह किसी से छुपी हुई नहीं है। इतना ही नहीं, एजेंडा सेटिंग कई तरह के प्रभाव से भी जुड़े होते हैं मसलन फायदेमंद प्रभाव, खबरों को नजरअंदाज करना, खबरों के प्रकार और मीडिया गेटकीपिंग आदि। (डेयरिंग एंड रोजर्स, 1996:15)
पिछले दिनों एक साक्षात्कार में शेखर गुप्ता मीडिया एजेंडा थ्योरी की बारीकियों को बताते हुए कहा था कि मीडिया का मूल सवाल खड़े करना है लेकिन यह एजेंडा तब हो जाता है जब आप सवाल के जरिए किसी एजेंडे को खड़े करते हैं। इन मसलों पर अब विचार नहीं किया जाता। मसलन भ्रष्टाचार के विरोध में खड़ा हुआ आंदोलन मीडिया को और व्यापक बनाते हैं। यदि मीडिया अच्छे कारणों को लेकर चल रही है और इससे समाज को बड़े पैमाने पर फायदा होगा तो इससे किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि जेंडर की समानता को लेकर चलाया गया कंपेन काफी प्रभावशाली रहा था और गुड एजेंडा सेटिंगका उदाहरण है। साक्षरता, सूचना अधिकार आदि को लेकर चलाया गया कंपेन भी इसी का उदाहरण है। (शेखर गुप्ता)
इसी मसले पर सेवंती नैनन का मानना है कि मीडिया में इतनी ताकत होती है कि वह किसी भी मसले को हमारे दिमाग में भर दे। जैसे अन्ना आंदोलन को लेकर जो नॉन स्टॉफ कवरेज टीवी चैनलों के द्वारा किया गया, इससे हर कोई यह सोचने के लिए विवश हो गया कि कौन-सा राष्ट्रीय मसला महत्वपूर्ण है। जहां तक इसके नकारात्मक पहलू की बात है तो हर किसी को चोर कह देना आैर जेल में डालने की बात कहना, गलता है। ऐसे में यह ध्यान देना चाहिए कि सब कुछ टीआरपी ही नहीं होता। (सेवंती नैनन) गौरतलब है कि वरिष्ठ पत्रकार एन. राम ने सकारात्मक पक्ष को एजेंडा बिल्डिंग का नाम दिया है और उनका कहना है लोगों को एजेंडा सेटिंग और प्रोपगैंडा के साथ एजेंडा बिल्डिंग के बीच कनफ्यूज नहीं होनी चाहिए।
मालूम हो कि एजेंडा सेटिंग तीन तरीके से होता है, मीडिया एजेंडा, जो मीडिया बहस करता है। दूसरा पब्लिक एजेंडा जिसे व्यक्तिगत तौर पर लोग बातचीत करते हैं और तीसरा पॉलिसी एजेंडा जिसे लेकर पॉलिसी बनाने वाले विचार करते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राजनीति काफी हद तक मीडिया को प्रभावित करती है। ऐसे में मीडिया कौन-सी खबरों को तवज्जो देता है, किस खबर का न्यूज वेल्यू किस तरह आंकता है और ऑडियंस की रुचि कैसी खबरों में है, आदि बातें मायने रखती हैं और फिर खबरों के प्रसारण के बाद उन्हीं बातों पर आम लोग अपनी राय कायम करते हैं।(मैक्सवेल)
आखिर किस तरह की खबरें दिखाई जा रही हैं और किस तरह के विज्ञापन प्रसारित किए जा रहे हैं, इनकी निगरानी करने वाली संस्थाएं कहां हैं। शुरुआती दौर में एजेंडा सेटिंग के तहत समाचारों का विश्लेषण पब्लिक ओपेनियन पोलिंग डाटा के साथ किया जाता था और राजनीतिक चुनाव के दौरान इसकी मदद से काफी कुछ तय हो जाता है। यही कारण है कि नोम चोमस्की कहते हैं कि इन मामलों में पीआर रिलेशन इंडस्ट्री, पब्लिक इंटलेक्चुअल, बिग थिंकर (जो ओप एड पेज पर छपते हैं) की भूमिका पर ध्यान देना होगा। हालांकि समय के साथ मीडिया के एजेंडे में बदलाव होता रहता है और ऐसा होना लाजिमी भी है क्योंकि एक बात तय होती है कि पत्रकारों की सहभागिता के साथ-साथ आम लोग किसी खास मुद्दे पर बात करते हैं और बहस करते हैं।
