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Tuesday, August 2, 2016

मीडिया में आतंकवादियों की फोटो दिखाएं या नहीं?

सैफ अहमद खान/ अभिषेक मेहरोत्रा 
फ्रांस में लगातार बढ़ रहे आतंकी हमलों के बीच वहां के कई प्रकाशनों (publications) और प्रसारणकर्ताओं (broadcasters) ने निर्णय लिया है कि वे आतंकियों के नाम और फोटो का प्रकाशन नहीं करेंगे। ये सभी मीडिया संस्‍थान इस बात को लेकर काफी सतर्क हैं कि आतंकी के मरने के बाद उसकी कवरेज कर उसे महिमामंडित न किया जाए। इस नीति का पालन करने का निर्णय लेने वालों में फ्रांस के अखबार ‘Le Monde’ और चैनल ‘BFM TV’ का नाम भी शामिल है।
हालांकि फ्रांस की मीडिया के इस फैसले से भारत के कई वरिष्ठ पत्रकार और संपादकों से हमने बात की। कुछ फ्रेंच मीडिया की इस पहल सहमत नहीं हैं, तो कुछ का कहना है कि भारतीय मीडिया के लिए फ्रेंच मीडिया ने एक उदाहरण पेश किया है और भारतीय मीडिया को भी इस पहल के साथ आगे बढ़ना चाहिए।

