सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार सुबह
इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए सूचना
प्रौद्योगिकी क़ानून (आईटी एक्ट) के अनुच्छेद 66A को असंवैधानिक क़रार दिया है.
अनुच्छेद 66A के तहत दूसरे को आपत्तिजनक लगने वाली कोई भी जानकारी कंप्यूटर या मोबाइल
फ़ोन से भेजना दंडनीय अपराध था. सुप्रीम कोर्ट में दायर कुछ
याचिकाओं में कहा गया था कि ये प्रावधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ हैं, जो हमारे संविधान के मुताबिक़ हर नागरिक का मौलिक अधिकार है. कोर्ट ने इन याचिकाओं पर फ़ैसला
सुनाते हुए कहा कि अनुच्छेद 66A नागरिकों की
ज़िंदगी को सीधे तौर पर प्रभावित करता है और उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के
संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है.
सरकार ने इस अनुच्छेद को सही ठहराते
हुए कोर्ट में कहा था कि ऐसा क़ानून ज़रूरी है ताकि लोगों को इंटरनेट पर आपत्तिजनक
बयान देने से रोका जा सके. सरकार का कहना था कि आम जनता को इंटरनेट पर ज़रूरत से ज़्यादा
आज़ादी देने से जनता में आक्रोश फैलने का ख़तरा है.
इस क़ानून के तहत साल 2012 में मुंबई में ग़िरफ़्तार की गई महिला रीनू श्रीनिवासन ने इस
फ़ैसले का स्वागत करते हुए कहा कि उन्होंने इंटरनेट पर अपने विचार व्यक्त कर कोई
जुर्म नहीं किया था. दरअसल उन्होंने साल 2012 में बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद मुंबई में सेवाएं ठप्प होने के बाद
फ़ेसबुक पर अपनी दोस्त शाहीन के उस पोस्ट को लाइक किया था जिसमें लिखा था 'हर दिन हज़ारों लोग मरते हैं लेकिन दुनिया फिर भी चलती है. लेकिन
एक राजनेता की मृत्यु से सभी लोग बौखला जाते हैं. आदर कमाया जाता है और किसी का
आदर करने के लिए लोगों के साथ ज़बर्दस्ती नहीं की जा सकती. मुंबई आज डर के मारे
बंद हुआ है, न कि आदर भाव से.' हालांकि शाहीन ने अपने फ़ेसबुक
पोस्ट में बाल ठाकरे का ज़िक्र नहीं किया था, लेकिन उन्हें और उनकी दोस्त को इसके लिए ग़िरफ़्तार कर लिया गया
था.
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर अपनी
प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा, "मैं बहुत ख़ुश हूं कि आज हमें दो साल बाद न्याय मिला है. लोगों में
एक डर बैठ गया था कि वो सोशल मीडिया पर अपने विचार अगर खुल कर व्यक्त करेंगे तो
उऩ्हें ग़िरफ़्तार किया जा सकता है. लेकिन अब अनुच्छेद 66A के हटाए जाने के बाद लोगों में विश्वास फिर से जगेगा और वो आज़ाद
महसूस कर सकेंगे. लेकिन लोगों को ख़ुद पर संयम बरतना भी सीखना होगा कि इंटरनेट पर
मर्यादा बनाए रखें."
कोर्ट ने अपने फ़ैसले में इस
अनुच्छेद को अस्पष्ट बताया और कहा कि 'एक इंसान के लिए जो आपत्तिजनक हो, वो दूसरे इंसान के लिए शायद
आपत्तिजनक न हो'.
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/03/150324_internet_freedom_supreme_court_sy