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Saturday, May 28, 2016

क्या भारतीय प्रिंट मीडिया संकट में आ गया है?

‘ऐसे दौर में जहां सूचना वस्तु बन गई है और अखबारों का कारोबारी मॉडल इतना तार-तार हो गया है कि उसकी मरम्मत करना मुश्किल है, ऐसे में आत्मविश्लेषण और नए विचारों पर गौर करने में कुछ ऊर्जा खपत करना खासा मददगार होगा।’ हिंदी दैनिक अखबार ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ में छपे अपने आलेख के जरिए ये कहना है मीडिया कॉलमनिस्ट वनिता कोहली-खांडेकर का। उनका पूरा आलेख आप यहां पढ़ सकते हैं:
अखबार कारोबार के बेहतर भविष्य के लिए आत्ममंथन की है दरकार  
vanita
वनिता कोहली-खांडेकर
क्या भारतीय प्रिंट मीडिया आखिरकार संकट में आ गया है? अखबारों के वैश्विक बाजार में लंबे समय से गिरावट के विपरीत भारतीय बाजार अलहदा प्रदर्शन करने वाला रहा है। खासतौर से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की पाठक संख्या, प्रसार संख्या और राजस्व लगातार बढ़ने पर रहा है। फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 से पहले एक दशक की अवधि में उद्योग का आकार दोगुना हो गया।
लेकिन अगर आप फिक्की-केपीएमजी के आंकड़ों का विश्लेषण करेंगे तो उनसे यही तथ्य उभरता है कि प्रिंट धीरे-धीरे अपनी हिस्सेदारी गंवा रहा है। करीब 1,15,700 करोड़ रुपए के भारतीय मीडिया एवं मनोरंजन (एमऐंडई) उद्योग में वर्ष 2005 में प्रिंट मीडिया की 31 फीसदी हिस्सेदारी अब घटकर 21 फीसदी रह गई है। आप दलील दे सकते हैं कि शुद्घ आंकड़ों के लिहाज से इसमें तेजी आई है और यह इस उद्योग में सबसे ज्यादा मुनाफा बनाने वाला उद्योग भी बना हुआ है।
यह सही है। मगर दृष्टिïकोण के लिए टेलिविजन पर गौर करना महत्त्वपूर्ण है। इसी दशक के दौरान टेलिविजन उद्योग में तीन गुने की वृद्धि दर्ज की गई। एक समय इसकी हिस्सेदारी 40 फीसदी से कुछ अधिक थी, जो फिलहाल 46.8 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई है। वर्ष 2005 में दोनों मीडिया 13.8 फीसदी की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) से आगे बढ़ रहे थे। मगर आज प्रिंट की सीएजीआर 7.6 फीसदी रह गई है, जबकि टेलिविजन की सीएजीआर बढ़कर 14.2 फीसदी हो गई है।
यह दर्शाता है कि प्रिंट मीडिया की वृद्धि ऐसे बाजार में सुस्त पड़ गई है, जहां वृद्धि के लिए असीमित संभावनाएं हैं, जहां 89.5 करोड़ से अधिक साक्षर लोगों के लिए 30.1 करोड़ अखबार निकलते हैं। फिर भारत में लेखनी से जुड़े आकांक्षी मूल्यों के अलावा घर पर अखबार पहुंचाने की सुविधा की बारी आती है। इसमें आखिर वाला पहलू खासा महत्त्वपूर्ण है। अमेरिका और यूरोप में अखबारों की वृद्धि की राह में लोगों की मर्जी बहुत आड़े आती है क्योंकि लोगों को अखबार खरीदने के लिए न्यूजस्टैंड तक जाना पड़ता है। ये पहलू भारतीय बाजार को विशेष स्थिति में ले आते हैं।
