School Announcement

पत्रकारिता एवं जनसंचार के विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए विशेष कार्यशाला

Thursday, January 29, 2015

हिन्दी ब्लॉगिंग: अभिव्यक्ति का अद्भुत माध्यम

नए क्षितिज/ बालेन्दु शर्मा दाधीच
वर्ष 2005 से हिन्दी ब्लॉगिंग में अपनी सक्रियता के नाते मैंने भी अनेक अवसरों पर कहा है कि ब्लॉगिंग साहित्य की एक स्वतंत्र विधा बन सकती है। किंतु आलोक कुमार रचित पहले हिन्दी ब्लॉग के बाद के 8 सालों में हम उसे 'विधा' बनाने में नाकाम रहे हैं। वह अभिव्यक्ति का जरिया बनी, विचार-विमर्श का माध्यम बनी, अपनी पहचान बनाने का मंच बनी और यहां तक कि उसने हिन्दी भाषा की तकनीकी प्रगति को भी गति दी, लेकिन साहित्यिक विधा वह नहीं बन सकी। वह बन जरूर सकती थी, यदि इसके लिए गंभीरता से प्रयास किए जाते। यदि हम अधिक से अधिक हिन्दी साहित्यकारों को इस ओर आकर्षित कर पाते।
यदि हम हिन्दी ब्लॉगिंग की विषयवस्तु, लेखन शैली, भाषा आदि पर संजीदगी के साथ कुछ वर्ष कार्य करते। यह कार्य सिर्फ ब्लॉगरों के स्तर पर होने वाला नहीं था। यह हिन्दी के साहित्यकारों, विद्वानों, भाषाशास्त्रियों आदि की सक्रिय भागीदारी से ही हो सकता था, भले ही वह अनौपचारिक किस्म की भागीदारी होती। किंतु हम एक विधा के रूप में उसके विकास की अपेक्षा अन्य दिशाओं में अधिक सक्रिय रहे। हालांकि यह सब करने पर भी संभवत: प्रश्न बने ही रहते, क्योंकि ब्लॉगिंग तो अभिव्यक्ति को बंधनों से मुक्त करने वाला माध्यम है, वह न जाने साहित्यिक विधा जैसे बंधन में बंधने को तैयार होती या नहीं। 
ब्लॉगिंग 'विधा' बन सकती थी, किंतु वह 'माध्यम' भर बन पाई। अपनी रचनाधर्मिता को दूसरों तक पहुंचाने का माध्यम। वैसे ही, जैसे कोई भी अन्य माध्यम है या हो सकता है, जैसे टेलीविजन, सिनेमा या नुक्कड़ नाटक। साहित्य से इन माध्यमों के लिए अंगीकृत की गई रचनाओं की बात छोड़ दें तो जिन रचनाओं को खासतौर से इन माध्यमों के लिए लिखा गया, उनमें से कितनी ऐसी हैं, जो उत्कृष्ट हिन्दी साहित्य की श्रेणी में गिनी गई हैं। उंगलियों पर गिनी जाने लायक। साहित्यिक विधाएं ये भी नहीं हैं, क्योंकि उनके लेखन की कोई स्पष्ट दिशा नहीं है, साहित्यिकता के मापदंडों पर वे पिछड़ जाती हैं। एक माध्यम के रूप में हमने ब्लॉग पर वही सब कुछ डाला, जो शायद किसी अन्य माध्यम में डालते, जैसे- कविता, कहानी, लेख, व्यंग्य, यात्रा वृत्तांत, समीक्षा, बाल साहित्य आदि-आदि। हमारे ब्लॉग साहित्य में भला अलग क्या है? उस 'अलग' का अलग से विकास किए जाने की जरूरत थी। पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली रचना को ज्यों की त्यों ब्लॉग पर डालकर हमने ऐसा कोई विशेष कार्य नहीं किया जिससे यह माना जाए कि ब्लॉग एक स्वतंत्र विधा बन गया है। यह सिर्फ एक माध्यम बना, एक अलग पाठक वर्ग तक पहुंचने का। 
दूसरी ओर रेडियो नाटक (रेडियो) और रिपोर्ताज (पत्रकारिता) आदि को देखिए जिनका विधाओं के रूप में पर्याप्त विकास हुआ है। ब्लॉगिंग की ही तरह ये सभी पारंपरिक (पत्रिका, पुस्तक) से इतर माध्यम थे किंतु वे साहित्य के साथ तारतम्य बनाने में सफल रहे।  
सौभाग्य से सोशियल नेटवर्किंग और माइक्रोब्लॉगिंग के दबावों के बावजूद ब्लॉगिंग को एक साहित्यिक विधा के रूप में विकसित करने के लिए संभावना पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। शुरुआत आज भी की जा सकती है। इसके लिए सबसे पहली जरूरत है ब्लॉगिंग के माध्यम की विलक्षण प्रकृति को समझने की, जो दूसरे माध्यमों से अलग है। 
इंटरनेट के पाठक सामान्य साहित्यिक पाठकों से अलग हैं। उनकी पृष्ठभूमि तथा भौगोलिक स्थित भी अलग है। साहित्य के पारंपरिक पाठक के विपरीत, वे स्वभाव से धैर्यवान नहीं हैं। इतना ही नहीं, इंटरनेट के माध्यम की शक्तियां भी दूसरे माध्यमों की तुलना में भिन्न एवं अधिक हैं। मिसाल के तौर पर एक ही पृष्ठ पर विभिन्न प्रकार की विषयवस्तु को समाहित करने, एकाधिक भाषाओं का प्रयोग संभव बनाने, पाठक के साथ सीधे संवाद करने और रचनाओं को निरंतर परिमार्जित करने की सरलता। 
