School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला
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Tuesday, October 4, 2016

विजुअल मीडिया: गुणवत्‍ता से समझौता कभी न करें

टेलीविज़न पत्रकारिता/ TV Journalism
 मनोरंजन भारती
 मैं उन गिने चुने लोगों में हूँ, जिन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत टीवी से की। हां, आईआईएमसी में पढ़ने के दौरान कई अखबारों के लिए फ्री लांसिंग जरूर की। लेकिन संस्‍थान से निकलते ही विनोद दुआ के 'परख' कार्यक्रम में नौकरी मिल गई। यह कार्यक्रम दूरदर्शन पर हफ्ते में एक बार प्रसारित होता था। कहानी से पहले तीन दिन रिसर्च करना पड़ता था। बस या ऑटो से लेकर लाइब्रेरी की खाक छाननी पड़ती थी. वो गूगल का जमाना तो था नहीं। फिर इंटरव्‍यू वगैरह करने के बाद पहले कहानी की डिजिटल एडिटिंग की जाती थी और तब स्क्रिप्‍ट लिखी जाती थी और अंत में आवाज दी जाती थी। अब उल्‍टा होता है। पहले कहानी लिखी जाती है और फिर एडिटिंग। 
उस सप्‍ताहिक कार्यक्रम में हर हफ्ते स्टोरी करने का मौका भी नहीं मिलता था। परख में मेरी दूसरी स्‍टोरी ही टाडा पर थी। एक हफ्ते रिसर्च करने के बाद मैंने ऐसे लोगों को ढूंढा जिन पर टाडा लगा था मगर बाद में अदालत ने उन्‍हें छोड़ दिया था। करीब पांच मिनट की स्‍टोरी बनाई मगर टेलीकॉस्‍ट के दिन मालूम हुआ कि दूरदर्शन को मेरी कहानी पसंद नहीं आई और उन्‍होने उसे प्रोग्राम में दिखाने से मना कर दिया। मुझे लगा कि मेरी नौकरी गई, मगर विनोद दुआ जी ने मुझे बुला कर उल्‍टे शाबाशी दी और कहा ऐसे मौके और भी आएंगे क्‍योंकि हमारा शो डीडी पर आता है।
यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि अब के और तब के हालात कितने बदल गए हैं उस वक्‍त मोबाइल नहीं था, गुगल नहीं था, 24 घंटे का चैनल नहीं था। पहले हर हफ्ते कहानी नहीं मिलती थी और अगर मिल गई तो डीडी को पसंद नहीं आती थी यदि उन्‍हें पसंद आ भी गई तो केवल एक बार स्‍टरेी चलती थी। यदि तय समय पर आपने प्रोग्राम नहीं देखा तो एक काम से। आज के 24 घंटे के चैनल में यदि किसी रिपोर्टर को कहानी 24 घंटें में 12 बार नहीं चली तो शिकायत करने आ जाता है कि सर स्‍टोरी चल नहीं पाई मैं केवल मुस्‍कुराता रहता हूं।
अब इंटरनेट, स्‍मार्ट फोन, हर जगह से लाइव करने की सुविधा ने पूरे टीवी न्‍यूज को बदल दिया है। अब सब कुछ फास्‍ट फूड की तरह, स्‍टोरी 15 मिनट में तैयार। क्‍वालिटी बाद में देखी जायेगी। रिपोर्टर को सीखने का मौका ही नहीं मिलता उसके पास कुछ भी सोचने का मौचा नहीं होता। रोज एक कहानी करने की ललक ने उसके अंदर रचनात्‍मकता को खत्‍म कर दिया है। टीवी का रिर्पोटर हमेशा फील्‍ड में रहना चाहता है कहानी भेज दी, डेस्‍क ने कहानी लिख दी प्रोडक्‍शन ने उसे एडिट करा दिया और कहानी ऑन एयर चली जाती है और रिपोर्टर प्रेस क्‍लब चला जाता है। अगली सुबह फिर वही कहानी दोहराई जाती है। किसी को शाट्स की चिंता नहीं होती क्‍योंकि उन्‍हें मालूम है कि फाइल फुटेज पर भी कहानी बन जाएगी। और एक बात कहना चाहता हूं कि हर गली नुक्‍कड़ पर जो टीवी के रिर्पोटर बनाने की दुकानें खुल गई हैं उससे टीवी न्‍यूज को खासा नुकसान हुआ है। अब तो हालात ये हैं कि सभी बड़े चैनलों ने अपने इंस्‍टीट्यूट खोल लिए हैं और भर्तियां वहीं से की जाती हैं। चैनलों पर भी दबाव होता है प्‍लेसमेंट करने का।
