मीडिया/ रवीश कुमार
आपने न्यूज चैनलों पर रिपोर्टिंग कब
देखी है?
जिन चैनलों की पहचान कभी एक से एक
रिपोर्टरों से होती थी,
उनके रिपोर्टर कहां हैं? अब किसी खबर पर रिपोर्टर की छाप नहीं होती। रिपोर्टर का बनना एक
लंबी प्रक्रिया है। कई साल में एक रिपोर्टर तैयार होता है जो आस पास की खबरों से
आपको सूचित करता है। खोज कर लाईं गई खबरें गायब होती जा रही हैं। खबरों को लेकर
रिपोर्टरों के बीच की प्रतिस्पर्धा समाप्त हो चुकी है। ब्रेकिंग न्यूज उसी
प्रतिस्पर्धा का परिणाम था लेकिन अब सूचना की जगह बयान ब्रेकिंग न्यूज है। ट्वीट
ब्रेकिंग न्यूज है। क्या एक दर्शक के नाते आप चैनलों की दुनिया से गायब होते रिपोर्टरों
की कमी महसूस कर पाते हैं?
अगर रिपोर्टर नहीं हैं तो फिर आस पास
की दुनिया के बारे में आपकी समझ कैसे बन रही है? या आपको समझ बनानी
ही नहीं है?
इससे नुकसान किसका हो रहा है? आपका या रिपोर्टर का? चैनल अब भी
सर्वसुलभ जन संचार के माध्यम हैं। लेकिन इन पर क्या जन नजर आता है? क्या एक दर्शक के नाते आप देख पा रहे हैं कि आपके आसपास की दुनिया
कितनी सिमट गई है?
या आपको फर्क नहीं पड़ता है? खबरों को मार देने का लाभ क्या एक दर्शक को मिल रहा है? टीवी पर बहस ने खबरें लाने के कौशल को मार दिया है।
टीवी और ट्विटर में खास फर्क नहीं
रहा। टीवी के स्क्रीन पर ट्विटर की फीड को लाइव कर देना चाहिए। तर्क के जवाब में
तर्क हैं। फिर तर्क को लेकर समर्थन और विरोध है। फिर हर सवाल से जवाब गायब हो जाता
है। तर्क और बोलने के कौशल ने रिपोर्टरों की खबरों को समाप्त कर दिया है।
जब कोई दूर दराज या अपने ही शहर के
कोने कोने में नहीं जाएगा तो प्रशासन और सरकार की जवाबदेही कैसे तय होगी? क्या इन सब की मौज नहीं हो गई है? खबर आती नहीं कि
बयान देकर उसे बहस में बदल दिया जा रहा है। फिर दर्शक समर्थक में तब्दील हो जाता
है और पार्टी के हिसाब से बहस में शामिल हो जाता है। इस प्रक्रिया से सिस्टम की
मार झेल रहे तबके में हताशा फैल रही है। सूचना देने वाला तंत्र कमजोर हो रहा है और
कमजोर किया जा रहा है। सोशल मीडिया और चैनलों पर आकर फालतू सवालों से एक ऐसी
वास्तविकता रची जा रही है जो वास्तविक है ही नहीं।
लोग धरने पर बैठे हैं। लाठियां खा रहे
हैं। वो किससे बात करें। उनके लिए रिपोर्टर ही तो है जिसके जरिये वो सरकार और समाज
से अपनी बात बताते हैं। इस कड़ी को आप खत्म कर दें और आपको फर्क ही न पड़े तो
नुकसान किसका है?
आपका है। आप जो दर्शक हैं। अगर आप
दर्शक होने की जवाबदेही में लापरवाही बरतेंगे तो खुद को ही तो कमजोर करेंगे।
रोज रात को होने वाली बहसों पर आपने
कुछ तो सोचा होगा । क्या दर्शक होने की नियति पार्टियों का समर्थक या विरोधी होना
रह गया है?
आप दर्शक हैं या कार्यकर्ता हैं? आप जो इन बहसों को अनंत जिज्ञासाओं से देख रहे हैं उससे हासिल क्या
हो रहा है?
बहसें होनी चाहिएं लेकिन क्या सार्थक
बहस हो रही है?
जवाब देने से पहले विरोधी की मजम्मत
और सवाल पूछने से पहले पूछने वाले को विरोधी बता देना। इनसे भी लोकतंत्र समृद्ध
होता ही होगा लेकिन क्या आप देख नहीं पा रहे हैं कि रोज एक मुद्दा कैसे आ जाता है? कैसे जब तक पिछले मुद्दे की जवाबदेही तय होती अगले दिन कोई और
मुद्दा आ जाता है?
हम लगातार मुद्दों के पीछे भाग रहे
हैं। उन मुद्दों के पीछे जिनमें आपके पार्टीकरण की संभावना ज्यादा है। इन मुद्दों
को ध्यान से तो देखिये। तंत्र आसानी से रोज एक नए मुद्दे को रचता है। फेंकता है।
अगले दिन का मुद्दा दर्शक को याद रहता है न एंकर को। हर दिन मुद्दे की बहस में कोई
एक हारता है तो कोई एक जीतता है। इन बहसों के जाल में आपको फंसा कर आपके पीछे क्या
हो रहा है?
