आचार संहिता/ वेद विलास उनियाल
राजनीति और पत्रकारिता का सम्बन्ध चोली-दामन का है. एक जमाना था जब राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखने वाले लोग ही पत्रकारिता में आते थे. चूंकि पत्रकारिता के पास ताकत है, इसलिए राजनीतिक दल भी चाहते हैं कि हर अखबार में, हर चैनल में उनकी विचारधारा वाले पत्रकार हों. किसी भी पत्रकार के लिए किसी ख़ास विचारधारा का अनुयायी होना कोई गलत बात नहीं होती. हाँ, गलत बात तब मानी जाती है, जब वह पत्रकार खबर लिखते हुए अपनी विचारधारा का प्रयोग करता है. जब भी चुनाव आता है, ऐसा देखने को मिलता है. पिछले दिनों दिल्ली चुनाव में भी यह खुल कर सामने आया. तभी अमर उजाला से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल ने अपने फेसबुक वाल पर राजनीति और पत्रकारिता पर दस सूत्रवाक्य लिखे थे, जो काफी मौजूं लगे. हमने उनसे अनुरोध किया कि वे इन सूत्रों को समझा कर लिख दें. हाजिर है वेद जी के विचार:
पत्रकार भी एक इंसान है। किसी राजनीतिक पार्टी की तरफ उसका झुकाव हो सकता है। आखिर वह भी मतदान करता है। किसी न किसी राजनीतिक दल को अपना वोट देकर आता है। किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपना रुझान रखना अलग बात है, और किसी राजनीतिक पार्टी के लिए समर्पित हो जाना और बात है। पत्रकार किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपने रुझान के आधार पर काम करता हुआ दिखे यह खतरनाक है।
1- ऐसे में पत्रकार अपनी रुझान वाली पार्टी की आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता। देखने में आया कि अगर किसी संदर्भ में उनकी पसंद की पार्टी की या उसके किसी नेता की किसी मसले पर आलोचना हो रही हो तो वह तुरंत अपनी टिप्पणी/ लेख से उस तथ्य को नकारने की कोशिश करता है। उसकी पूरी कोशिश होती है कि उसकी रुझान वाली पार्टी के प्रति किसी तरह का आक्षेप न लगे। कई बार वह ऐसे तर्क ढूंढता है कि अमुक घटना तो दूसरी पार्टियों के समय भी हुई थी। इसका फर्क यह होता है कि अगर किसी पार्टी पर कोई आक्षेप लगता है तो वह पत्रकार ढाल बनकर आने की कोशिश करता है। इस स्थितियों में घटनाओं को मोड़ने, उसके तथ्यों को हल्का करने की कोशिश होती है। किसी विषय पर अपनी राय बनाना, उसके संदर्भ में वाद-विवाद होना, टिप्पणियों के साथ अपने मत को रखना और बात है। लेकिन ढाल की तरह खड़े हो जाना और बात है। इसका नुकसान यह है कि मूल संदर्भ कई बार भटक जाता है। गंभीर आरोप हल्के लगने लगते हैं।