रिर्पोटर के लिए दो सोर्स से अपनी खबर पक्‍का करने का सिस्‍टम भी खत्‍म होता जा रहा है। सारा कुछ एजेंसियों के ऊपर छोड़ दिया जाता है। हम लोगों के फोन में अभी भी आपको नेताओं के ड्राइवरों, उनके पीए फोन उठाने वाले लोगों के नंबर मिल जाएंगें।
खैर जितना भी और जो कुछ भी बदला है। टीवी न्‍यूज की दुनिया में खो कर रह गया है। अब हिलते डुलते कैमरे के लिए गए शॉट को खराब नहीं बताया जाता बल्कि उसमें एक्‍शन है ऐसा माना जाता है। जैन हवाला डायरी से पहले कैमरामेन कैमरे को कंधे पर नहीं रखते थे। उस जैन हवाला डायरी के बाद सभी तरह की कोर्ट रिर्पोटिंग का दौर आया और उसके बाद अदालतों में भाग दौड़ का जो सि‍लसिला चला कि कैमरामेन ने कंधे से कैमरा हटाया ही नहीं। चैनलों की बढ़ती भीड़ ने हमें 7 रेसकोर्स से निकाल कर रोड़ पर खड़ा कर दिया। एक वक्‍त था जब सुप्रीम कोर्ट के बरामदे तक कैमरा ले जाते थे फिर सीढि़यों के नीचे फिर एक लॉन से दूसरे लॉन और अब एकदम बाहर कोने में। पहले कहानी कही जाती थी अब केवल डिबेट होता है।
इस तेजी से बदलती दुनियां में टीवी को भी बदलना था हमें न्‍यूज चैनलों की बढ़ती भीड़ के लिए भी सोचना चाहिए और गुणवत्‍ता का भी ख्‍याल रखना होगा। वरना ये इंडस्‍ट्री भी धीरे-धीरे पतन का शिकार होने लगेगी।
एक भयावह सच यह है कि कई चैनल बंद हो गए हैं और कई बंद होने के कगार पर हैं और इस क्षेत्र में नौकरी एकदम नहीं है। मैं किसी चैनल के किसी के पक्ष लेने पर जरा भी डिबेट नहीं कर रहा। मैं केवल इस बात से आगाह कर रहा हूं कि जो लोग इन चैनलों में काम कर रहे हैं उनकी नौकरियां बचाइए क्‍योंकि एक बड़ा संकट टीवी उद्योग पर दस्‍तक दे रहा है।
http://www.newswriters.in/2016/09/07/visual-media-do-not-compromise-with-quality/
साभार: प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के प्रकाशन ” The Scribes World  सच पत्रकारिता का“. लेखक  NDTV के Political Editor हैं.


Friday, June 17, 2016

कैसे नाम पड़ा ‘आज तक’?

टेलीविज़न पत्रकारिता/ क़मर वहीद नक़वी

 आज तकका नाम कैसे पड़ा आज तक?’ बड़ी दिलचस्प कहानी है. बात मई 1995 की है. उन दिनों मैं नवभारत टाइम्स,’ जयपुर का उप-स्थानीय सम्पादक था. पदनाम ज़रूर उप-स्थानीय सम्पादक था, लेकिन 1993 के आख़िर से मैं सम्पादक के तौर पर ही अख़बार का काम देख रहा था. एक दिन एस. पी. सिंह का फ़ोन आया. उन्होंने बताया कि इंडिया टुडे ग्रुप को डीडी मेट्रो चैनल पर 20 मिनट की हिन्दी बुलेटिन करनी है. बुलेटिन की भाषा को लेकर वे लोग काफ़ी चिन्तित हैं. क्या आप यह ज़िम्मा ले पायेंगे. मेरे हाँ कहने पर बोले कि तुरन्त दिल्ली आइए और अरुण पुरी से मिल लीजिए. दिल्ली आने पर सबसे पहले शेखर गुप्ता से मिलवाया गया.
उन्होंने अंगरेज़ी की इंडिया टुडे निकाली और एक सादा काग़ज निकाला और कहा कि पहले इसमें से यह दो पैरे हिन्दी में लिख कर दिखाइए. ख़ैर मेरी हिन्दी उनको पसन्द आ गयी. तब अरुण पुरी से भेंट हुई. घंटे भर तक ख़ूब घुमा-फिरा कर, ठोक-बजा कर उन्होंने इंटरव्यू लिया और फिर आख़िर में बोले कि आप बहुत सीनियर हैं, टीवी में पहली बार काम करेंगे, अगर आपको यहाँ का काम पसन्द न आया तो प्राब्लम हो जायेगी, इसलिए आप छुट्टी लेकर पन्द्रह दिन काम करके देख लीजिए, पसन्द आये तो वहाँ से इस्तीफ़ा देकर ज्वाइन कर लीजिएगा.
