टेलीविज़न पत्रकारिता/ TV
Journalism
मनोरंजन भारती
मैं उन गिने चुने लोगों में हूँ, जिन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत टीवी से की। हां, आईआईएमसी में पढ़ने
के दौरान कई अखबारों के लिए फ्री लांसिंग जरूर की। लेकिन संस्थान से निकलते ही
विनोद दुआ के 'परख' कार्यक्रम में नौकरी मिल गई। यह कार्यक्रम दूरदर्शन पर हफ्ते में
एक बार प्रसारित होता था। कहानी से पहले तीन दिन रिसर्च करना पड़ता था। बस या ऑटो
से लेकर लाइब्रेरी की खाक छाननी पड़ती थी. वो गूगल का जमाना तो था नहीं। फिर इंटरव्यू
वगैरह करने के बाद पहले कहानी की डिजिटल एडिटिंग की जाती थी और तब स्क्रिप्ट
लिखी जाती थी और अंत में आवाज दी जाती थी। अब उल्टा होता है। पहले कहानी लिखी
जाती है और फिर एडिटिंग।
उस सप्ताहिक कार्यक्रम में हर हफ्ते स्टोरी करने का मौका
भी नहीं मिलता था। परख में मेरी दूसरी स्टोरी ही टाडा पर थी। एक हफ्ते रिसर्च
करने के बाद मैंने ऐसे लोगों को ढूंढा जिन पर टाडा लगा था मगर बाद में अदालत ने
उन्हें छोड़ दिया था। करीब पांच मिनट की स्टोरी बनाई मगर टेलीकॉस्ट के दिन
मालूम हुआ कि दूरदर्शन को मेरी कहानी पसंद नहीं आई और उन्होने उसे प्रोग्राम में
दिखाने से मना कर दिया। मुझे लगा कि मेरी नौकरी गई, मगर विनोद दुआ जी
ने मुझे बुला कर उल्टे शाबाशी दी और कहा ऐसे मौके और भी आएंगे क्योंकि हमारा शो
डीडी पर आता है।
यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि अब के और
तब के हालात कितने बदल गए हैं उस वक्त मोबाइल नहीं था, गुगल नहीं था, 24 घंटे का चैनल नहीं
था। पहले हर हफ्ते कहानी नहीं मिलती थी और अगर मिल गई तो डीडी को पसंद नहीं आती थी
यदि उन्हें पसंद आ भी गई तो केवल एक बार स्टरेी चलती थी। यदि तय समय पर आपने
प्रोग्राम नहीं देखा तो एक काम से। आज के 24 घंटे के चैनल में
यदि किसी रिपोर्टर को कहानी 24 घंटें में 12 बार नहीं चली तो शिकायत करने आ जाता है कि सर स्टोरी चल नहीं पाई
मैं केवल मुस्कुराता रहता हूं।
अब इंटरनेट, स्मार्ट फोन, हर जगह से लाइव
करने की सुविधा ने पूरे टीवी न्यूज को बदल दिया है। अब सब कुछ फास्ट फूड की तरह, स्टोरी 15 मिनट में तैयार। क्वालिटी बाद में देखी जायेगी। रिपोर्टर को
सीखने का मौका ही नहीं मिलता उसके पास कुछ भी सोचने का मौचा नहीं होता। रोज एक
कहानी करने की ललक ने उसके अंदर रचनात्मकता को खत्म कर दिया है। टीवी का
रिर्पोटर हमेशा फील्ड में रहना चाहता है कहानी भेज दी, डेस्क ने कहानी लिख दी प्रोडक्शन ने उसे एडिट करा दिया और कहानी
ऑन एयर चली जाती है और रिपोर्टर प्रेस क्लब चला जाता है। अगली सुबह फिर वही कहानी
दोहराई जाती है। किसी को शाट्स की चिंता नहीं होती क्योंकि उन्हें मालूम है कि
फाइल फुटेज पर भी कहानी बन जाएगी। और एक बात कहना चाहता हूं कि हर गली नुक्कड़ पर
जो टीवी के रिर्पोटर बनाने की दुकानें खुल गई हैं उससे टीवी न्यूज को खासा नुकसान
हुआ है। अब तो हालात ये हैं कि सभी बड़े चैनलों ने अपने इंस्टीट्यूट खोल लिए हैं
और भर्तियां वहीं से की जाती हैं। चैनलों पर भी दबाव होता है प्लेसमेंट करने का।
रिर्पोटर के लिए दो सोर्स से अपनी खबर
पक्का करने का सिस्टम भी खत्म होता जा रहा है। सारा कुछ एजेंसियों के ऊपर छोड़
दिया जाता है। हम लोगों के फोन में अभी भी आपको नेताओं के ड्राइवरों, उनके पीए फोन उठाने वाले लोगों के नंबर मिल जाएंगें।
खैर जितना भी और जो कुछ भी बदला है।
टीवी न्यूज की दुनिया में खो कर रह गया है। अब हिलते डुलते कैमरे के लिए गए शॉट
को खराब नहीं बताया जाता बल्कि उसमें एक्शन है ऐसा माना जाता है। जैन हवाला डायरी
से पहले कैमरामेन कैमरे को कंधे पर नहीं रखते थे। उस जैन हवाला डायरी के बाद सभी
तरह की कोर्ट रिर्पोटिंग का दौर आया और उसके बाद अदालतों में भाग दौड़ का जो सिलसिला
चला कि कैमरामेन ने कंधे से कैमरा हटाया ही नहीं। चैनलों की बढ़ती भीड़ ने हमें 7 रेसकोर्स से निकाल कर रोड़ पर खड़ा कर दिया। एक वक्त था जब
सुप्रीम कोर्ट के बरामदे तक कैमरा ले जाते थे फिर सीढि़यों के नीचे फिर एक लॉन से
दूसरे लॉन और अब एकदम बाहर कोने में। पहले कहानी कही जाती थी अब केवल डिबेट होता
है।
इस तेजी से बदलती दुनियां में टीवी को
भी बदलना था हमें न्यूज चैनलों की बढ़ती भीड़ के लिए भी सोचना चाहिए और गुणवत्ता
का भी ख्याल रखना होगा। वरना ये इंडस्ट्री भी धीरे-धीरे पतन का शिकार होने
लगेगी।
एक भयावह सच यह है कि कई चैनल बंद हो
गए हैं और कई बंद होने के कगार पर हैं और इस क्षेत्र में नौकरी एकदम नहीं है। मैं
किसी चैनल के किसी के पक्ष लेने पर जरा भी डिबेट नहीं कर रहा। मैं केवल इस बात से
आगाह कर रहा हूं कि जो लोग इन चैनलों में काम कर रहे हैं उनकी नौकरियां बचाइए क्योंकि
एक बड़ा संकट टीवी उद्योग पर दस्तक दे रहा है।
http://www.newswriters.in/2016/09/07/visual-media-do-not-compromise-with-quality/
साभार: प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के
प्रकाशन ” The
Scribes World सच पत्रकारिता का“. लेखक NDTV के Political Editor हैं.
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