2- ऐसी परिस्थितियों में वह पत्रकार ऐसे तर्क ढूंढता है जिससे उसकी रुझान वाली पार्टी के विपरीत खडी पार्टी को दिक्कत हो। इसमें घटनाओ की तह में जाने के बजाय ऐसे तर्क तलाशे जाते हैं जिससे आप अपने रुझान वाली पार्टी के लिए मुश्किल पैदा करें। तर्क ढूंढना गलत नहीं। लेकिन कई बार बहुत हल्के तर्कों का सहारा लिया जाता है। बिहार के संदर्भ में देखेंगे तो नीतिश कुमार और मांझी की कशमकश में दोनों पक्षों के लिए कुछ ऐसे ही लेख-टिप्पणियां देखने को मिली। जबकि वहां की परिस्थितियों में नीतिश, मांझी , भाजपा, लालू अपनी-अपनी स्वभावगत कमजोरियों के साथ खड़े हैं। लेकिन साफ देखा गया कि मीडिया में अपने-अपने रुझान पर भी काम होता रहा। तीनों पक्षों के लिए अपनी-अपनी तरह से कहने वाले मिले। हमेशा नीतिश या हमेशा मांझी या हमेशा सुशील मोदी कैसे सही या गलत हो सकते हैं। घटनाओं के संदर्भ में कोई कभी गलत या सही हो सकता है। राजनीति में यह हो सकता है कि कि अचानक नीतिश शिवसेना की प्रशंसा करें, क्योंकि शिवसेना ने उनका पक्ष लिया, या भाजपा मांझी को समाज उद्धारक बताने लगे। लेकिन अपने पत्रकार भी इन चतुराई से भरे संदेशों में सुर मिलाएं तो यह अनुचित है। पत्रकारों को देखना चाहिए कि कब कौन राजनेता या उनकी पार्टी चालाकी से बयान देकर लोगों से खेल रही है। लेकिन ऐसे खास पत्रकार केवल उन्हीं संदर्भों को पकड़ते हैं जिसमें उनकी रुझान वाली पार्टी को सहूलियत हो। उसका कहीं कुछ फायदा हो।
4- ऐसे पत्रकार इस तरह की टिप्पणियां करते हैं ताकि रुझान वाली पार्टी को फायदा मिले। टीवी में इस तरह के पत्रकार नजर आ जाते हैं । बहुत चालाकी से वो ऐसी टिप्पणियां करते हैं कि उसका फायदा उनकी मनपंसद पार्टी को मिले। वो सीधे नहीं कहेंगे, पर घुमा फिरा कर इस तरह कहेंगे कि उनकी बात का फायदा उनकी पसंद की राजनीतिक पार्टी उठाए। जिन मुद्दों को उनकी पसंद की राजनीतिक पार्टी उठा रही है, वो उसे ही तूल देंगे। टीवी पर बहस में यह साफ झलकता है। ऐसे पत्रकारों की टिप्पणियां विचारात्मक लहजे में कही जाती है। लेकिन वह सहज नहीं होती। उसके पीछे पूरा जोड़-घटाना होता है। उनके कहे एक एक शब्द में छिपे हुए गूढ आशय होते हैं। टीवी के श्रोता या दर्शक उन्हें विचारों की तरह लेते हैं जबकि वे पूरी रणनीति के साथ कहे जाते हैं। वह विचार से ज्यादा एक योजना की तरह होते हैं। ऐसे पत्रकार अच्छी तरह जानते हैं कि उनके कहे शब्द कहां चोट कर रहे हैं और कहां उनके शब्दों से दिलों को थाह मिल रही है।
5- देखा गया कि जब रुझान वाली पार्टी के खिलाफ कोई बात हो, वह उसे टालता हुआ दिखता है। जबकि विपरीत पार्टी की आलोचना करनी हो तो वह क्रांतिकारी बन जाता है। बाडी लैंग्वेज अपने ढंग से काम करती है। इसी तरह अखबार के पन्नों पर भी शब्द कई बार करामात करते हुए दिखते हैं। जब उनकी रुझान वाली पार्टी किसी बात पर फंसती हुई नजर आती है तो वो भी राजनीतिज्ञों की शैली में कहते हुए दिख जाते हैं कि दूसरे क्या कम हैं। लेकिन जब उनके मिजाज के विपरीत वाली पार्टी किसी मसले पर फंसती है तो वह धारदार हो जाते हैं। जवाब आज दो अभी दो की मुद्रा में सजग पत्रकार बन जाते हैं। ऐसे पत्रकार बहुत जरूरी हो