नोम चोमस्की कहते हैं कि मीडिया की जो भी कंपनियां है, सभी बड़ी कंपनियां हैं और मुनाफे की मलाई काटते हैं। उनका मानना है कि निजी अर्थव्यवस्था की शीर्षस्थ सत्ता संरचना का हिस्सा होती हैं और ये मीडिया कंपनियां मुख्य तौर पर ऊपर बैठे बड़े लोगों द्वारा नियंत्रित होती हैं। अगर आप उन आकाओं के मुताबिक काम नहीं करेंगे, तो आपको नौकरी से हाथ भी धोना पड़ सकता है। बड़ी मीडिया कंपनियां इसी आका तंत्र का एक हिस्सा है। (नोम चोमस्की) ऐसे में हमें विभिन्न एजेंडों, मीडिया की प्राथमिकता, आम लोगों और कानूनविदों के बीच अंतर को समझना होगा। किस तरह की खबरों को प्रमोट किया जाता है और किस तरह खबरों से खेला जा रहा है, वह भी एजेंडा सेटिंग में मायने रखते हैं। जैसे मीडिया कभी घरेलू मामलों को छोड़कर अंतरराष्ट्रीय मामलों को तवज्जो देने लगता है या फिर घरेलू मसलों में से किसी खास मसले की खबरें लगातार दिखाई जाती हैं। (रोजर्स एंड डेयरिंग, 1987)
बहरहाल, लोकतंत्र के इस लोक में मीडिया पर बाजार का जबर्दस्त प्रभाव है क्योंकि पेड न्यूज तो पैसे कमाने का साधन मात्र था लेकिन मीडिया एजेंडा तो पूरे तंत्र को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। इसके दायरे में सिर्फ आर्थिक संसाधन नहीं आते बल्कि पूरे लोक की सोच और समझ के साथ नियति निर्धारकों का मंतव्य भी जुड़ा हुआ है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि मीडिया एजेंडे थ्योरी को समझना होगा और इसके जरिए पड़ने वाले प्रभाव पर भी बारीक नजर रखनी होगी।
संदर्भ:
नोम चोमस्की, 1997, http://www.chomsky.info/articles/199710–.htm
वाल्टर लिप्पमेन,http://www.agendasetting.com/index.php/agenda-setting-theory
आनंद प्रधान, 2011, http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/994.html
शेखर गुप्ता, 2011, http://www.campaignindia.in/Article/276406,double-standards-why-is-agenda-setting-in-media-significant.aspx
सेवंती नैनन, 2011, http://www.campaignindia.in/Article/276406,double-standards-why-is-agenda-setting-in-media-significant.aspx
डेनिस मैक्वेल, 2010, McQuail’s Mass Communication (6th ed.) Theory, pp. 513-514, Sage Publication
रोजर्स एंड डेयरिंग, 1987, ‘Agenda setting research; Where has it been? Where is it going?, in J. Anderson (ed.) Communication Yearbook 11, pp.555-94, Newbury Park. CA: Sage.’
वालग्रेव एंड वान एलिस्ट, 2006, ‘The contingency effect of the mass media’s agenda setting’, Journal of Communication, 56(1), pp. 88-109′
डेयरिंग एंड रोजर्स, 1996, Agenda Setting Thousand Oaks, CS: Sage