कहने का मतलब यह कि वह चाह रहे थे कि कुछ दिन मेरा काम देख लें, फिर हाँ करें वरना बन्दा अगर काम का न निकला तो बोझ बन जायेगा. मैंने कहा कि आप चिन्ता न करें, मेरा काम आपको पसन्द नहीं आयेगा, तो मैं ख़ुद ही नौकरी छोड़ दूँगा, मुझे मालूम है कि मुझे कोई न कोई अच्छी नौकरी मिल ही जायेगी. बड़ी जद्दोजहद हुई इस पर, आख़िर वह इस पर माने कि मैं कम से कम दो दिन दिल्ली में रह कर टीवी वाले काम का माहौल समझ लूँ, अगर बात जमे तो जयपुर जा कर इस्तीफ़ा दे दूँ.
तो इस तरह दो दिन का दिल्ली प्रवास हुआ. यहाँ दफ़्तर में अजय चौधरी, अलका सक्सेना समेत कई लोग थे, जिनको मैं जानता था. कोई परेशानी नहीं हुई. जिस दिन दिल्ली से वापसी थी, उस दिन स्टूडियो देखा. तब पुराने ज़माने में सीधे-सादे स्टूडियो बना करते थे. देखा, बैकग्राउंड की दीवार पर बड़ा-बड़ा लिखा हुआ था, ‘आज.मैंने पूछा कि क्या बुलेटिन का नाम आजहोगा, जवाब मिला हाँ.
मैंने पूछा कि किसी ने आप लोगों को बताया नहीं कि आजउत्तर प्रदेश का एक बहुत बड़ा और काफ़ी पुराना अख़बार है, उन्हें अगर यह नाम इस्तेमाल करने पर आपत्ति हो गयी तो? समस्या गम्भीर थी. सेट बन चुका था. सेट में भी कोई भारी फेरबदल की गुंजाइश नहीं थी. और अरुण पुरी चाहते थे कि नाम में आजशब्द हो, क्योंकि इंडिया टुडेके नाम से वह उसे जोड़ कर रखना चाहते थे. किसी ने सुझाव दिया कि इस आजके आगे-पीछे कुछ जोड़ दिया जाये तो बात बन सकती है. तब एक सुझाव आया कि इसका नाम आजकलरख देते हैं.
मैंने कहा यह तो पश्चिम बंगाल से निकलनेवाले एक अख़बार का नाम है. और इसी नाम से भारत सरकार का प्रकाशन विभाग भी कई वर्षों से एक पत्रिका छापता है. तो यह नाम भी छोड़ दिया गया. फिर कई और नामों के साथ दो नाम और सुझाये गये, ‘आज दिनांकऔर आज ही.दोनों ही नाम मुझे तो कुछ जँच नहीं रहे थे.
शायद और लोगों को भी बहुत पसन्द नहीं आये. कहा गया कि कुछ और नाम सुझाये जायें. बहरहाल, उसी शाम मुझे जयपुर लौटना था और वहाँ अपना इस्तीफ़ा सौंपना था. दिल्ली के बीकानेर हाउस से बस पकड़ी और वापस चल दिया. रास्ते में मन में कई तरह के ख़याल आ रहे थे, कुछ झुँझलाहट भी हो रही थी कि कोई बढ़िया नाम क्यों नहीं सूझ रहा है?
आज तक तो ऐसा नहीं हुआ कि इतने ज़रा-से काम के लिए इतनी माथापच्ची करनी पड़े! आँये….क्या….आज तक….अचानक दिमाग़ की बत्ती जली, आज तक, आज तक! हाँ, यह नाम तो ठीक लगता है….’आज तक.हर दिन हम कहेंगे कि हम आज तक की ख़बरें ले कर आये हैं.
फिर कई तरह से उलट-पुलट कर जाँचा-परखा. मुझे लगा कि नाम तो बढ़िया है. इसके आगे कुछ भी जोड़ दो, खेल आज तक, बिज़नेस आज तक वग़ैरह-वग़ैरह! कुछ ऐसा ही नाम मैंने 1986 में ढूँढा था, ‘चौथी दुनियाअख़बार का. उसमें भी दुनियाके पहले कुछ जोड़ कर हर पेज के अलग नाम रखे थे, जैसे देश-दुनिया, उद्यमी दुनिया, खिलाड़ी दुनिया, जगमग दुनिया, चुनमुन दुनिया वग़ैरह-वग़ैरह. आज तकनाम भी मुझे कुछ ऐसा ही लगा और मुझे लगा कि जैसा नाम ढूँढ रहे थे, वह मिल गया है!