तब अपनी पसंद की पार्टी के किसी बड़े मसले पर भी हल्की सी टिप्पणी कर अपना पल्ला छुड़ा लेंगे। लेकिन मजमा तब जमाने की कोशिश करेंगे जब उन्हें दूसरी विपरीत पार्टी के खिलाफ कुछ कहना हो। ऐसे पत्रकारों में अक्सर विचारों का संतुलन नहीं दिखता है। वो एक पहलू पर दो पार्टियों के लिए अलग अलग राय बनाते हुए देखे जा सकते हैं। कई बार बहुत सावधानी से कुछ काम किए जाते हैं। जैसे नेहरू की कुछ आलोचना के साथ मोदी की आलोचना। लगेगा बड़ा ही पारदर्शी लेखन हैं आखिर नेहरू की भी तो आलोचना हो रही है। लेकिन यहां पत्रकार को पता रहता है कि अब नेहरू का कुछ नहीं बिगड़ना न इस लेख से कांग्रेस का बिगड़ना। लेकिन नेहरू के साथ साथ मोदी की जो आलोचना की जा रही है, उससे मोदी का काफी कुछ बिगड़ना है। इसी तरह राजीव के कुछ गुणों का वर्णन इस तरह होगा कि लगेगा कि यह तो राजीव गांधी की प्रशंसा में लेख है। लेकिन इसके पीछे की मनोदशा यह होगी कि राहुल आखिर राजीव गांधी क्यों नहीं बन पाया। गूढ़ में जाएंगे तो पाएंगे कि लेख राजीव गांधी की प्रशंसा नहीं कर रहा बल्कि राहुल गांधी की जमकर खिंचाई कर रहा है। लेख ऐसा भी दिख सकता है कि आपको लगेगा कि लालू यादव की राजनीतिक शैली की आलोचना हो रही है। लेकिन अंत होते होते उसका सार यही होगा कि एक हो कमियों को नजरअंदाज करें तो भारत को जमीनी स्तर पर तो इसी नेता ने समझा. यही नेता है जो वचिंतो गरीबों की आवाज है। लालू के कुछ हास परिहासों का जिक्र इस तरह से होगा मानों किसी बहुत भोले और एकदम ग्रामीण अनजाने से से इंसान की गुदगुदाती हुई कुछ बातें बताई जा रही हो।
5- ऐसे पत्रकार पूरी श्रद्धा के साथ अपनी रुझान वाली राजनीतिक पार्टी के विपरीत पार्टी के खिलाफ सामग्री जुटाने में व्यस्त रहता है। आप उनके जरिए जुटाए कार्टून, व्यंग चित्र, व्यंग टिप्पणियों पर गौर करें । फेसबुक किसी और संदर्भ में वो हमेशा एक ही पार्टी या उसके किसी नेता पर केंद्रित होंगे। ऐसे जुटाए कार्टून, कविता व्यंग उसकी रुचि का तात्कालिक विषय न होकर, अपनी रुझान की पार्टी के लिए एक सेवा की तरह होता है। अपनी रुझान वाली पार्टी के लिए यह एक तरह से अप्रत्यक्ष सेवा के रूप में होती है। जो मजाक, व्यंग राजनेताओं को दूसरों पर करना होता है वह पत्रकार उन्हें उपलब्ध कराता है। लेकिन जब यही वंयग चित्र आर के लक्ष्मण या सुधीर तेलंग या काक बनाकर समाज को सौंपते रहे हैं तो उसमें इस तरह का पक्षपात या खुरापात नहीं होती। वह घटना को पकड़ते हैं। उन्हें जहां व्यंग दिखा उसे पकड लिया। लेकिन ऐसे पत्रकारों को व्यंग दिखता नहीं, व्यंग की वो जतन से खोज करते हैं। उन्हें साफ पता होता है कि उनके व्यंग की दिशा कहां और किस पर होनी चाहिए।
