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Thursday, May 5, 2016

उत्तराखंड की पत्रकारिता: भीड़ में कौन असली कौन फर्जी

पत्रकारिता/ वेद विलास उनियाल
उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार के पतन और राष्ट्रपति शासन लगने के दौरान पत्रकारों की भूमिका पर गंभीर सवाल उठे हैं। सोशल मीडिया और आम सभा-गोष्ठियों में इस विषय पर चर्चा हो रही है। इस बात पर हैरानी जाहिर की जा रही है कि कैसे देहरादून में पत्रकारों की भीड़ लग गई है और उनमें भी जो जितना ज्यादा फर्जी है, वह उतना ही अधिक शक्तिशाली माना जाता है। क्या देहरादून जैसे छोटे शहर को सात सौ पत्र-पत्रिकाओं और दो हजार पत्रकारों की जरूरत है ? अखबारों में ‘गुलाबी पत्थर’, ‘गुलाब टाईम्स’, ‘बदलती आवाज’, ‘दूसरा पहलू’, ‘घायल’ जैसे नाम शायद देहरादून में ही सम्भव हैं। बेशक इनमें से कुछ प्रतिशत अखबार सही ढंग से चल रहे होंगे, अनेक पत्रकार अपने दायित्व का निर्वाह जिम्मेदारी और ईमानदारी से कर रहे होंगे, लेकिन इस भीड़ में असली से फर्जी अखबारों और पत्रकारों की संख्या कहीं ज्यादा होगी, इसमें कोई संदेह नहीं।
जिस उत्तराखंड में पत्रकारिता ने जनांदोलनों में ऐतिहासिक भूमिका निभाई, राज्य बनने के बाद मीडिया के चोले में छिपे फर्जी पत्रकारों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई। राजनेताओं ने इनका भरपूर इस्तेमाल किया। यहाँ के नेताओं को संवेदनशील, ईमानदार और जानकार पत्रकारों के साथ वार्ता या विचार-विमर्श करते हुए शायद ही कभी देखा गया होगा। उनके आसपास ऐसे ही पत्रकार देखे जाते हैं, जिनका चरित्र संदिग्ध है। इस प्रवृत्ति ने पत्रकारिता और राजनीति के आपसी सहज रिश्तों को भी संदिग्ध बना दिया।
हरीश रावत ने सत्ता सँभालते ही जिस तरह कुछ पत्रकारों को पद और सुविधा की नौकरियाँ दीं, उन पर भी सवाल उठे। अगर सोशल मीडिया में चर्चा न होती तो अनेक अन्य पत्रकार इसी तरह कैबिन, कुर्सी और कार का सुख पा रहे होते। बेशक यह मुख्यमंत्री का अपना विवेक है। मगर वही रावत जब संकटों से घिरे, सत्ता से बेदखल हुए, तब उन्होंने स्टिंग आॅपरेशन करने वाले पत्रकार की भूमिका पर सवाल उठाने शुरू किए। यह राज्य पन्द्रह साल से अधिक चल चुका है। रावत जी भी दो साल से राजकाज संभाल रहे हैं। अब स्टिंग हो जाने के बाद उनका यह दारुण सा बयान सामने आया है कि वह पत्रकार संदिग्ध है। क्या उन्होंने इन दो सालों में कभी यह जानने की कोशिश की कि राज्य बनने के बाद कितने पत्रकार सरकार को चूना लगा चुके हैं। एक सामान्य व्यक्ति में दस-बारह सालों में इतनी दौलत कहाँ से आई, क्या पत्रकारिता की नौकरी इतना सम्पन्न बना देती है ? बिना लिखाई-पढ़ाई के पत्रकार बने और बिना पत्रकारिता किए कोई व्यक्ति इतना महत्वपूर्ण कैसे हो जाता है ? इन सवालों से उलझने की रावत जी ने कोई कोशिश नहीं की। अब उन्हें एकाएक इलहाम हो गया है कि राज्य में कोई ऐसा पत्रकार भी है, जिसकी गतिविधियाँ संदिग्ध हंै। लेकिन अगर परिस्थितियाँ उनके अनुकूल हो जातीं, स्टिंग करने वाले पत्रकार की बातों के सब सौदे पट जाते, बगावतियों से बात हो जाती। सब कुछ व्यवस्थित हो जाता और सरकार बच जाती तो ये पत्रकार किस स्थिति में होते ? तब भी क्या मुख्यमंत्री उसके चरित्र पर आक्षेप करते ? नहीं, तब तो वह पत्रकार विशिष्ट हो गया होता। उसका रुतबा और बढ़ गया होता। वे मुख्यमंत्री की आँखो के तारे होते। मुख्यमंत्री आवास में उनका सीधा प्रवेश होता। मुख्यमंत्री उन्हें ‘प्रेरणा का स्रोत’ और ‘पत्रकारिता का स्तम्भ’ बता रहे होते।