Wednesday, April 13, 2016

पनामा पेपर्स की कहानी कैसे लिखी गयी?


एनडीटीवी इंडिया  ने, पनामा पेपर्स की  पटकथा  कैसे रची गयी, यह  जानने के लिए इंडियन एक्सप्रेस की उस टीम से मुलाक़ात की, जिसने खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय  समूह  के  साथ  मिलकर इस महान कार्य को अंजाम दिया. हम यहाँ समाचार४मीडिया की उस स्टोरी को अपने  छात्रों के पढने के लिए दे रहे हैं, जिसमे रवीश कुमार की पड़ताल पर स्टोरी लिखी है:
दुनियाभर में कई उद्योगपतियों की नींद उड़ा देने वाले पनामा पेपर्स मामले के पीछे की असह कहानी को जानने के लिए एनडीटीवी की एक टीम उस मीडिया दफ्तर जा पहुंची, जिसने भारत में इसका खुलासा किया। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के नेतृत्व वाली यह टीम इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर पहुंची और उन खोजी पत्रकारों से यह जानने की कोशिश की कि यह पूरा मामला है क्या और कैसे इन लोगों ने इसके पीछे काम किया।
बता दें कि दुनियाभर से अलग-अलग मीडिया के लगभग 350 से पत्रकारों ने पनामा पेपर्स मामले की एक साल तक रिसर्च की और इसके बाद इसका खुलासा किया गया। इस टीम में इंडियन एक्सप्रेस के भी तीन पत्रकार शामिल हुए, जिनमें न्यूज एंड इनवेस्टिगेशन की एग्जिक्यूटिव एडिटर ऋतु सरीन, इंडियन एक्सप्रेस के असोसिएट एडिटर जय मजूमदार, नेशनल अफेयर्स एडिटर वैद्नाथन अय्यर शामिल रहे। इन पत्रकारों ने बताया कि उन्होंने International Consortium of Investigative Journalists (ICIJ) के साथ मिलकर काम किया, जिसके लिए उन्हें कई एग्रीमेंट साइन करना पड़ा। इसमें कई अन्य देश के पत्रकार भी शामिल थे। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने इन तीनों खोजी से पत्रकारों से इस मामले के पीछे की पूरी कहानी उन्हीं की जुबानी जानने की कोशिश की जिसे आप यहां भी देख और सुन सकते हैं.
समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
यहां देखें विडियो:
http://www.ndtv.com/video/player/prime-time/the-story-behind-panama-paper-leaks-by-investigative-journalists/411663
http://samachar4media.com/the-story-behind-panama-paper-leaks-by-investigative-journalists

Friday, March 4, 2016

Newspaper Sizes

The broadsheet newspaper size is the largest of the various newspaper formats and is characterized by long vertical pages. The term derives from types of popular prints – usually just of a single sheet – sold on the streets and containing various types of matter, from ballads to political satire. The first broadsheet newspaper was the Dutch Courante, published in 1618. Newspapers currently using the broadsheet format include; The Daily Telegraph in the UK, The National Post in Canada, Die Zeit in Germany, The Times of India, The Japan Times and USA Today. The Berliner format is used by many European newspapers, including; The Guardian in the UK, Expresso in Portugal, The University Observer in Ireland, Le Monde in France and La Repubblica in Italy. As the term “tabloid” has become synonymous with down-market newspapers in some areas, some small-format papers which claim a higher standard of journalism refer to themselves as “compact” newspapers instead, however both are generally the same size. Some newspapers that use this format include; The Sun and The Times in the UK, NRC Handelsblad in the Netherlands, Berlingske Tidende in Denmark and the Daily Telegraph in Australia.
Broadsheet: 29" x 23"
Berliner: 18.5" x 12.5"
Tabloid/Compact: 16.5" X11"

What is the size of a newspaper page?
The tabloid newspapers we print measure 11” x 17”. There are three different publication sizes mainly used in newsprint. Tabloid newspaper (11”x17”), broadsheet newspaper (11.75” x 21.5”), and broadsheet tabloid, which is a broadsheet newspaper turned on its side.

What is a Berliner newspaper?
Berliner, or "midi", is a newspaper format with pages normally measuring about 315 by 470 millimetres (12.4 in × 18.5 in). The Berliner format is slightly taller and marginally wider than the tabloid/compact format; and is both narrower and shorter than the broadsheet format.

What is the size of a tabloid newspaper?
Comparison of some newspaper sizes with metric paper sizes. Approximate nominal dimensions are in millimetres. A tabloid is defined as "roughly 17 by 11 inches (432 by 279 mm)" and commonly "half the size of a broadsheet".