7 ऐसा पत्रकार अगर अपनी रुझान वाली राजनीतिक पार्टी की आलोचना में कोई लेख या खबर विश्लेषण आदि लिखता है या टीवी पर कमेंट्स देता है तो उसमें आलोचना का पुट नहीं होता बल्कि वह सभंलने का सुझाव रहता है। शब्दों में अलग ढंग का अपनापन रहता है। कुछ इस तरह कि भाजपा को सुझाव दिया जा सकता है कि वह कश्मीर में पीडीएफ से संवाद में ज्यादा तल्खी नहीं रखे, कल साझा सरकार बनानी पड़ सकती है। या फिर इस तरह कि आप पार्टी को कहे कि जो गलत किया माफी मांगने में क्या जाता है सुझाव रहता है कि कांग्रेस की भी थोड़ी आलोचना कर लो। नितिश लालू के लिए सुझाव रहता है कि आप को बिहार बुलाओ एक महागंठबंधन बनाओ वरना अकेले केंद्र में नहीं आ पाओगे। कांग्रेस की कमियों पर हल्के हल्के सहलाया जाता है कि राहुलजी किन रास्तों से फिर वापस मुख्यधारा में आओगे। ऐसे सुझाव गलत नहीं । लेकिन सुझाव हमेशा एक ही राजनीतिक पार्टी के लिए हों या जहां तीखी आलोचना की जरूरत है वहां आलोचना सहलाते हुए सुझाव के रूप में दिखे तो थोड़ा चीजें भटकती हुई नजर आती है।
8 ऐसा पत्रकार अपनी रुझान वाली राजनीतिक पार्टी के लिए ऐसे तर्क गढ़ता है कि उस राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता भी हीन भावना से कुंठित हो जाएं। उन्हं अपने पद में बने रहने का संकट दिखने लगता है।
9 ऐसे पत्रकार इस बात की परवाह नहीं करते कि उसका लिखा पढकर या या उन्हें प्रवक्ता शैली में टिप्पणी करते हुए देखकर लोग क्या सोच रहे होंगे। शुरू में वह थोड़ी हिचक करता भी है लेकिन बाद में वह लोकलाज त्याग कर अपने काम में दक्ष हो जाता है। साथ ही ऐसे खास पत्रकार अपने कुछ अनुयायियों की एक टीम भी बना लेते हैं। जो फेसबुक , गोष्ठियों, आम कार्यक्रमों में उनके लिखे या कहे हुए की खूब प्रशंसा करते हैं। यही नहीं कहीं उनकी किसी बात पर असहमति देता हुआ दिखे तो ये सब पूरे आवेग से उस व्यक्ति या समूह के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। फिर उनका उद्घोष यही होता है कि इतने महान और बड़े पत्रकार पर इस तरह की टिप्पणी की जा रही है। या उसके बारे में कहा जा रहा है। आतंकित करने जैसा भाव भी पैदा किया जाता है। खबरदार जो उनके कमेंट्स पर या लेख पर कुछ कहा, जानते नहीं वो कौन हैं। कई एकलव्य और अर्जुन सामने आ जाते हैं। जिस राजनीतिक पार्टी के लिए वो अपना समय, श्रम और भावना का समर्पण कर रहे होंते हैं उसके कार्यकर्ता भी उस पत्रकार के लिए खड़े हो जाते हैं। उनकी विद्वता का बखान किया जाता है, उनके पत्रकारीय जीवन के कार्यों का उल्लेख किया जाता है। यह सब इसलिए कि संवाद न हो पाए। लोग खुल कर अपनी राय न जता सकें। उनके जरिए जो कहा जा रहा है, और जो लिखा जा रहा है उसे चुपचाप स्वीकार करें। न सुनना चाहें तो उस पर बहस न करें।
10- ऐसा पत्रकार अक्सर अपने किए हुए को कहीं न कहीं जरूर साबित कराता है। अपने लिखे को व्यर्थ नहीं जाने देता। बल्कि अपने रुझान वाली राजनीतिक पार्टी के आकाओं को उसका अहसास कराता है।