इंटरनेट आधारित सामग्री के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना जरूरी है- पहली, एक बार पोस्ट करने के बाद उसे इंटरनेट से पूरी तरह हटा पाना लगभग असंभव है, क्योंकि इस बीच उसे किसी न किसी व्यक्ति द्वारा उसे सहेज लिए जाने, किसी अन्य पृष्ठ पर डाल दिए जाने, आरएसएस फीड जैसे माध्यमों से लोगों तक पहुंच जाने तथा सर्च इंजनों द्वारा कैश कर लिए जाने की संभावनाएं बहुत अधिक हैं। नेट पर इस सामग्री की मौजूदगी लगभग स्थायी है और आने वाले अनेक वर्षों बाद भी वह मौजूद रहेगी। लेखन के दौरान यह तथ्य ध्यान में रखा जाना जरूरी है। दूसरी जरूरी बात जिसका ध्यान रखा जाना चाहिए, वह है एक ही सामग्री का अनेक इंटरनेटीय ठिकानों पर, संचार के अनेक माध्यमों तक पहुंच जाना। बेहतर है, ब्लॉग लेखन इन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर हो। इंटरनेट की अपनी भाषा, कलेवर, संस्कार और सरोकार हैं जिनके साथ तालमेल बिठाना भी उतना ही जरूरी है।  
न हो अवास्तविक आकलन : ब्लॉगिंग का जिक्र करते समय हम अकसर उसका घालमेल इंटरनेट, तकनीक, हिन्दी सॉफ्टवेयरों और पोर्टलों तथा वेबसाइटों के साथ कर लेते हैं। उन सबकी सफलता को ब्लॉगिंग की सफलता करार देते हैं जबकि ब्लॉगिंग एक स्वतंत्र तत्व है। ये उपलब्धियां ब्लॉगिंग की वजह से नहीं हैं। उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, उनकी अपनी अलग विकास यात्रा है।  
हाल ही में एक पुस्तक के प्राक्कथन में पढ़ा कि लेखक ने रोमन में टाइप करते हुए हिन्दी में लिखने की सुविधा को ब्लॉगिंग की विशेषता के रूप में गिनाया था। यह सत्य नहीं है। ट्रांसलिटरेशन तो एक तकनीकी सुविधा है, वह ब्लॉगिंग की ताकत नहीं है। उसे आप ई-मेल से लेकर अपने दफ्तर के दस्तावेजों तक में इस्तेमाल कर सकते हैं। उसे हिन्दी ब्लॉगिंग की विशेषता नहीं माना जा सकता। तकनीक की दुनिया एक समानांतर दुनिया है जिसमें ऐसी सुविधाओं का विकास एक अनंत प्रक्रिया है। 
पिछले साल हिन्दी ब्लॉग जगत की उपलब्धियों के एक लोकप्रिय आकलन पर नजर पड़ी जिसकी शुरुआत ही 'अभिव्यक्ति-अनुभूति', 'हिन्दीनेस्ट', 'कविता कोश' आदि के जिक्र के साथ हुई थी। ये सब ब्लॉग कहां हैं? ये तो इंटरनेट पोर्टल और साहित्यिक वेबसाइटें हैं जिनकी एक अलग श्रेणी और पहचान है। उन्हें ब्लॉगों में कैसे गिना जा सकता है? ब्लॉग तो वे हैं, जो आपकी निजी वेब डायरी के रूप में दूसरों तक पहुंच रहे हैं। 
हिन्दी विकीपीडिया, वेबकास्टिंग, विभिन्न हिन्दी पोर्टल, साहित्यिक पत्रिकाओं के इंटरनेट संस्करण आदि भी ब्लॉग नहीं हैं। ब्लॉगिंग के आकलन के समय ध्यान रखना चाहिए कि इंटरनेट पर मौजूद हर हिन्दी सुविधा या हिन्दीगत ठिकाना 'ब्लॉग' नहीं है। 'न्यू मीडिया' शब्द का इस्तेमाल भी ब्लॉग के संदर्भ में धड़ल्ले से किया जा रहा है। 
'न्यू मीडिया' सिर्फ ब्लॉग नहीं है। वह तो हर डिजिटल युक्ति में दिखने वाला हर किस्म का कन्टेंट है। वेबसाइटें, पोर्टल, ई-कॉमर्स, ई-गवर्नेंस, सीडी, डीवीडी, आई-पॉड पर चलने वाले गाने, यू-ट्यूब के वीडियो और यहां तक कि ई-मेल भी 'न्यू मीडिया' के दायरे में आती हैं। ब्लॉग तो उसका बेहद, बेहद छोटा हिस्सा है। वैज्ञानिक तथा तकनीकी अवधारणाओं के संदर्भ में जागरूकता और बढ़ाने की जरूरत है। जैसे अभिव्यक्ति और सामाजिकता की इस स्वत:स्फूर्त धारा को आप न तो अनुशासित कर सकते हैं और न ही बलपूर्वक इस या उस दिशा में ले जा सकते हैं, क्योंकि यह अनौपचारिकता और आजादी ही इसकी ताकत है। 
ब्लॉग पर मौजूद खराब, कम गुणवत्ता की सामग्री भी इस माध्यम के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि उच्च कोटि की साहित्यिक या वैज्ञानिक सामग्री, क्योंकि यहां मुद्दा हर व्यक्ति को एक उपकरण मुहैया कराने का है। वैसे ही जैसे मोबाइल फोन या ई-मेल है। हम यह कहां कहते हैं कि फलां व्यक्ति मोबाइल फोन पर गालियों का प्रयोग कर रहा था, उसे ऐसा करने से रोको नहीं तो मोबाइल तकनीक के साथ अन्याय होगा। लेकिन हम यदा-कदा इस तरह की चिंताएं भी कर लेते हैं कि 'हिन्दी ब्लॉगिंग में बहुत से अयोग्य व्यक्तियों का प्रवेश हो गया है। इससे बचने के लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि सुयोग्य लोग ही ब्लॉगिंग करें।' या फिर 'अभिव्यक्ति की परम आजादी खतरनाक है और ब्लॉग लेखन का नियमन होना चाहिए' जब विश्वव्यापी वेब का विकास करने वाले टिम बर्नर्स ली और डिफेंस एडवांस रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी (दारपा) ही वेब के प्रयोग को 'अनुशासित' या 'नियमित' नहीं कर पाए तो भला हम जैसे वेब के 'प्रयोक्ता' उसे कैसे काबू करेंगे? महज 8-10 साल की छोटी-सी अवधि में हिन्दी ब्लॉगिंग ने संघर्ष, उत्कर्ष और ठहराव के तीन काल खंडों को जिया है।

