संगोष्ठी/ राजेंद्र सिंह क्वीरा
साहित्य
अकादमी व उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय संगोष्ठी में पहुंचे देश भर
के साहित्यकार व पत्रकार
देश के वरिष्ठ साहित्यकारों व पत्रकारों
ने पत्रकारिता से साहित्य को हाशिये पर धकेल दिए जाने को अफसोसनाक बताया। लेकिन
उन्होने सोशल मीडिया को आशा की नई किरण बताया, साथ
ही शंका भी जाहिर की कि इसमें भी साहित्य के बहस का स्तर गिर रहा है। सभी ने
साहित्य का स्तर ऊंचा उठाने के लिए एकजुटता की बात की। हल्द्वानी में साहित्य अकादेमी
और उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता पर आयोजित
दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में देशभर से आये विद्वतजनों ने अपनी-अपनी राय जाहिर
की। साहित्यकारों का कहना था कि विश्व स्तर पर मीडिया पर विज्ञापनों का दबाव बढ़ने
के कारण साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर चली गयी है, जो कि देश और समाज के लिए बेहद निराशाजनक है। संगोष्ठी में माखनलाल
चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र का कहना था
कि सारी दुनिया में साहित्य को जनता तक सरल रूप में पहुंचाने का काम पत्रकारिता ही
करती रही है। साहित्य के दर्जनों नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार पत्रकारिता से
जुड़े रहे हैं। हिन्दी में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली गद्य का विकास हिंदी
पत्रकारिता के माध्यम से ही किया। साथ ही दुनियाभर के मुद्दों से पाठकों को परिचित
करवाया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तिलक और गांधी जी ने प्रतिरोध की पत्रकारिता की,
जिसकी वजह से उन्हें जेल जाना पड़ा। उस समय पत्रकारिता ने ही सबसे पहले स्वदेशी और
बंगाल विभाजन जैसे ज्वलंत मुद्दों को उठाया था। साहित्यिक पत्रकारिता ही उस समय
मुख्य धारा की पत्रकारिता थी। लेकिन आज हालात एकदम बदल गये हैं। उन्होंने कहा कि
साहित्यिक पत्रकारिता ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता इतनी मजबूत बना दी थी कि लोग
अखबार में लिखी गई खबर को झूठ मानने को तैयार ही नहीं होते थे। बाद के दौर में
विज्ञापनों के दबाव के चलते साहित्यिक पत्रकारिता हाशिए पर जाने लगी. दुर्भाग्य से
किसी ने इसका विरोध नहीं किया। यही वजह है कि एक-एक कर हिंदी की नामी साहित्यिक
पत्रिकाएं बंद हो गईं।
उत्तराखंड
मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति सुभाष धुलिया का कहना था कि भूमंडलीकरण और
उपभोक्तावाद के आने के बाद से मीडिया में अपराध, सेक्स और दुर्घटनाओं की खबरों को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा है।
इसका कारण यह है कि इसे साधारण पाठक भी सरलता से समझ लेता है, जबकि साहित्यिक पत्रकारिता को समझने
में उसे कुछ मुश्किल आती है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि संपादकीय और साहित्यिक
पृष्ठ पढ़नेवाले 10-12 प्रतिशत पाठक ही समाज का नेतृत्व करते
हैं। इसलिए संचार माध्यमों में साहित्यिक और वैचारिक सामग्री को रोका नहीं जा सकता
है. मुक्त अर्थव्यवस्था आने के बाद से मीडिया में संपादक की जगह ब्रांड मैनेजर
लेने लगे। ये मैनेजर अखबार को ऐसा उत्पाद बनाने लगे जिसे विशाल जनसमूह खरीदें। इस
वजह से साहित्यिक और सांस्कृतिक विमर्श हाशिए पर चले गए। पत्रकारिता सेवा से
व्यापार में बदल गई। इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना बन गया। इसी वजह से समाचार उत्पाद
बन कर रह गया। पत्रकारिता का उद्देश्य विवेकशील नागरिक बनाना न होकर ज्यादा क्रय
शक्ति वाला उपभोक्ता बनाना हो गया। उन्होंने कहा कि न्यू मीडिया अब असंतोष और
असहमति को अभिव्यक्ति देने का काम कर रहा है, लेकिन
इंटरनेट जैसे माध्यम की पहुंच अभी जनसंचार के माध्यमों की तरह नहीं है।
उत्तराखंड मुक्त विवि में पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विद्या शाखा के निदेशक प्रो. गोविंद सिंह ने साहित्य पत्रकारिता के हो रहे ह्रास पर अपने विचार रखे। उनका कहना था कि बाजारवाद के हावी हाने के कारण ही आज साहित्यिक पत्रकारिता इस स्तर पर पहुंची है। उन्होंने यह भी कहा कि संगोष्ठी में कई ऐसे मुद्दे उठे जिन पर आगे शोध या संगोष्ठियां हो सकती हैं। जानेमाने पत्रकार एवं कवि मंगलेश डबराल का कहना था कि पत्रकारिता इतिहास का पहला ड्राफ्ट होती है और साहित्यिक रचना अंतिम ड्राफ्ट होती है। उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में हत्या, बलात्कार, आपदा और झगड़े की खबरें भी मनोरंजन बन गई हैं। हिंदी पत्रकारिता हिंदी साहित्य से ही निकली है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर रघुवीर सहाय तक साहित्यकारों ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया। हिन्दी के जाने-माने कवि लीलाधर जगूड़ी ने कहा कि केवल बाज़ार को कोसने से कुछ नहीं होगा। बाज़ार तो हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति का अंग रहा है. यह भी सच है कि वैश्विक बाजार से हमारे स्थानीय बाज़ार को पंख लगे हैं। इसलिए बाजार का नहीं, अनैतिक बाजार का विरोध होना चाहिए। उन्होंने कहा कि महान साहित्यकारों ने भी पत्रकारिता के जरिये ही साहित्य में कदम रखे. उन्होंने मार्खेज और अर्नेस्ट हेमिंग्वे का उदाहरण देते हुए बताया कि किस तरह से पत्रकारिता में उन्होंने साहित्य का पहला पाठ सीखा. वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार राजकिशोर का कहना था कि साहित्य, पत्रकारिता और मीडिया तीन पीढ़ियां हैं। उन्होंने कहा कि यह भ्रम है कि साहित्य मीडिया को नहीं समझ सकता है। साहित्य में मीडिया पर कई किताबें लिखी गई हैं। जब से खबर देना पेशा बना है, तब से ही खबर देनेवाला अपने हितों को साधने के लिए इसे इस्तेमाल करने लगा है। साहित्य कपड़ा, खिलौना या फिल्म उद्योग की तरह नहीं है। यह समस्या को समझने में मदद करता है, समाज की समझ बनाता है। साहित्य में मनोरंजन कम नहीं है। साहित्य अतुल्य है। पत्रकारिता में यदि साहित्य नहीं होगा तो सिर्फ मनोरंजन ही रह जाएगा।
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