इंडियन एक्‍सप्रेसके पूर्व एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्‍ता का कहना है, ‘सै‍द्धांतिक रूप से मैं किसी भी सूचना को छिपाना पसंद नहीं करूंगा। यदि कुछ मीडिया हाउस इन नामों का खुलासा नहीं करेंगे तो दूसरे करेंगे। आजकल तो आतंकवादी इंटरनेट पर भी काफी सक्रिय हैं।इस निर्णय को प्रतीकवाद (tokenism) बताते हुए शेखर गुप्‍ता ने कहा कि इसे कोई भी हल निकलने वाला नहीं है।
देश के बड़े अखबार दैनिक जागरण के दिल्ली संस्करण के संपादक विष्णु त्रिपाठी इस मुद्दे पर विस्तार से बात करते हुए कहते हैं कि आतंकियों की मीडिया कवरेज को लेकर कई बार चर्चा हुई है। इसके दो पहलू है। जब आप किसी पर्सनैलिटी पर बात करते हैं तो उसकी प्रोफाइल और कृत्य बताने ही पड़ते हैं। उसके पीछ के कारण भी जनता जानना चाहती है। अगर कोई आतंकी बना तो क्या कारण रहे कि उसने ये रास्ता चुना, ये भी प्रकाशित करना होता है।
वैसे फ्रांस और भारत की जनता की मनोवैज्ञानिक सोच में भी काफी फर्क है। और फ्रांस के पास कश्मीर जैसा संवेदनशील मामला नहीं है और न ही पाक जैसा कोई पड़ोसी देश। अगर हम किसी आतंकी ने कितने मासूमो को मारा या उसकी खूंखार प्रोफाइल प्रकाशित करते हैं, तो जनता हमारे जाबांजों द्वारा उसकी हत्या करने पर संतोष भाव महसूस करती है।
वैसे मैं बड़े संकोच के साथ यह भी सोचता हूं कि अब भारत की जनता इसकी अभ्यस्त हो गई है। 15 साल पहले जब कोई विस्फोट होता था, तो तीन-चार दिन बाजार बंद रहता था, पर अब ऐसा नहीं होता है। विस्फोट के तुरंत बाद जनता घायलों की मदद को जुट जाती है और अखबार-चैनलों पर आपको जनजीवन सामान्य की खबरें दिखाई पडती है। इस तरह से हमारी जनता दहशतगर्दों को खुद ही ये संदेश दे देती है कि उनका हम पर कोई असर नहीं पड़ता है।
आज के सोशल मीडिया के दौर में नाम या फोटो न छापने से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ेंगा। हा पंजाब में आतंकवाद के समय मीडिया वहां की खबरें अंडरप्ले किया करता था, पर अब धारणा बदली है। आज सही विश्लेषण कई माध्यमों के जरिए पब्लिक तक पहुंच रहा है।
वहीं इससे परे चौथी चुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय फ्रेंच मीडिया की इस पहल का स्वागत करते हुए कहते हैं कि ये एक अच्छी पहल है और लोकतंत्र के हिमायती लोगों को इस पहल को अपनाना चाहिए। वे कहते हैं कि मीडिया में आतंकियों की कवरेज के चलते ये ट्रेंड बन गया है कि एक आतंकी 5 लोगों को मारता है, तो दूसरा आतंकी 10 लोगों को मारकर अपने को मीडिया के जरिए बड़ा दिखाने की कोशिश करता है। आतंकियों का काम ही है कि भय फैलाना और वे इसके लिए मीडिया का पूरा प्रयोग करते हैं। पर हमारे समझदार पत्रकार बिना सोचे-समझे आतंकी खबरों को हेडलाइन के साथ बड़ी-बड़ी फोटो लगाकर पेश करते हैं।
संतोष भारतीय आगे कहते है कि अब तो आईएसआईएस भी यही कर रहा है, हत्या का विडियो बनाकार रिलाज करता है और मीडिया उसे प्रसारित करता है। अभी आज मैं इंडिया टुडे के संपादक अरुण पुरी के साथ था, तब हम यही चर्चा कर रहे थे कि आज मीडिया कितना गैरजिम्मेदार होता जा रहा है। मीडिया को समझना होगा कि क्या खबर दिखाने से लोकतंत्र को नुकसान पहुंचता है और क्या दिखाने से लोकतंत्र मजबूत होता है और उसी के आधार पर फैसला करना होगा। मैं फ्रेंच मीडिया की इस पहले के साथ हूं। उन्होंने कहा कि आतंकवाद को फैलाने में आतंकी मीडिया का प्रयोग कर रहे हैं, ऐसे में मीडिया के इस तरह के कदम उनको सख्त संदेश देंग।
समाचारप्लस समूह के संपादक उमेश कुमार काफी उत्साहपूर्वक फ्रेंच मीडिया की इस पहल को सही बताते हुए तर्क देते हैं कि आतंकियों को जनाजे और उनकी परिजनों के आंसू क्यों दिखाता है हमारा मीडिया, क्या ऐसा करके वे आतंकियों के प्रति सहानुभूति पैदा नहीं करता है? भारतीय मीडिया के लिए फ्रेंच मीडिया की ये पहल एक उदाहरण है। वे कहते हैं कि आतंकियों की मीडिया कवरेज होनी ही नहीं चाहिए। मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझनी ही होगी।
हालांकि द वॉयरफाउंडिंग एडिटर एमके वेणु का मानना है कि इस कवायद का कुछ तो असर होगा। उनका कहना है, ‘आतंकियों के लिए पब्लिसिटी ऑक्‍सीजन का काम करती है। लेकिन कई बार लोगों को जागरूक अथवा सतर्क करने के लिए फोटोग्राफ छापना जरूरी होता है।इंडिया के बारे में उन्‍होंने कहा कि यहां कई संदिग्‍ध आतंकवादी बाद में बरी हो गए। यही कारण है कि मीडिया को इस तरह के फोटोग्राफ को छापने से बचना चाहिए।
वहीं, पूर्व में बीबीसीसे जुड़े रहे मधुकर उपाध्‍याय का कहना है कि आतंकवाद जैसी समस्‍या पर इस तरह लगाम नहीं लगाई जा सकती है। उपाध्‍याय ने कहा, ‘ब्रिटेन में बीबीसी समेत कई मीडिया संगठनों ने निर्णय लिया था कि वे ‘Sinn Féin’ के प्रतिनिधियों की बातों को नहीं उठाएंगे लेकिन उनकी पिक्‍चर दिखाई गई थी।उन्‍होंने कहा कि मीडिया अप्रोच के कारण ही आयरिश रिपब्लिक आर्मी (IRA) का सफाया नहीं हो सका लेकिन इसकी बजाय राजनीतिक समझौता हो गया। उपाध्‍याय ने कहा, ‘आतंकी भी उन क्षेत्रों को चुनते हैं जहां पर उन्‍हें प्रचार मिलेगा। ऐसे में आतंकियों
का टार्गेट ग्रुप भी मीडिया से अलग नहीं है।
द सिटीजनकी एडिटर-इन-चीफ सीमा मुस्‍तफा भी शेखर गुप्‍ता के विचारों से सहमत हैं। उनका कहना है, ‘यह काफी बेतुका है क्‍योंकि इस तरह की चीजों को प्रकाशित अथवा प्रसारित न करने से आतंकवाद को पर लगाम नहीं लगाई जा सकती है। यह समस्‍या काफी बड़ी है। ऐसे में फ्रांस की मीडिया का इस तरह का निर्णय ठीक नहीं है।’ Courtesy: samachar4media.com


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