तीनों दौर के अलग-अलग इन्फ्लुएंसर, अलग-अलग चुनौतियां, अलग-अलग ज्वलंत मुद्दे, अलग-अलग किस्म की उपलब्धियां, सफलताएं और उतनी ही अलग नाकामियां रही हैं। हम में से अधिकांश हिन्दी ब्लॉगरों के लिए यह माध्यम एक वरदान के रूप में आया जिसने अनायास ही अभिव्यक्ति के ऐसे फ्लडगेट्स खोल दिए जिनकी प्रतीक्षा रचनाकर्म में जरा-सी भी दिलचस्पी रखने वाले हर एक हिन्दी भाषी को थी इसीलिए ज्यादातर ब्लॉगरों ने इस माध्यम को मुग्धता के भाव से देखा है, एक किस्म की रूमानियत, आत्मीयता और यहां तक कि पजेसिवनेस के साथ लिया है।

जिस माध्यम को हम देखते, पढ़ते, गुनते और जीते रहे हैं तथा जिसने हमें पहचान दिलाई है, उसके प्रति समर्पण और मोहभाव अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन यह मुग्धता और पजेसिवनेस हमें एकांगी न बना दे, इस बात को लेकर सतर्क रहने की जरूरत है। हिन्दी ब्लॉगिंग की वास्तविक समालोचना तभी संभव है, जब उसे रिटोरिक से मुक्त होकर संतुलित दृष्टिकोण के साथ देखा जाए। उस पर न सिर्फ समग्रतापूर्ण दृष्टि डाली जाए, बल्कि अन्य भाषाओं के साथ तुलनात्मक नजरिए से भी देखा जाए। 
इसे भी देखें: http://hindi-blogging-guide.blogspot.in/

साभार: http://hindi.webdunia.com/media-manthan/literature-114112800082_1.html
अभ्यास: पत्रकारिता और जनसंचार के सभी छात्रों से अनुरोध है कि वे अपना ब्लॉग बनाएं. 