क्या आपको पता है? क्या आप जानना चाहते हैं? हर खेमे के लोग
फिक्स हैं। हर बात पर अपने तर्कों के कौशल से पहले पार्टीकरण करते हैं फिर हैशटैग
करते हैं और फिर ट्रेंड करने लगता है। ट्विटर और टीवी एक दूसरे के अनुपूरक हो गए
हैं। इस प्रक्रिया से कमजोर तबका गायब कर दिया गया है। उसकी आवाज कुचली जा रही है।
बहसों से जनमत बनाने के नाम पर जनमत की मौत हो रही है। ऐसे चैनलों की संभावना खत्म
नहीं होगी। जब तक लोकतंत्र में लोगों को मुर्दा बने रहने के लिए जिंदा होने का
भ्रम भाता रहेगा बहस की दुकान चलेगी। टीवी के जरिये तंत्र अपना विस्तार कर रहा है।
वो आपको अपने जैसा ओर अपने लिए बना रहा है।
चैनल तो चल ही रहे हैं। चलेंगे। हम भी
वही कर रहे हैं जो सब कर रहे हैं। किसी की नैतिकता किसी से महान नहीं है बल्कि मैं
आप दर्शकों से प्रसन्न हूं कि आपके लिए नैतिकता का कोई मतलब नहीं है। वो एक जरूरत
का हथियार है जो आप अपने विरोधी को लतियाने गरियाने के काम में लाते हैं। कुछ
लोगों का देश और समाज के विमर्श पर कब्जा हो गया है। एक नया तंत्र बन गया है। इस
कॉन्प्लेक्स में दर्शकों के बड़े हिस्से को शामिल कर लिया गया है । मैं इसे बदल
नहीं सकता और न क्षमता है लेकिन जो हो रहा है उसे अपनी समझ सीमा के दायरे से कहने
का प्रयास कर रहा हूं।
जो कमजोर हैं वो इस खतरे को कभी समझ
नहीं पायेंगे। वो एयरपोर्ट या मॉल में अचानक टकरा गए एंकर को रिपोर्टर समझ कर अपना
हाल बताने लगते हैं। ईमेल लेकर खुश हो जाते हैं। न्यूज चैनलों को मोटी मोटी
चिट्ठियां लिख कर खुश हो लेते हैं । शायद इंतज़ार भी करते होंगे । तीन तीन घंटे
बहस चलती है । आप देख रहे हैं । कभी रिपोर्टर भी ढूँढ लीजिये । कभी कोई चैनल
रिपोर्टर से बनता था अब एंकर से हो गया है । एंकर सेलिब्रेटी है। एंकर राष्ट्रवादी
है। सांप्रदायिक टोन में भाषण दे रहा है। उसके साथ आपकी सेल्फी है।
जमीन की खबरें गायब हैं। कहीं जयंती
तो कहीं पुण्यतिथि के नाम पर खबरों की रिसायक्लिंग हो रही है। फालतू का स्मरण हो
रहा है। स्मरण अब दैनिक कर्तव्य बन गया है। नेता भी ट्वीट कर स्मरण कर लेते हैं।
याद किया जाना एक रोग हो गया है। सेल्फी की तरह हो गया है रोज किसी दिवंगत को
राष्ट्रपुरुष बताना। ट्विटर पर रोज सुबह किसी की मूर्तियां लग जाती हैं। सब गुजरे
हुए महापुरुष को याद कर महापुरुष बन रहे हैं। टीवी और ट्विटर पर पॉलिटिकल जन्मदिन
की बाढ़ आ गई है। याद करना काम हो गया है। याद करना उसे नए सिरे से भुलाने का नया
तरीका है।
मैंने प्राय: न्यूज चैनल देखना बंद कर
दिया है। कह सकते हैं कि बहुत कम कर दिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी आस्था
इस माध्यम में नहीं है या इस माध्यम की उपयोगिता कम हो गई है। अगर ये सिर्फ बहस तक
सिमट कर रह जाएगा तो आप उन प्रवक्ताओं की समझ का विस्तार बनकर रह जायेंगे जो इन
दिनों उसी गूगल का रिसर्च लेकर आ जाते हैं जो एंकर लेकर आता है। गूगल रिसर्च की भी
मौत हो गई है। लिहाजा जवाबदेही से बचने का रास्ता आसान हो गया है।
मुझे इस बात का कोई दुख नहीं है कि
रिपोर्टर समाप्त हो रहे हैं। खुशी इस बात की है कि रिपोर्टर को इस बात का दुख नहीं
है। उससे भी ज्यादा खुशी इस बात की है कि आप दर्शक दुखी नहीं है। जागरूकता की
वर्चुअल रियालिटी में आप रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। मौज कीजिये। बहस देखिये।
कांव कांव कीजिये। झांव-झांव कीजिये। जनता का हित इसमें है कि वो अपने नेता के हित
के लिए किसी से लड़ जाए। नेता का हित किसमें है? उसका हित इसी में
है कि जब भी आप बहस करें सिर्फ उसके हित के लिए करें!
(साभार: रवीश कुमार के ब्लॉग 'नई सड़क' से)