उन दिनों न ईमेल का ज़माना था, न मोबाइल का. इसलिए जयपुर पहुँच कर अगले दिन क़रीब 12 बजे मैं एक पीसीओ पर पहुँचा और अरुण पुरी को फ़ैक्स कर दिया कि मेरे ख़याल से आज तकनाम रखना ठीक होगा. और आख़िर यह नाम रख लिया गया.
क़मर वहीद नक़वी: स्वतंत्र  स्तम्भकार. पेशे के तौर पर 35 साल से पत्रकारिता में. आठ साल तक (2004-12) टीवी टुडे नेटवर्क के चार चैनलों आज तक, हेडलाइन्स टुडे, तेज़ और दिल्ली आज तक के न्यूज़ डायरेक्टर. 1980 से 1995 तक प्रिंट पत्रकारिता में रहे और इस बीच नवभारत टाइम्स, रविवार, चौथी दुनिया में वरिष्ठ पदों पर काम किया. कुछ नया गढ़ो, जो पहले से आसान भी हो और अच्छा भी हो क़मर वहीद नक़वी का कुल एक लाइन का फंडा यही है! आज तक और चौथी दुनिया’—एक टीवी में और दूसरा प्रिंट में— ‘आज तक की झन्नाटेदार भाषा और अक्खड़ तेवरों वाले चौथी दुनिया में लेआउट के बोल्ड प्रयोग  दोनों जगह क़मर वहीद नक़वी की यही धुन्नक दिखी कि बस कुछ नया करना है, पहले से अच्छा और आसान. 1995 में डीडी मेट्रो पर शुरू हुए 20 मिनट के न्यूज़ बुलेटिन को आज तक नाम तो नक़वी ने दिया ही, उसे ज़िन्दा भाषा भी दी, जिसने ख़बरों को यकायक सहज बना दिया, उन्हें समझना आसान बना दिया और अपनी भाषा में आ रही ख़बरों से दर्शकों का ऐसा अपनापा जोड़ा कि तब से लेकर अब तक देश में हिन्दी न्यूज़ चैनलों की भाषा कमोबेश उसी ढर्रे पर चल रही है! नक़वी ने अपने दो कार्यकाल में आज तक के साथ साढ़े तेरह साल से कुछ ज़्यादा का वक़्त बिताया. इसमें दस साल से ज़्यादा समय तक वह आज तक के सम्पादक रहे. पहली बार,अगस्त 1998 से अक्तूबर 2000 तक, जब वह आज तक के एक्ज़िक्यूटिव प्रोड्यूसर और चीफ़ एक्ज़िक्यूटिव प्रोड्यूसर रहे. उस समय आज तक दूरदर्शन के प्लेटफ़ार्म पर ही था और नक़वी के कार्यकाल में ही दूरदर्शन पर सुबह आज तक’, ‘साप्ताहिक आज तक’, ‘गाँव आज तक और दिल्ली आज तक जैसे कार्यक्रमों की शुरुआत हुई. आज तक के साथ अपना दूसरा कार्यकाल नक़वी ने फ़रवरी 2004 में न्यूज़ डायरेक्टर के तौर पर शुरु किया और मई 2012 तक इस पद पर रहे. इस दूसरे कार्यकाल में उन्होंने हेडलाइन्स टुडे की ज़िम्मेदारी भी सम्भाली और दो नये चैनल तेज़ और दिल्ली आज तक भी शुरू किये. टीवी टुडे मीडिया इंस्टीट्यूट भी शुरू किया, जिसके ज़रिये देश के दूरदराज़ के हिस्सों से भी युवा पत्रकारों को टीवी टुडे में प्रवेश का मौक़ा मिला.अक्तूबर 2013 में वह इंडिया टीवी के एडिटोरियल डायरेक्टर बने, लेकिन वहाँ कुछ ही समय तक रहे. फ़िलहाल कुछ और नयेआइडिया को उलट-पुलट कर देख रहे हैं कि कुछ मामला जमता है या नहीं. तब तक उनकी राग देश वेबसाइट तो चल ही रही है! 
(यह टिप्पणी इसी वेबसाइट से साभार है)
http://www.newswriters.in/2016/05/28/the-story-of-aaj-tak/