Wednesday, January 28, 2015

पत्रकारिता: ग्लैमर और जोखिम के बीच झूलता पेशा

पेशावर में पत्रकारों के लिए ट्रौमा सेंटर
सुरेन्द्र प्रताप सिंह 
इसमें कोई दो राय नहीं कि पत्रकारिता का काम बहुत जोखिम भरा और मुश्किल होता है. बेशक इसमें ग्लैमर है, नाम है, प्रतिष्ठा है, पर मुश्किलें भी कम नहीं हैं. दुनिया भर में पत्रकारों को कई बार बड़े मुश्किल हालात में काम करना होता है. कई बार रिपोर्टिंग करते करते वे खुद अवसाद के दौर में चले जाते हैं. 16 जून 1996 की बात है जब आजतक के संस्थापक सम्पादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह आजतक पर खबरें पढ़ रहे थे. उस दिन दिल्ली के उपहार सिनेमा पर अग्निकांड हुआ था. इतने भयावह दृश्य थे कि सुरेन्द्र जी का संवेदनशील मन सहन नहीं कर पाया. दूसरे दिन सुबह उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ और कुछ दिन बाद ही उनका निधन हो गया. कहने का मतलब यह है कि पत्रकारिता के पेशे में आने वालों का जिगर मजबूत होना चाहिए.
बीबीसी की शुमैला जाफरी ने खबर दी है कि इस तरह की परिस्थितियों से जूझने वाले पत्रकारों के लिए जर्मन संस्थान डीडब्ल्यूअकादमी के वित्तीय सहयोग से पेशावर यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग ने एक ट्रौमा सेंटर स्थापित किया है. पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर हमले की कवरेज़ के बाद ही पेशावर में पत्रकारों को इस ट्रॉमा सेंटर में मनोवैज्ञानिक मदद के लिए जाना पड़ा. पेशावर के ज़ीशान उन नौ पत्रकारों में से एक हैं जो अब तक ट्रॉमा सेंटर से लाभान्वित हो चुके हैं.
पाकिस्तान दुनिया भर में पत्रकारों के लिए एक अत्यंत ख़तरनाक देश माना जाता है. जहां उन्हें केवल जान के जोख़िम का ही सामना नहीं करना पड़ता है बल्कि वे आर्थिक असुरक्षा के कारण भी गंभीर मानसिक दबाव का शिकार हैं. पत्रकारों को उनकी मानसिक स्थिति की गंभीरता के हिसाब से रोजाना या साप्ताहिक सत्र के लिए बुलाया जाता है. एक वेबसाइट 'साउथ एशिया टेररिज़्म' के अनुसार केवल पिछले साल पेशावर में 169 हमले और विस्फोट हुए.
ट्रौमा सेंटर के प्रमुख अल्ताफ़ ख़ान कहते हैं, "इस क्षेत्र में मानसिक दबाव को गंभीरता से नहीं लिया जाता है. एक तो हम यह चाहते थे कि पत्रकारों में यह क्षमता पैदा हो कि वह किसी भी हिंसक कार्रवाई की कवरेज पर जाने से पहले खुद को इसके लिए तैयार कर सकें." ट्रॉमा सेंटर में इलाज के लिए पत्रकार सीधे संपर्क कर सकते हैं. हालांकि इस हवाले से प्रेस क्लब भी ट्रॉमा सेंटर के साथ काम कर रहा है. परियोजना शुरू करने से पहले आशंका थी कि शायद पत्रकार मनोचिकित्सा से जुड़े सामाजिक प्रभाव के कारण इस परियोजना में कोई अधिक रुचि न लें लेकिन अल्ताफ़ ख़ान पत्रकारों प्रतिक्रिया से संतुष्ट हैं.
वे कहते हैं, "मैं चाहूंगा कि महिला पत्रकार भी हमारे पास आएं. एक तो क्षेत्र में महिलाओं पत्रकारों की संख्या कम है. दूसरा मनोचिकित्सा करवाने को लेकर महिलाओं का सामाजिक व्यवहार भी बहुत उत्साहजनक नहीं है." पेशावर के पत्रकार तो हर क्षण किसी हिंसक कार्रवाई की चपेट में हैं. हालांकि पाकिस्तान के दूसरे शहरों में भी जान की सुरक्षा, वित्तीय कठिनाइयां और काम के बेतहाशा बोझ तले दबे पत्रकारों की स्थिति भी अधिक अलग नहीं है. (बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम से साभार)


Saturday, January 24, 2015

अच्छा फीचर कैसा हो?

वर्चुअल क्लास/ गोविन्द सिंह 
प्यारे साथियो,
हम यहाँ अमर उजाला के रविवारीय परिशिष्ट में छपा एक फीचर दे रहे हैं. इसे आप ज़रा ध्यान से पढ़िए. इसमें मार्शल आर्ट की एक विधा पार्कुर के बारे में बताया गया है. इससे पहले मुझे भी इस विधा के बारे में जानकारी नहीं थी. यानी इसमें समाज की एक नई प्रवृत्ति के बारे में बताया गया है. और सच बात यह है कि एक छोटे से शहर के युवा इस कला में महारत हासिल कर रहे हैं, जो फिल्मों में काम कर रहे हैं, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में मैडल जीत रहे हैं और अपना व देश का नाम रोशन कर रहे हैं. है न कमाल की बात. इस तरह यह फीचर एक तरफ समाज में आ रहे एक सकारात्मक बदलाव के बारे में भी बता रहा है और पाठकों के मन में एक उत्सुकता भी जगा रहा है. साथ ही युवाओं में प्रेरणा भी पैदा कर रहा है. यानी फीचर का विषय बहुत ही मौजूं है. इसकी भाषा-शैली भी रोचक है. कहानी की तरह इसमें रोचकता बनी रहती है. इसके फोटो विशेष रूचि जगाते हैं. फोटोओं को इस तरह से पेज में सजाया गया है कि पाठक की दिलचस्पी बढ़ जाए. इसलिए इसे पढ़िए, इसकी अच्छाइयों और कमियों पर सोचिए और हमें टिप्पणी लिख भेजिए. साथ ही अपने आसपास के माहौल पर भी पैनी नजर रखिए. यदि आपके आसपास भी ऐसा कुछ हो रहा हो तो उसे अपने फीचर का विषय बनाइए.
अभ्यास: इसके आधार पर बताइए कि एक अच्छे फीचर की क्या-क्या विशेषताएं होती हैं?  
-आपका, प्रो. गोविन्द सिंह, पत्रकारिता एवं मीडिया अध्ययन विभाग.  