उत्तराखंड ऐसी ही विडंबनाओं में झूल रहा है। स्टिंग कितना सही या गलत था, किसने कराया, क्यों कराया, इन बातों का विश्लेषण तो होता रहेगा। समाज अपने ढंग से तोलेगा-परखेगा, कयास लगते रहेंगे। लेकिन यह बेहद निराशाजनक है कि उत्तराखंड में ज्यादातर नेता किसी भी स्तर तक जा सकते हैं और इस काम में कई ब्लैकमेलर, छलिया और रेकेटियर छद्म पत्रकारों के रूप में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। अखबार और टीवी के दफ्तरों में ईमानदारी से काम करने वाले पत्रकार तो सुबह और शाम का सूरज तक नहीं देख पाते, उनका हर दिन तीन-चार खबरों को बनाने और उसके लिए भागदौड़ करने में बीतता है। जो छù पत्रकार हंै, उन्हें ऐसे हालातों से नहीं गुजरना होता और इसके बावजूद वे ठसक के साथ रहते हैं। उनका अंदाज अलग होता है। वे हर काम चुटकियों में कराने की सामथ्र्य रखते हैं।
हरीश रावत के स्टिंग आॅपरेशन से राजनीति की ही नहीं, पत्रकारिता की भी गरिमा लांछित हुई। यह सवाल भी उठा कि वे कौन हैं जो स्टिंग के लिये पत्रकारों की तलाश करते घूमते हैं, बगैर यह सोचे कि जिस पत्रकार के माध्यम से स्टिंग किए जा रहे हैं उसकी खुद की समाज में भूमिका क्या रही है, उसकी पत्रकारिता के उसूल क्या रहे हैं। स्टिंग आॅपरेशन को संदेह से इसलिए देखा जाता है कि इससे पहले भी दिल्ली में एक पत्रकार स्टिंग आपरेशन के लिए जाना पहचाना नाम बना। लेकिन उसने हमेशा एक खास दल को ही अपना निशाना बनाया। आज वह पत्रकार एक राजनीतिक पार्टी के जरिए बड़ी-बड़ी सुविधाएँ हासिल किए हुए है। उस राजनीतिक पार्टी ने उसे बडे़ पद पर बिठाया है। जाहिर है कि उसके लिये स्टिंग समाज की भलाई के लिये नहीं था। स्टिंग के माध्यम से वह कुछ लोगों के हित को साध रहा था और बदले में ऊँचा पारितोषिक प्राप्त कर रहा था। देहरादून का यह स्टिंग भी चाहे सच हो या झूठ, मगर कुछ खास लोगों के ही हित साध रहा है।
उत्तराखंड जनान्दोलनों की भूमि रहा है और इन जनान्दोलनों में हमेशा पत्रकारिता के स्वर मुखर रहे और इन आंदोलनों को आँच मिली। ‘जलियाबाग कांड’ की तरह माने जाने वाले 1930 के तिलाड़ी कांड का पूरा विवरण ‘गढ़वाली’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। ‘गढ़वाली’ के सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला ने टिहरी रियासत के राजा को अपने संवाददाता का नाम बताने से इन्कार कर दिया और कारावास भोगना स्वीकार किया। ‘अल्मोड़ा अखबार’ की आक्रामकता से परेशान होकर ब्रिटिश सरकार ने उसे बन्द करवा दिया तो जनता ने बद्रीदत्त पांडे को चन्दा देकर उसे ‘शक्ति’ के रूप में पुनः जीवित करवाया। आज भी अनेक छोटे अखबार तमाम कठिनाइयों के बावजूद बड़ी ईमानदारी और जिम्मेदारी से पत्रकारिता कर रहे हैं। बड़े मीडिया संस्थानों के अखबारों में भी उनके ज्यादातर क्षेत्रीय प्रतिनिधि अपने स्तर पर बड़ी जिम्मेदारी से खबरे देते हैं। केदारनाथ की आपदा हो या वन्य जीवों का आतंक, बेरोजगारी और पलायन हो अथवा बिल्डरों का फैलाव; इन तमाम विषयों पर वे अपनी खबरों को फोकस करते रहे हैं। मगर राजनेताओं को उनसे कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें फर्जी पत्रकार ही ज्यादा पसन्द आते हैं।