निश्चित रूप से टेलिविजन और प्रिंट अलग-अलग माध्यम हैं। मगर मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग में सबसे बड़ी हिस्सेदारी इनकी ही है, लिहाजा व्यापक स्तर पर कुछ तुलना अपरिहार्य हो जाती है। भारतीय प्रिंट उद्योग उन तरीकों में भी टेलिविजन से पीछे बना हुआ है, जो उसकी वृद्धि को अटका रहे हैं। इसमें पाठक संख्या जैसे मायने रखने वाले पहलुओं के मोर्चे पर साथ आने में नाकामी संभवत: सबसे बड़ी मिसाल है। भारतीय पाठक सर्वेक्षण को लेकर पैदा हुई खटास और तकरीबन दो साल से इस प्रक्रिया का निलंबन अब आखिरकार उद्योग के घातक साबित हो रहा है। सूचीबद्ध प्रिंट मीडिया कंपनियों की वृद्धि में आई सुस्ती को लेकर अधिकांश विश्लेषक इसे भी एक बड़ा कारण बता रहे हैं। पाठक संख्या को लेकर अब कुछ सहमति का भाव बना है और अगले वर्ष से सर्वेक्षण फिर शुरू होने की संभावना है। मगर बाजार भी शायद अपनी चाल आगे बढ़ जाएगा। प्रिंट में सबसे ज्यादा विज्ञापन देने वालों में वाहन, शिक्षा और जमीन जायदाद से जुड़ी कंपनियों ने डिजिटल की ओर रुख करने में भी तेजी दिखाई है।
जब रेटिंग एक बड़ा मसला बन गईं तो टेलिविजन उद्योग ने विज्ञापनदाताओं और एजेंसियों के साथ मिलकर एक संस्था का गठन किया और एक नया रेटिंग तंत्र शुरू किया, जो डिजिटल रेटिंग के लिए भी प्रभावी होगा। डिजिटल और ऑफलाइन पाठकों की जुगलबंदी को लेकर एक तंत्र बनाने के बजाय प्रिंट से जुड़ी कंपनियों ने पैमाने को ही ध्वस्त कर दिया। आप दलील दे सकते हैं कि इसमें से कोई भी पहलू इस बात की व्याख्या नहीं करता कि प्रिंट की हिस्सेदारी में क्यों कमी आई। यह प्रत्यक्ष रूप से ऐसा नहीं करता। मगर यह आपको बताएगा कि प्रिंट मीडिया अपनी वृद्धि को बेहतर ढंग से भुनाने में क्यों नाकाम रहा, जहां वह विज्ञापनों की अधिक दर और अपने मूल्य में वृद्धि का दांव चल सकता था। यह एक बेहद संघर्ष वाला उद्योग है, जहां मालिक अपने रुतबे को बनाए रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहेंगे। प्रसार संख्या और पाठक संख्या बढ़ाने की तिकड़में जगजाहिर हैं, जैसे कि उपनगरीय संस्करण को भी शहर संस्करण के साथ मिलाकर बेचा जाता है।
यह रवैया दर्शाता है कि उद्योग संस्थाओं के जिम्मेदार सदस्य बनने या संपादकीय और विज्ञापन सामग्री के विभाजन को संस्थागत बनाने के लिए सामग्री और प्रशिक्षण पर कितना अधिक (या कम) निवेश किया गया है। यह रवैया दशकों तक बनाए मोटे मुनाफे से बना है, जहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी और पाठक, विज्ञापनदाता और सरकारें सभी अखबारों की इज्जत करते थे। ऐसे दौर में जहां सूचना वस्तु बन गई है और अखबारों का कारोबारी मॉडल इतना तार-तार हो गया है कि उसकी मरम्मत करना मुश्किल है, ऐसे में आत्मविश्लेषण और नए विचारों पर गौर करने में कुछ ऊर्जा खपत करना खासा मददगार होगा।
(साभार: बिजनेस स्टैंडर्ड)
http://samachar4media.com/an-article-on-indian-print-media-written-by-columnist-vanita-kohli-khandekar

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