Days of bans are over

मित्रो, पिछले दिनों हमने  केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली  के पत्रकारिता  पर दिए अभिभाषण के कुछ अंश हिन्दी में दिए थे. यहाँ अंग्रेज़ी भाषण  के अंश दे रहे हैं:
Constitution gives a pre-eminent position to free speech, media must utilise this with care
January 24, 2015 The issue of media freedom is today beyond any form of debate. Article 19(1)(a) guarantees freedom of expression. In India — unlike in some other jurisdictions — free speech in terms of freedom of Press, is not a separate right and it is included in the larger ambit of freedom of expression. And those who drafted the Constitution, created an exception.
The exception was, that whereas in relation to other fundamental rights, you had a general exception of what is reasonable, could be restricted on the fundamental right — the generalised restriction was not there in the context of free speech. So, free speech was given a more elevated status, and you only define 6 or 7 circumstances on account of which there could be a restriction on free speech. So, a general concept that there is a reasonable restriction against free speech, is no longer a valid consideration.
This preeminent position which has been given, has now to be utilised by media with great circumspection. This is particularly because media now forms the eyes and ears as far as citizens are concerned, it also has a very powerful impact.
The second important aspect is, that whereas the Supreme Court laid down the law of freedom of speech and freedom of Press — in context of other fundamental rights, we have had our up and downs; the habeas corpus case was a low point as far as personal life and liberty is concerned. But in relation to Article 19(1)(a), consistently with every judgment, the predominant thrust of the Supreme Court has been to protect, preserve and to expand the right of freedom of speech and freedom of Press. And therefore, we rarely have a view taken by the judicial institution which curtails the right as far as free speech is concerned.
Today, this right extends not merely to your right to report — but its horizons have been widened: What should be the size of a newspaper? The court said that the government can’t restrict it. What should be the volume of advertisements vis-a-vis news in a newspaper? The court said the government can’t get into it. What should be the extent of taxation on a newspaper? Now, any form of taxation is normally upheld, unless it is confiscatory in character. But in case of 19(1)(a), if the impact of unreasonable taxation is to compel a medium to raise its cost and reduce its circulation, it impinges on 19(1)(a). So whereas taxation generally would be judged on principles of Article 14 and 19(1)(g), taxation judged in the context of 19(1)(a) is entirely different.
And therefore, the distinction between content of a medium and business of the medium has also been obliterated. Is the business of a newspaper or a news channel entirely 19(1)(g)? The answer is “No”, to the extent that if you pinch the pockets of a newspaper or a news channel, and therefore, infringe on its free speech, you impact adversely on Article 19(1)(a). And therefore, the business itself can’t be segregated as far as free speech is concerned. The right to know, the right to information — these are all the rights which have been read into Article 19(1)(a) with its horizons today expanded.
What are the threats today? Traditionally, a newspaper or a channel could be banned. The days of bans are over. You can censor a medium; in fact, part of the fear that was created during Emergency was on account of the censorship of newspapers itself. But today, technology has made censorship an impossibility. So assuming there was Emergency imposed today under Article 352, the impact of censorship would be nil. Because the satellite itself defies geographical boundaries — emails don’t honour it, the fax machine doesn’t honour it.
And therefore, what had to be secretly distributed as Emergency literature, would today be freely available all over the country. And the more you ban, greater would be the curiosity to access that material! So the threats really are no longer such great external threats. You may have odd cases where the state itself takes extra interest in setting up its own medium. But the threats that are coming now — i would use the word “challenges” rather than “threats” — are within, on account of the nature of the medium itself.
As far as the sense of responsibility is concerned, it is difficult to define this. Justice Ravindran mentioned that the government would try and discipline those who are outside the scope of the self-regulatory mechanism. I find it extremely difficult, because it may have its own pitfalls if the government got into the business of starting to discipline media organisations. I would be more comfortable if viewers or readers decided to disapprove if they find media way off the mark. Rather than government step in and tell media what to report and what not to report, i’d rather that viewers — just with the power of the remote in their hands — decide to switch to something else. (Courtesy: The Times if India)
Excerpts from Justice JS Verma Memorial Lecture by Arun Jaitley, Union Minister of Finance, Company Affairs, Information & Broadcasting. The full speech can be accessed at https://www.youtube.com/watch?v=JwOIpNovCTk and https://www.youtube.com/watch?v=5gi1_nUWaAg