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन में स्थानीय छोटे अखबारों की बड़ी भूमिका रही ही, बड़े मीडिया संस्थानों ने भी आंदोलन के साथ पूरी सहानुभूति दिखाई। टीवी पत्रकारिता का तो वह शुरुआती दौर था, लेकिन प्रिंट मीडिया के माध्यम से उत्तराखंड आंदोलन की गूँज विदेशों तक पहुँची। आंदोलन को बल मिला। नया राज्य बनने के बाद यह पत्रकारिता राज्य के विकास में अपना रचनात्मक सहयोग दे सकती थी। लेकिन जितनी तेजी से दूसरे क्षेत्रों में विकृतियाँ आईं, उतनी ही तेजी से पत्रकारिता भी भ्रष्ट हुई। ऐसे लोग देखते-देखते पत्रकार बन गए, जिन्हें पत्रकारिता के मायने भी पता नहीं थे। पत्रकार का परिचय पत्र लेना उनके लिए आथर््िाक सम्पन्नता का दरवाजा खोलने जैसा हो गया। एक पत्रकार के नाते वे मंत्रियों से मिल सकते थे, अधिकारियों पर रौब जमा सकते थे और तमाम तरह के काम साध सकते थे। डाक बंगलों में रुक सकते थे और पुलिस को बता सकते थे कि पत्रकार होने के नाते उनके गलत कामों की अनदेखी की जाये। ये पीत पत्रकार भी नहीं थे, बल्कि एकदम नकली पत्रकार थे। उन्हें किसी मीडिया संस्थान में काम करने की जरूरत नहीं थी, कुछ लिखने-पढ़ने की जरूरत भी नहीं थी। उनके अपने खुद के बैनर बन गए और बैनरों का नाम भी ऐसे धाँसू कि फिल्म के टाइटिल भी उनके सामने फीके पड़ जाएँ। इसी तर्ज पर कुछ छोटे चैनल भी आए और इनमें वे लोग बेहद अहम जगहों पर आए, जिन्हें पत्रकारिता का कोई खास अनुभव नहीं था। प्रिंट मीडिया के लोग तो यह भी नहीं जानते थे कि इन चैनलों का दायित्व सँभाल रहा है। इन चैनलों का ऐसा रुआब था कि नेताओं के पास असली पत्रकारों के लिए तो समय नहीं था, लेकिन इन चैनलों के लोग मंत्रियों के पास और सचिवालय में पसरे दिखते थे। हालिया स्टिंग आॅपरेशन की सत्यता जो भी रही हो, यह सवाल तो उठता ही है कि मुख्यमंत्री के पास इस पत्रकार के लिए आधे घंटे का कीमती समय कहाँ से निकल आया ?
आश्चर्य इस बात पर होता है कि एक ही पार्टी का एक मुख्यमंत्री एक कथित पत्रकार को जेल के सलाखों के पीछे पहुँचाने की जुगत में रहे और अगला उसे बचाने की जुगत में। कैसे एक पत्रकार पर अपराध के कई केस दर्ज हो जाते हैं और फिर कैसे किसी नेता का बेटा उस पत्रकार को आरोपमुक्त कराने का बीड़ा उठा लेता है। या तो पत्रकार की छवि इतनी उज्ज्वल रही होगी कि एक मुख्यमंत्री तक को उसकी विराटता से दिक्कत महसूस हो रही हो या फिर उसकी छवि इतनी खराब थी उसके खिलाफ कई मुकदमे दर्ज हुए।
अकेले देहरादून में सात सौ से ज्यादा पत्रिकायें और दो हजार से ज्यादा पत्रकार ! लोगों को इनमें से कितनी पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध हो पाती हैं ? सरकारी स्तर पर कभी इस बात की पड़ताल नहीं की गई कि आखिर जितनी पत्र-पत्रिकाओं का पंजीयन हुआ है, जो सरकारी स्तर पर सुविधा ले रहे हैं, उनकी पृष्ठभूमि क्या है ? क्या वे कहीं से प्रकाशित होते भी हैं ? उन्हें निकालने वाले या उनमें काम करने वाले लोग कौन हैं ? उनके कामकाज की कसौटी क्या है ? माना कि पत्रकार होने के लिए बड़े मीडिया संस्थान की जरूरत नहीं है। आप एक पेज का अखबार निकाल कर भी पत्रकार हो सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या आप उस अखबार को लोगों तक पहुँचाते भी हंै ? आपके अखबार की प्रसार संख्या कम या ज्यादा हो सकती है. लेकिन उसकी गुणवत्ता की कोई कसौटी तो जरूर होती होगी। तीस-पैंतीस साल पहले तक तो उत्तराखंड में दैनिक अखबार थे ही नहीं, सिर्फ साप्ताहिक अखबार ही निकला करते थे, जिनकी कुछ सौ प्रतियाँ भी बमुश्किल ही निकल पाती थीं। लेकिन उनकी धाक रहती थी। उसमें छपे हुए का महत्व होता था।
शायद कुछ गलतियाँ जिम्मेदार पत्रकारों से भी हुई हंै। उन्होंने इस बात की चिंता नहीं की कि इन फर्जी पत्रकारों की कारगुजारियों से पूरी पत्रकारिता लांछित हो रही है। देहरादून का प्रेस क्लब, जो प्रेस के लोगों का एक व्यवस्थित मंच था, लम्बे समय तक बंद रहा। प्रेस क्लब के माध्यम से कई सवाल उठते हैं। खुशी की बात है कि अब वह खुल गया है।
(राजीव लोचन साह के साथ बातचीत के आधार पर)
नैनीताल समाचार से साभार 

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