Tuesday, January 20, 2015

खबर के बदलते मानदंड

मीडिया/ आकार पटेल
भारत में मीडिया के काम करने के तौर तरीक़े, उसका रवैया और उसके सरोकार हमेशा से बहस का मुद्दा रहे हैं. कॉरपोरेट पूँजी का दखल, संपादकीय मूल्य, ख़बरों की परिभाषा, ये तीन ऐसी चीजें हैं, जिनके इर्द-गिर्द सब चलता रहता है. ख़बर किस पर लिखी जा रही है, किनके लिए लिखी जा रही है, क्यों लिखी जा रही है, ये उतने ही अहम सवाल हैं, जितना किसी ख़बर का बिकाऊ होना. प्रस्तुत है बीबीसी हिन्दी वेबसाईट के लिए वरिष्ठ पत्रकार आकार पटेल का लिखा यह विश्लेषण:  
इस हफ्ते अख़बारों में छपी दो सुर्खियों ने मुझे चौंका दिया. पहली हेडलाइन भारतीय जनता पार्टी के सांसद फ़िरोज वरुण गांधी के एक लेख का था. लेख का शीर्षक था, "एन अनसर्टेन हॉबेसियन लाइफ़." वरुण गांधी ने इस लेख में भारत में खेती-बाड़ी की स्थिति का विश्लेषण किया है और लेख का अंत इस निष्कर्ष के साथ होता है कि भारत के सीमांत किसानों की स्थिति सदियों से ख़राब बनी हुई है. और उनमें से कई एक हॉबेसियन या अविश्वास और डर के साये में गरीबी से भरी ज़िंदगी हाशिए पर जी रहे हैं. दूसरी हेडलाइन उस महिला की मौत से संबंधित थी जो 30 करोड़ की संपत्ति की मालकिन थी और उनकी मृत्यु देखभाल न होने के कारण हुई थी. बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसके लिए सरकार को फटकार लगाई थी.
कहानी कुछ ऐसी थी कि नाराज़ बॉम्बे हाईकोर्ट ने 68 साल की महिला की मृत्यु के मामले की सुनवाई करते हुए सरकार की खिंचाई की थी जिसके पास वर्सोवा के यारी रोड पर 30 करोड़ की जायदाद थी लेकिन उपेक्षा के कारण उनकी मृत्यु हो गई. वर्सोवा शहर का एक उपनगरीय इलाक़ा है जहां अधिकांश आबादी धनाढ्यों की है.
हाई कोर्ट ने कहा, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि न तो उनके परिवार वालों ने और न ही सरकार ने उनकी देखभाल की, जबकि वरिष्ठ नागरिकों की भलाई के लिए बनाया गया एक क़ानून उनके लिए मेडिकल सहायता और वृद्धाश्रमों का प्रावधान करता है." दूसरे वरिष्ठ नागरिकों को इस तरह की स्थिति का सामना न करना पड़े, इसके लिए हाई कोर्ट ने मेंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ़ पैरेंट्स एंड सीनियर सिटीज़ंस एक्ट, 2007 के प्रावधानों की समीक्षा किए जाने की भी इच्छा जताई. मृतक महिला का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील ने कहा कि वो पिछले पांच सालों से बेहद तकलीफ की स्थिति में थीं. ये हाल किसी और का नहीं होना चाहिए.  उन्होंने कहा कि नए क़ानून के तहत वरिष्ठ नागरिक को नज़रअंदाज करने वाला व्यक्ति उस बुजुर्ग की संपत्ति का अधिकारी नहीं है. हालांकि कोर्ट ने इस ओर ध्यान दिलाया कि पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट से महिला की मौत कुदरती लगती है.
हेडलाइन में जो सबसे ख़राब बात थी वो ये थी कि इससे ऐसा लगता था कि किसी समृद्ध महिला का ये अंजाम इस तरह नहीं होना चाहिए था. एक ऐसे देश में जहां गांधी का ये कहना था कि लाखों लोग गुजर-बसर के लिए रोज संघर्ष कर रहे हैं, वहां मीडिया की नज़र धनाढ्य लोगों पर ही रहती है. कुछ हद तक ये कहा जा सकता है कि सारी दुनिया में ऐसा ही ढर्रा है कि मशहूर और क़ामयाब लोगों की ज़िंदगी को मीडिया कवरेज के लिहाज से ज़्यादा तवज्जो दी जाती है.
भारत में इसे खींच कर सम्पन्न और मध्यवर्ग तक कर दिया गया है और अक्सर आबादी का एक बड़ा हिस्सा इससे बाहर हो जाता है. भारत में दुनिया भर में सबसे ज़्यादा सड़क हादसे होते हैं लेकिन इससे जुड़ी ख़बरों की हेडलाइन बनती है 'बीएमडब्ल्यू एक्सीडेंट' क्योंकि एक फ़ैशनेबल महंगी कार को ज़्यादा कवरेज के लायक माना जाता है.  इसे बहुत ख़तरनाक़ स्तर का माना जाता है क्योंकि जो हमारे अख़बारों से परिचित हैं, वे उसे सही ठहराएंगे. इसका दूसरा उदाहरण है बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के कर्मचारियों की ख़बरें. अक्सर ज़्यादातर सॉफ्टवेयर कारोबार से जुड़ी कंपनियां विज्ञापनों में ज़्यादा जगह नहीं घेरती हैं.
अगर किसी बड़ी कंपनी में एक लाख से ज़्यादा कर्मचारी हैं तो इतने बड़े संस्थान में ख़ुदकुशी, बलात्कार, हिंसा या चोरी के मामले भी उसी अनुपात में होंगे जितना सामान्य तौर पर महानगरों में होते हैं और अक्सर कंपनी के कामकाज से इन घटनाओं का कोई लेना-देना नहीं होता. लेकिन भारत में मीडिया उसकी हेडलाइन कुछ इस तरह से लगाता है, 'इंफोसिस कर्मचारी ने ख़ुदकुशी की', 'विप्रो कर्मचारी की आत्महत्या'.
मीडिया का तर्क यह हो सकता है कि नौकरी के कॉरपोरेट संस्थान का ज़िक्र ख़बर को दिलचस्प बनाता है, लेकिन अगर आप 'रिलायंस कर्मचारी की ख़ुदकुशी' की ख़बर खोजने की कोशिश करें तो आपको नाकामी ही मिलेगी. रिलायंस में भी बहुत बड़ी तादाद में लोग काम करते हैं तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि उसके कर्मचारियों के जीवन में हिंसा, बलात्कार या आत्महत्या जैसी घटनाएँ होती ही नहीं.
मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि मीडिया को ऐसी ख़बरों में रिलायंस का नाम जोड़ देना चाहिए बल्कि केवल सॉफ्टवेयर कंपनियों का नाम जोड़ना ग़लत है जब तक कि मामले का ताल्लुक कंपनी के कामकाज से न हो. दूसरे मामलों में भी इस तरह की चुनिंदा रिपोर्टिंग की समस्या देखी जाती है.
भारत में हर साल बलात्कार के लगभग 25 हज़ार मामले दर्ज होते हैं. पश्चिम के कई देशों की तुलना में ये आंकड़े कम हैं. लेकिन मीडिया इन घटनाओं की रिपोर्टिंग के वक्त उस वर्ग के पीड़ितों को अधिक तवज्जो देता है जो उसे ज़्यादा खास लगते हैं. एक टैक्सी में हुए बलात्कार की घटना की रिपोर्टिंग अनुपात से ज़्यादा हो जाती है और उसी शहर के किसी और कोने में हुए वैसे ही अपराध की ख़बर देने के तरीक़े में फर्क आ जाता है. मीडिया मध्यवर्गीय भारत की उस भावना से बाहर नहीं निकल पाता कि गरीबों की ज़िंदगी कवरेज के लिहाज से उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि उनका जीवन थॉमस हॉब्स के शब्दों में 'गंदा और पाशविक' है. (19 जनवरी, 2015 से साभार.) 

Sunday, January 18, 2015

सेंसरशिप ठीक नहीं, पर मीडिया खुद भी तो सोचे

सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने 18 जनवरी, 2015 को नई दिल्ली में जस्टिस जे एस वर्मा मेमोरियल लेक्चर में 'मीडिया की स्वतंत्रता और जवाबदेहीविषय पर एक महत्वपूर्ण भाषण दिया. इस भाषण में जेटली ने कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर सवाल उठाये हैं. हम यहाँ उनके भाषण की 10 प्रमुख बातें दे रहे हैं. हम चाहते हैं कि आप भी इन्हें पढ़िए: 
1. प्रतिबंधों का दौर अब ख़त्म हो चुका है. किसी भी सरकार के लिए सेंसरशिप लगाना संभव नहीं. कैमरे ने ख़बरों की परिभाषा बदल दी है.
2. मीडिया नागरिकों के लिए आंख और कान है लेकिन टीआरपी की वजह से ख़बरों की कवरेज पर असर पड़ता है.
3. मीडिया की अनियंत्रित रिपोर्टिंग की वजह से ही भारत के विभिन्न हिस्से में रह रहे पूर्वोत्तर छात्रों को अपने गृह राज्य में वापस जाना पड़ा.
4. भारतीय मीडिया अपनी सीमाओं का पालन नहीं करता और मीडिया ट्रायल ज़रूर ख़त्म होना चाहिए.
5. मीडिया को अदालत में विचाराधीन मुद्दों, किसी आतंकी घटना या किसी व्यक्ति की निजी जिंदगी से जुड़ी ख़बरों को कवर करते वक़्त सावधानी बरतनी चाहिए.
6. मीडिया में अभी एफडीआई बढ़ाने का फ़ैसला नहीं हो पाया है.
7. मीडिया के दूसरे माध्यमों की तुलना में डिजिटल मीडिया ज़्यादा असरदार है लेकिन यहां भी तथ्यों की पुष्टि के मानक का संकट है.जेटली ने कहा कि मीडिया को ख़बरों की कवरेज में सावधानी बरतनी चाहिए
8. प्रसारण क्षेत्र में अत्याधुनिक तकनीक ने भी अपनी चुनौतियां पेश की हैं और भविष्य में इसके विकास की गति का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है.
9. मीडिया पहले की तुलना में ज़्यादा मजबूत हुई है. पत्रिकाओं के सामने सबसे ज़्यादा चुनौती है. सोशल माध्यम ने मीडिया का स्वरूप बदल दिया है.
10. पहले मीडिया कुछ ग़लत कहता था तो निराशा होती थी लेकिन अब हम कोई चिंता नहीं करते.
(साभार: बीबीसीहिन्दी.कॉम).  


Saturday, January 17, 2015

सफल जनसंपर्क अधिकारी कैसे बनें?

कैरियर काउंसिलिंग/ राजेन्द्र सिंह क्वीरा
आज हर क्षेत्र में विशिष्टीकरण हो रहा है. इसी के चलते रोजगार के क्षेत्र में अनेक नवीन संभावनाएं बढ़ रही हैं, चाहे वह संपर्क स्थापित करने जैसा कार्य ही क्यों न हो! प्रत्येक संस्थान को अपने कार्य को पूर्ण कुशलता के साथ करने के लिए एक ऐसे माध्यम की आवश्यकता हो रही है जो संस्थान की आवश्यकताओं को विभिन्न संपर्कों के माध्यम से पूरा कर सके। इस कार्य को करने वाले को आज जनसम्पर्क अधिकारी यानी पीआरओ का नाम दिया गया है। वास्तव में अगर हम देखें तो यह पद किसी भी संस्थान के लिए कठिन समय में प्राणवायु का काम करता है। अर्थात सरकारी हो या निजी संस्थान, जनसंपर्क अधिकारी के माध्यम से हर विभाग अपनी साख बनाने का काम करता है।
पीआरओ के गुण 
आज हर क्षेत्र में पीआरओ की आवश्यकता महसूस की जा रही है, चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र हो अथवा फिर निजी। जनसंपर्क अधिकारी प्रबंधन एवं कर्मचारी वर्ग के मध्य सेतु की भूमिका अदा करता है। जिससे हित संघर्ष जैसी अनेक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। साथ ही एक पीआरओ एक संस्थान से दूसरे संस्थान व आम जनता में जनसंपर्क स्थापित करने का कार्य करता है। इस प्रकार पीआरओ दो कड़ियों के बीच एक सेतु का कार्य करता है। जनसंपर्क अधिकारी (पब्लिक रिलेशन ऑफिसर) किसी भी संस्था के लिए सूचना सहायक के रूप में भी कार्य करता है। वह प्रेस रिलीज आदि प्रचार सामग्री को विकसित करने का कार्य करता हैं। जनसंपर्क अधिकारी के माध्यम से कोई भी व्यक्ति संस्था संबंधी जानकारी प्राप्त कर सकता है। साथ ही तमाम संचार माध्यमों और संस्थान के बीच की कड़ी भी होता है. जब किसी पत्रकार को किसी संस्थान के बारे में सूचना चाहिए होती है, तब वह सबसे पहले पीआरओ के पास ही जाता है.
इस पद के बढ़ते महत्व के कारण ही युवा वर्ग का ध्यान इस ओर तेजी से आकर्षित हुआ है। जनसंपर्क अधिकारी सरकारी व गैर सरकारी दोनों प्रकार के विभागों से निरंतर संपर्क में रहता है। पहले जनसंपर्क अधिकारी के लिए कुछ विशेष योग्यता नहीं हुआ करती थी, किन्तु अब कंपनियां अपनी छवि को उजागर करने के लिए कल्पनाशील, चतुर, निपुण व तेजतर्रार लोगों का चयन करती हैं, जिन्हें पत्रकारिता का भी ज्ञान हो. इसलिए अक्सर व्यवहार कुशल, हंसमुख व जागरूक लोग ही इस पद पर सफल हो पाते हैं।
आज देश के कई सरकारी व निजी संस्थान इससे संबंधित पाठ्यक्रम संचालित कर रहे हैं। इन पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए योग्यता प्रायः स्नातक होती है। जनसंपर्क अधिकारी बनने के लिए सामान्य ज्ञान तथा भाषा पर पकड़ होना आवश्यक है, ताकि बदलते परिवेश की प्रत्येक जानकारी को नजर में रखा जा सके। इस पद की बढ़ती मांग को देखते हुए कई सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों द्वारा जनसंपर्क अधिकारी संबंधी पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे है, जहां उन्हें एक अच्छे व कुशल जनसंपर्क अधिकारी बनने के गुर सिखाये जाते हैं तथा उनकी भाषा शैली व व्यक्तित्व का विकास किया जाता है। कई संस्थानों में जनसंपर्क को ही एक पृथक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है तो कुछ संस्थान इसे विज्ञापन और विपणन (मार्केटिंग) के साथ पढ़ाते हैं।
जन संपर्क विभाग की संरचना 
इस क्षेत्र में जनसंचार (मास कम्युनिकेशन), पत्रकारिता, कानून, शिक्षण, मनोविज्ञान तथा एमबीए आदि से जुड़े लोग भी आने लगे हैं। अब बड़े-बड़े निजी शिक्षण संस्थान भी यह पाठ्यक्रम करवाने लगे हैं। जनसंपर्क की शिक्षा डिप्लोमा या डिग्री के रूप में दी जाती है। निजी व सरकारी दोनों प्रकार के संस्थान छात्रों को कुछ समय के लिए विभिन्न उपक्रमों व कंपनियों में ट्रेनिंग के तौर पर भी भेजते हैं। कुछ प्रशिक्षण संस्थानों ने अपने प्लेसमेंट सेल भी खोले हैं, ताकि शिक्षण-प्रशिक्षण के पश्चात छात्रों को रोजगार भी दिलाया जा सके। जनसंपर्क अधिकारी के लिए प्रायः लिखित परीक्षा ली जाती है, जिसमें भाषा, सामान्य ज्ञान और विषय से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं। कहीं-कहीं सीधे साक्षात्कार के लिए ही बुलाया जाता है। नौकरी के अलावा यदि छात्र चाहें तो अपनी जनसंपर्क एजेंसी या उच्च शिक्षा प्राप्त करके शैक्षिक क्षेत्र में भी जा सकते हैं।

वर्तमान में उत्तराखंड में अलग से जनसंपर्क का पीजी डिप्लोमा अकेले उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी में करवाया जा रहा है. हाँ, पत्रकारिता एवं जनसंचार की पढाई  कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, हेमवतीनंद बहुगुणा केंद्रीय विष्वविद्यालय, श्रीनगर गढ़वाल और दूं विश्वविद्यालय में होती है. इसके अलावा भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली, माखनलाल चतुर्व्रेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय आदि में भी यह पाठ्यक्रम चलाया जा रहा है।